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स्वसमरानन्द। जाती है। परन्तु निन रस सुधा समूहको बारम्बार पीनेकी उत्कंठा
और चाहना उमड़ भाती है। यह क्षयोपशमसम्यक्ती जीव परम वीरोत्तम श्री शुद्ध वीरनाथकी सभाके दर्शन कर, केवल दर्शन ही नहीं, उनके स्वरूपके ध्यानमें लौलीन हो अपना जन्म कतार्थ मान रहा है, तो भी कभी २ स्वरूपसे च्युत हो झोका खा विषयानुरागमें चला जाता है-यह इसमें निर्बलता है। अभी इसके युद्धक्षेत्रमें सम्यक्तमोहनी अपनी सेनाको बैठाले हुए है। यह चंचलता उसीकी हुई है। पर यह तुरन्त सम्हलता है और अपने स्वरूपमें आ विराजता है । और श्री मात्मवीरकी निर्वाण लक्ष्मीकी अर्चाके अर्थ और उनके प्रतापसे अपना मोह-अन्धकार मिटाने के लिये ज्ञान-ज्योतिके ज्ञानमय विकल्प स्वरूप अनेक प्रकाशमान भावदीपकोंको प्रज्वलित करता है। और इन्हीके प्रकाशमें शोभित होता हुआ व शोमा विस्तारता हुआ दीपावलीका महान उत्सव मना रहा है। श्रीवीर प्रभुकी झर्चाके अर्थ इसने स्वाभाविक आत्मज्ञानमई मोदक तय्यार किये हैं। जिनको प्रसित करनेसे भाविक जीवोंका क्षुधारूपी रोग सदाके लिये छूट जाता है। इन अनुपम मोदकोंको परम सुन्दर स्फटिक मणिमय निज सत्ताकी रकाबीमें विराजमान कर और तीन रत्नमई परम दीपको स्थापित कर बड़ी ही सार और सुपट भक्तिसे श्री परमात्म प्रभु और उनकी निर्वाण लक्षमीकी पूजन करता है। इस समय और इस क्षण कि जब श्रीमहावीर परमात्माने सर्व परसम्बन्धोंको हटाकर अपनी मुक्तितियासे सम्मेलन कर परम तृप्तताका लाभ किया है-इस नैवेद्य और दीपपूजन