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(७७) स्वसमरानन्द । मरूपी चोटोंसे उन कर्मरूपी सेनापतियोंको विह्वल कर रहा है जो मोह राजाके नष्ट होनेपर भी अपने आप मरना तो कबूल करते हैं, परन्तु पीठ दिखाना उचित नहीं समझते । अंतर्मुहूर्तके लगातार प्रयत्न करनेसे ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अंतराय कर्मोकी सेनाएं अपनी वर्तमान पर्यायको छोड़कर जड़-पत्थरके. खंड समान काम हो जाती हैं । इनके नष्ट होते ही इस वीरास्माको गर्हत परमात्माके शांतमय पदसे मलंकृत किया जाता है। इस अभूतपूर्व दशाके पाते ही अंतरंग और बहिरंगकी अटूट लक्ष्मी प्रभुकी सेवाके लिये भाजाती है । अब तो इस वीरकी अपूर्व दशा है। इसके भानन्दका कुछ ठिकाना नहीं । अब यह कृतकृत्य हो गया है, इसने इच्छाओंका रोग समूल नष्ट कर दिया है, पराधीन, इन्द्रियननित ज्ञान भी नहीं है, मतीन्द्रिय व स्वाभाविक ज्ञानरूपी दर्पणमें विना ही चाहे अपने स्वभावसे त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्याय झलक रही हैं तो भी उपयोगकी थिरता निन आत्मानुभवमें ही शोभायमान है । यद्यपि परोपकार करनेकी चिंता नहीं है तो भी पूर्वमें भावित जगत उपकारक भावनाकेप्रतापसे स्वतः स्वभाव प्रभुकी वचनवर्गणा भबुद्धि पूर्वक किसी कंठस्थ पाठके उच्चारणके समान व निद्रित अवस्थामें वचन स्फूर्ति वत व विना चाहे अंगोंका फडकन व पगोंका अभ्यस्त मार्गमें गमनके समान खिरती है जिसके द्वारा अन्य जीवात्माओंको यह घोषणा प्राप्त होती है कि मोह शत्रुके पंजेमें फसे हुए तुम दुःखी पराधीन, बलहीन और निकृष्ट हो रहे हो, अतएव इस मोहके. विजय करने का उसी उपायसे उद्योग करो जैस कि हमने किया है।