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(६०) स्वसमरानन्द ।। जाते हैं; उसके खास भावरूपी तनपर अपना घाव नहीं कर सक्ते। जब सर्वसे प्रबल सेनापतियोंकी यह दशा, तब अन्य सैन्यगणों के प्रयोग का काममें आ सक्ते हैं ? यह वीर स्वसत्तामें ठहरा हुमा निज दृश्यके अनुपम अनेक सामान्य और विशेष गुणरूनी रत्रोंको परख १ परम तृप्त हो हो रहा है। इस समय इसको यह महंकार है कि मैं अटुट धनका धनी-निन आत्मविभूतिका स्वामी हूं। मेरे समान त्रैलोक्यमें सुखी नहीं। मैं जगतके अन्य सम्पूर्ण द्रव्योंकी व जीवोंकी भी सत्तासे भिन्न, पर निन स्वभावसे मभिन्न हूं | मैं अकलंकी कर्मरूपी कालिमासे परे हूं। मेरे कर्म, नौकर्म, द्रव्यकर्मसे कोई नाता नहीं है । मैं एकाकी चिपिडरूप स्वच्छ स्फटिक समान ज्ञाता दृष्टा हूं । यद्यपि यह विकल्प भी उस स्वानुभवमें स्थान नहीं पाते, परन्तु वक्ताको उस अनुभंवके दृश्यकी दशा दिखलानी है, इससे उस निराकुल थिरभावको इन विकलों ही के द्वारा कथन किया जाता है। स्वसंवेदीको स्वरसवेदनमें विकल्प नहीं, आकुलता नहीं, खेद नहीं । इस अवस्थामें देख मोह राजाको बड़ा ही माश्चर्य होता है कि अब मेरी प्राधान्यता जानेवाली है, अब इसको इस क्षेत्रसे गिरानेका फिर योग्य प्रयत्न करना चाहिये । वह मोह युद्धक्षेत्र में आता है और इन तेरह ही
सुभटोंको ललकारता है, डांटता है और फटकारता है । मोहकी - प्रेरणासे प्रबलताको धार दीनताको छोड़ ज्यों ही वे तीव्र हृदय
वेधक बाण छोड़ते हैं उस विचारेका उपयोग विचलित हो जाता है और आनकी आनमें वह सातवेमे, छठम आ पहुंचता है। जो विश्लोकी तरंगें रुक रही थी वे एकाएक उटने लगती हैं, .