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स्वसमरानन्द ।
(५०) है और फिर एकाएक सम्हल जाता है। कभी २ इन्द्रिय विषयोंकी चाहनाको उपादेय मानने लगता है कि एकाएक सम्हल जाता है। इस तरह १५ मल दोषोंमेंसे कभी किसी न किसीके झपेटमें आ जाता है । अपने मात्मद्रव्यको शक्तिकी अपेक्षासे परमात्मासे भिन्न श्रद्धान रखते हुए भी कभी २ निश्चयसे भी भिन्नता समझ लेता है और तुरंत सम्हल जाता है। अपने स्वरूप समाधिमें रहना ही उपादेय समझता है, परन्त कभी २ पंचपरमेष्टीकी भक्तिको ही एकान्तसे सर्वथा मोक्ष-कारण जान सन्तुष्ट हो जाता है; परन्तु तुरंत ही सम्हल जाता है। इस प्रकारकी मलीन, चलित और अगाढ़ अवस्थाको भोगता हुमा भी अपने सम्यकूश्रद्धानसे मिरता नहीं । मिथ्यात् और मिश्र लाखों ही यत्न करते हैं, परन्तु इसकी थिरताको मिटा नहीं सक्त। ऐसी क्षयोपशम सम्यक्तकी अवस्थामें यह वीर भव सम्बन्धी सुखसे विलक्षण शात्माधीन सुखको ही अपने आपमें अनुभव करता हुमा
और अपने सत् स्वरूपी सर्व अन्य द्रव्य, गुण, पर्यायोंसे पृथक् भावता हुभा जो आनंदका अनुभव करता है वह अनुभव परिग्रही सम्यक्तरहित षटखंडाधिपति चक्रवर्तीको भी नहीं हो सका धन्य है यह वीर जो इस प्रकार साहस कर प्रवक मोह-शत्रुसे युद्धकर अद्भुत स्वसमरानन्दका स्वाद ले रहा है।
___ आन यह आत्मवीर क्षयोपशमसम्यक्तके मनोहर वस्त्रोंसे सुसज्जित हो परमात्म परम पावन महावीर-सम्मति वीर-अतिधीर-वईमान स्वरूप श्री शद्धात्म । के