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३३५.A.
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नमः श्रीवतिरागाय । ফুজ্জ্বল।
अनन्त कालसे महाभयानक मोहनगरमें परतंत्रतारूपी वैदके महान दुःखौंको गोगनेवाला आत्मा यकायक ज्ञानी आकाशगामी किसी दयावान शक्तिशाली विद्याधरती दृष्टमें आनाता है उसे परतंत्रताके महान गरी परुणागनक कष्ट में माकुलित देख वह विद्याघर कहता है, " रे आत्मन् ! तू क्यों मानेको भूल गया है ? क्या तुझको मालूम नहीं कि, तू स्वतंत्र स्वभावी है ? तू निश्चयसे तीन लोकका धनी, अनंत ज्ञान, दर्शन, वीय, सुखमई है ! तेरे रगने योग्य मोक्षानगरनिवासिनी शिवलिया है ? जिस गोह रानाकी पुत्री कुमति कुलटाके मालों में तू मोहित हो रहा है उसने तेरी हे चेतन 1 देख कैसी दुर्दशा कर रखी है। तेरी सम्:ति हर ली है । तुझे कदमें डाल रक्खा है। तू ऐसा बावला है कि उसके दिखाये हुए प्रमात्मक रूपों मोहित हो उसके क्षणिक मोहमें तु अपनी सपंथा दुशा कर कहा है । मैं तेरै फाटसे भाकुलित हुआ हूं। मेरे चित्तमें तेरे ऊपर बड़ी ही करुणा आई है । मैं तुझको इस नगरसे छुड़ा सक्ता हूं। और तुझे तेरी मनोहरी सच्ची प्रेमपात्रा शिरतियासे मिला सकता हूं। तू कुछ शंका न कर, मोहकी सेनाको विध्वंस करने के लिये तथा तेरे पाससे अलग रखने के लिये मेरे पास बहुत फोन है। मैं तुझको पूर्ण सहायता..