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परमात्मपदारोही, ध्यानमग्न ध्याता ध्यान धेयकी एकता में तन्मय, स्वरूपावलम्बी सप्तम गुणस्थानी वीर आत्मा किस दृश्यका आनन्द भोग रहा है, इसका पता - पाना ही दुर्लभ है, क्योंकि जिस समय यह निज कार्य में तन्मय है उस समय वह वचनके प्रयोगसे : रहित है, और जब वचन कल्पना में पड़ता है. तब उस दृश्यको अपने सामने नहीं पाता। इसलिये यही कहना होगा कि जो अनुभवे सो भी नहीं कह सक्ता और जो शास्त्रद्वारा जाने सो भी नहीं कह सक्ता । - हां जो अनुभव करता है- आत्माका आस्वादी होता है, वह आस्वादसे च्युत हो जानेपर अपनी स्मृतिसे इस बातको जानता है कि अनुभव बड़ा ही आनंदमय होता है, पर उस आनन्दके लक्षणको न तो वह भोग ही रहा है और न वह कह ही सक्ता है। और यदि वह कहने का प्रयत्न करे तो संभव है कि वह अनेक दृष्टांता दाष्टांतों उस श्रोताको सांसारिक इन्द्रियजनित सुखको सुख मानने से हटा दे, परन्तु उसके हृदय में उसके वचनोंके ही द्वारा विना स्वअनुभव पैदा हुए उस मतीन्द्रिय सुखका झलकाव हो जाना अतिशय.. असंभव है ।
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अमृतमई रसकी
स्वरमणी - शिवरूपिणी आशक्तता, उसके स्वरूप स्मरणमें तन्मयता, निराकुलतासे, उसी विचारमें थिरता, पेवता इस सप्तम क्षेत्र में इस आत्मवीरको ऐसी कि मोह शत्रुके सुभट ४ संम्वलन कपाय
युद्धक्षेत्र में इसके सन्मुख हो शस्त्र चलाते हैं, पर उनके निर्बल
हाथोंसे फेंके हुए शस्त्र उस वीरके ऊपर हीं
ऊपर लगाकर गिर
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प्राप्त हो गई है
और ९ नोकषाय