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स्वसमरानन्द । आत्मवीरके पाप्त एक बड़ी जीतकी बात यह है कि जब इसके विपक्षी अशुभ कषाय भावोंके वीर कम होते जाते हैं । तब इसके पास एक वैराग्यरससे भरे हुए मदोन्मत्त शुभ भावरूपी वीर बढ़ते जाते हैं। ग्यारह प्रतिमामई उत्तरोत्तर एक एकसे सुंदर
और मनोज्ञ सेनाके बलने इस आत्मवीरको बड़ा बलवान बना. दिया है और यह धीरे २ मोहके चित्तको लुभानेवाले पर द्रव्योंको और पर भावोंको छोड़ता जाता है । यहां तक ब्रह्मचारी हो स्त्री त्यागता, फिर आरम्भ त्यागता, फिर धनादिक व उनकी अनुमति भी त्यागकर क्षुल्लक और ऐलक हो जाता है। इस अनुपमदशामें रहकर यह आत्मवीर मोहके बलको बहुत वीरता
और तेजी के साथ घटाता जाता है और अपनी शक्ति को बढ़ाता जाता है। ज्यों, ज्यों, स्वाधीनता, निर्मयता, निराकुलताकी वृद्धि होती है त्यो त्यो स्वानुभवरसकी धाराका स्वाद बढता जाता है
और यह धीरवीर आपमें अपने शुद्ध स्वरूपका आनन्द लेता हुभा स्वसमरानंदके हितकारी खेदसे कञ्चित भी खेदित होता नहीं।
आत्मवीर स्वविरोधी संप्तारसे विमुख होता हुआ अपने निनानन्दके विकासको प्रदान करनेवाली शिव-तियाकी गाढ़ प्रीतिके कारण मोहकी सेनाको नाश करनेके लिये दृढ़ प्रयत्नशील हो रहा है। पांचवें गुणस्थानके उत्कृष्ट ऐलक पदमें सुशोभित होता हुआ तथा उत्सष्ट श्रावककी मर्यादाको अखंड पालता हुआ
आत्यंत उदासीन रह अपनी वैराग्यमई छटाको ऐसा प्रकाशित कर रहा है कि जिससे दर्शन करके जीवोंको मोह भवके गाढ़ बंधनोंसे