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स्वसमरानन्द
(२८) -मोहकी सेनाको धीरे १ निर्वल कर रहा है। अहिंसा अणुव्रतसे असहिंसा करानेवाले कपायरूपी भावको, सत्यं अणुव्र से अपत्य बुलानेवाले कषायरूपी भावको, अचौर्य मणुव्रतसे चोरी करानेवाले लोमादि कपायरूपी भावको, ब्रह्मचर्य अणुव्रतसे स्वस्त्री सिवाय अन्य स्त्रियों में रमन करानेवाले कपायरूपी भावको, परिग्रह प्रमाणसे तृष्णा बढ़ानेवाले भावको रोकता है ! दिग्वत, देशवत, अनर्थ दंडवत तथा सामयिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसविभागवत यह सातों व्रत उन ऊपर कहे पांच अणुव्रतरूपी वीरोंको सहायता देने हैं और कपायोंसे युद्ध करने में मदद प्रदान करते हैं । इस भूमिहामें ठहरनेसे इस आत्म वीरका सामना कानेको जो चौथी भूमिकामें ७७ प्रकृति आती रहती थीं, उनमें से दस प्रकृतियों की सेनाने आना बन्द कर दिया, याने अप्रत्याख्यानावर्णी क्रोध, मान, माया लोभ, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांग, वजवृषभनाराचसंहनन् तथा इसके साथ युद्ध करनेको पहले १.४ प्रकृतियोंकी सेना थी; अब १७ प्रतियोंकी सेनाने युद्ध करनेसे हाथ -रोक लिया अर्थात् अप्रत्याख्यानावर्णी क्रोध, मान, माया, लोभ, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, देवायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक आंगोपांग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तियचगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीर्ति ॥
यद्यपि यह युद्ध करनेवाली सेना ( कम ) इतनी होगई है, तथापि इस समय मोहके युद्धस्थलकी भूमिमें नरकायुके सिवाय सर्व १४७ प्रकृत्तियोंकी से मौजूद है।