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________________ (४-१) खसमरानन्द छिड़कनेसे ग्लोनितचित्तं आत्मारामकी मलीनता हटती है और यकायक जागृत हो अपने वास्तविक स्वरूपको विचारने लग जाता है कि, ओहो ! मैं तो परम शुद्ध सिद्ध सदृश ज्ञानानन्दी मात्मा हूं, मेरी जाति और सिद्ध महारानकी जातिमें कोई अन्तर नहीं, मेरेमें वर्तमानमें जो मलीनता है उसका कारण मेरा कर्म-सेनाओंसे घिरा हुमा रहना है। सच है, वृथा ही इन्द्रिय-जनित सुखोंको सुख कल्पकर आकुल व्याकुल हो रहा हूं। इन दुष्ट इन्द्रियों से किसी भी मात्नाकी तृप्ति नहीं हो सकी। हाः ! देशंना संखी बड़ी हितकारिणी है। यह सत्य कहती है । मैं निस सुखकी चाहना करता हूं वह सुख तो मेरा स्वभाव है। मेरे ही में विद्यमान है। मैं अपने भंडारको भूलकर दुखी हो रहा हूं। आन इस संखीकी कृपासे मेरे चित्तको बड़ा ही माल्हाद हुभा है, ऐसा. विचार उस सखीसे हाथ जोड़ कहता है कि, हे भगिनी तुम इसी प्रकार मुझपर रूपा करके प्रति दिवप्त अपना पुष्ट धर्मामृत-जल मेरेमें सींचा करो, जिससे मेरा निवलपना नावे और साहस पैदा हो, कि मैं फिर उद्यम करके मोहके चुंगलसे हटूं। इस प्रकार इस आत्माराम की चेष्टा देख भायु बिना सातों कर्मोंकी सेनाएं जो इसको धेरै हुए हैं कांप उठती हैं। इतना ही नहीं सेना के कई कायर सिपाही अपने बलको घटा हुआ मानने लगते हैं । भात्मारामका प्रार्थनानुसार देशनालब्धि अपना पुनः पुनः उपकार प्रदर्शित करती है । ज्यों २ इसके ऊपर देनाका असर पड़ता है, • कर्म-सेनाको बल शिथिल और स्थिति संकोचरूप होती जाती है। यहां तक कि ७० "कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थिति घटकर: एक
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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