________________
(११)
स्वसमरानंन्द ।
सभा में उपस्थित हो चहुं ओर दृष्टि फैलाकर देखता है, तो सभामें परमसौम्य, सहजानन्दरस से भरपूर स्वाभाविक छटामें कल्लोल करनेवाली अनेक विशाल मूर्तियें विराजमान हैं । ज्ञान; दर्शन, सुख, ची, चारित्र, सम्यक्त, क्षमाभाव, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य्यं तत्रूप, अततरूप, एकरूप, अनेकरूप, स्वद्रव्य अस्तित्व, परद्रव्यनास्तित्व, स्वक्षेत्रमस्तित्व, परक्षेत्रनास्तित्व, स्वकाल अस्तित्व, परकाल अस्तित्व, स्वभाव अस्तित्व, परभावनास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि परम शांत गुण परम समताभाव के साथमें एक ही स्थउपर अविशेषताके साथ विराजमान हैं । श्रीजिनेन्द्र महावीर परमात्माके उपयोगरूप देहसे अनुभव स्वरूप परम दिव्यध्वनि अपनी गंभीरता, सत्यता, मनोहरता और वीतरागता से सर्व सभा उपस्थित सभासदको आनंदित करती हुई परमचित्स्वादुरूप अमृतसे तृप्त कर रही है । इस समयकी छटा निराली है । सर्व सभा में एक समता छा रही है | जैसे शरदऋतुके निर्मल बादलोंसे आकाश आच्छादित हो परम शोभा विस्तारता है उसी तरह अनुभव रसकी धाराओंके बरसने से सिवाय इस स्वरसकी शोभाके और कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता । इन धाराओंका ऐसा प्रभाव है कि अनादि संसारताप एकदम शान्त होकर मिट जाता है। विषयभोगकी तृषासे त्रासित व्यक्ति अनेक विषयों में दौड़ २ कर जानेसे केवल खेद ही उठाता * ऐसे है या अधिक तृपाके चलको बढ़ाकर परम खी ।.
.