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स्वसमरानन्द ! दंगा। तू अब यह निश्चय कर कि तू अनन्त गुणी परम सिद्धकी जातिवाला है । पिंजरे में बन्द सिंहके समान अपनी शक्तिको क्यों खो रहा है ! वृथा झूठा मोह छोड़ । भवन्धन तोड़।" विद्याधरके यह वचन सुन वह चुप हो रहा भोर कुछ उत्तर न दे सका । विद्याधरने विचार किया अभी चलना चाहिये। एक दफेकी रस्सीकी रगड़से पत्थरमें चिन्ह नहीं बनते, इसलिये पुनः पुनः सम्बोधकर इस विचारे दीन मानवका कल्याणकर इसके दुःखोंको मिटाना चाहिये। विद्याधर जाता है । वह परतंत्र मात्मा एक अचम्भेमें आनाता है परन्तु कुछ समझता नहीं । तथापि नो अशुभ परिणतिरूपी सखी पाकर उसको बातों में उलझाती थी उससे चित्तमें अरुचि आती जाती है तथा शुभ परिणतिरूपी सखी नो कभी २ इस आत्माको देख जाया करती है उसके दर्शन पा लेनेसे यह चित्तमें हर्षित होता है और पुनः उसफे देखनेकी कामना करता है । वास्तवमें इस भवपिंजरमें पड़े पक्षीके छूटने के लिये अब काललब्धि मागई है । इसके तीन कर्मों का क्षयोपशम हुआ है । यह अन मनकी प्रौढ़ विचारशक्तिमें ज.ग रहा है। क्षयोपशमलब्धि देवीने इसपर दया की है। उसीकी प्रेरणासे विद्याधरका आगमन हुआ है । साथ ही विशुद्धिलब्धि देवी अब अशुभ परिणतिरूपी सखीको पुनः पुनः उसके पास जानेसे रोक रही है और शुभ परिणतिको पुनः पुनः मेजकर उसकी प्रीति शुभ परिणतिसे वृद्धि करा रही है। धन्य है यह आत्मा, अब इसके सुधारका समय भागया है । भर इसके दुःखोंका अन्त आ गया है। अब यह शीघ्र ही अपने अनंत