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________________ ... . . (५३): . “स्वसंमरानन्द ! ही की मुख्यता है । इस समय युद्ध रुक गया है । इस समय यह सम्यक्ती परम गाढ़ भावसे निज अनुभव रसमें ही मन है.। .. फिर किसकी ताव है जो इसके स्वरूपको चलायमान कर सके। यद्यपि यह स्वस्वरूपावरोही हैं, परन्तु अभी तक मोह.रानाफे . प्रपंचोंसे बाहर नहीं गया है। यह भव्य जीव इस बातको जानता . है । इसीलिये भेदविज्ञानशस्त्रको सम्हाले हुए सदा सावधान. . . रह स्वसमरानन्दके अनुभवका भोग भोग रहा है।., . . . . (२७) . श्रीवीर मिनेन्द्र परमात्माकी हार्दिक रुचिसे भक्ति और पूजन कर यह क्षयोपशम सम्यक्ती जीव अपनी चौथी श्रेणी में ही अपनी : प्रतीति सम्बन्धी परिणाम रूपी सेवामें चंचलता देख विचारता है और इस चंचलताका कारणरूप सम्यक्तमोहनीकी सेनाओंका अपने ... ऊपर माक्रमण जान इस कलंकसे अपनेको बचानेके लिये निन . शुद्ध स्वभावमई परमानन्द केवलीकी शरण ग्रहण करता है. और उनके शुद्ध सदगुणमई चरणारविन्दोंमें टकटकी लगा निरखता है । विद्याधर सद्गुरुके प्रतापसे तुरन्त ही करणरूप शुद्ध मावकिी सेनाके दल इस भव्य जीवकी सहायताके लिये प्राप्त हो जाते हैं । यह शुद्ध-भाव दल एकदमसे मोह राजाकी सेनामें घसते हैं । सामने सम्यक्तमोहनीकी सेना और इसके इधर उघरं व पीछे मिथ्यात्त्व मिश्र और अनन्तानुबंधी : कषायोंकी सेना उपस्थित है । करणरूप, सेनाके भावरूप . सिपाही भेद-विज्ञानमई तीक्ष्ण खड़गको लिये हुए सातों प्रकृतिकी सेनाओंको काट रहे हैं । वास्तवमें इन सेनाओंने बहुरूपियका रूप बना लिया है । करण
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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