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स्वसमरानन्द । है कि उसकी वह स्वरूपसावधानी टूट जाती है और लाचार हो विचारेको ग्यारहवां स्थान छोड़ना पड़ता है।, दसमें आता है। -वहां कुछ दम लेता ही है कि इसको निल देख संज्वलन क्रोध, मान, माया व नोकषायकी सेनाएं भी घेर लेती हैं और इसको दसवैसे नौवे में, नौवेसे माठवेंमें और आठवेंसे हटाकर सातवमें पटक देती हैं। ज्यों २ यह गिरता है-इसकी ऊंची सावधानी नीची होती जाती है, त्यों २ ही कपायोंकी सेनाएं बल पकड़ती जाती हैं। वास्तवमें जो युद्धमें कड़नेवाले हैं उनके लिये बड़ीमारी सावधानी चाहिये । यह युद्ध परिणामोंका है, इसमें त्रिशुद्धताकी कमी ही असावधानीका कारण है। कुछ आत्मवीरकी प्रमाद अवस्था नहीं।
सातवें गुणस्थानमें ठहरा ही था कि एकाएक अप्रत्याख्यानावरणी और प्रत्याख्यानावरणीकपाय उदयमें आकर उसको दवा देते हैं और यह विचारा गिरकर सातवेसे छठे और छठेसे चौथेमें आ जाता है। देखिये, विशुद्धरूप परिणामोंकी सेनाओंकी निर्ब. लता जो कषायकी सेनाओंसे दबती चली जाती है । ग्यारहवेंका धनी चौथेमें भा गया है। चारित्रकी ममता हट गई है। संयमके छूटनेसे भावोंमें चारित्र हीनता छा गई है। केवल श्रद्धान और स्वरूपाचरण चारित्र ही मौजूद हैं यद्यपि चारित्रका आनन्द विघट गया है तथापि सम्यक्तका आनन्द तो भी इसको दृढ़ बनाये हुए है और फिर आगे चढ़ानेकी उत्सुकता रख रहा है। परन्तु दबते हुए को दबना ही पड़ता है। एकाएक मोहका सर्वसे प्रबल शत्रु मिथ्यात् आता है और अपनी प्रबल सेनाभोंके बलसे ऐसा