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________________ (१५) स्वसमरानन्द अपना रहा है । इसकी चित्त-मग्नता और एकामताका क्या ठि.. काना है । इस अपूर्व अनुभव स्वादमें रमता हुआ यह वीर मोहसे युद्ध करता हुआ भी परम शांत रहता है और स्वसमरानंदका विलास देख परम संतोष माना करता है। . . . (१८) मात्मरसिक वीर भवनीरके तीरमें धीर हो अपनी गंभीर शक्तिसे धर्मध्यानके चार सरदारोंको अपने चसमें किये हुए उनके द्वारा ऐसा एकाश्मन हो कोसे युद्ध करता है कि अब इसके साम्हने १ संज्वलन और ९ नोकषायकी सेनाओंका इतना बल घट गया है कि वे इसको सातवीं श्रेणीसे नीचे नहीं गिरा सक्त। यह परमात्मतत्त्ववेदी वैराग्य-अमृतके भोजनसे पृष्टताको प्राप्त अपने दलसमूहके संघट्टसे मोहशत्रुकी सत्ताभूमिमें विराजित अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभकी सेनाओंको ऐसा दबा रहा है कि वे सर्व सेनाएं बहुत ही दुःखी हो गई हैं और अपने बंधदलको तोड़कर प्रत्याख्यानावरणादि कषायोंके दलोंमें जा छिपी हैं अर्थात् अपनेको विसंयोजित कर लिया है तथा दर्शनमोहनीकी तीनों प्रतिमई सेनाओंको भी ऐसा दबा देता है कि वे बहुत कालतक उठने के लिये असमर्थ हो जाती हैं । इस क्रियाके किये जानेके पथ्यात् इसका नाम द्वितीयोपशम सम्यकदृष्टि हो जाता है और तर श्रीगुरु विद्याधर आकर इसकी पीठ ठोकते हैं और शाबासी देते हुए उत्तेजित करते हैं कि, हे भव्य ! अब तू मा. हसको न छोड़ और जिन दलोंने तेरे वीतराग चारित्ररूपी पुत्रको कैद कर रक्खा है उन दलोंको निवारण कर अर्थात् चारित्र.
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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