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खसमरानन्द । (५७)
(२९) ___परम कल्याणका इच्छक निजगुणानंदवईक सम्यग्दृष्टी आत्मा मोहमलसे युद्ध ठान उसके बलको दबाते २ पंचमगुणस्थानमें पहुंचकर और उसके योग्य संपूर्ण साजसामान बदल एकत्र कर अब इस योग्य हो गया है कि आगे बढ़े और जिस तरह हो सके शीघ्र ही आत्माके बैरीका विध्वंस कर सके। इस धीरने १४८ कर्मप्रकृतियोंके दलोंमेंसे ६१ प्रकृतियोंके दलोंको तो अपने सामनेसे. भगा दिया है, केवल ८७ (१०४-अपत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोभ, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, देवायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, तिर्यगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीति) प्रकृतियोंके दल ही युद्धको सामने उपस्थित हैं। इस वीके विशुद्ध भावरूपी दल भी ऐसे वैसे नहीं हैं ! मात्मानुभवरूपी अमृतका पान करते २ इनके अन्दर बलिष्टता ऐसी बढ़ गई है कि ये मोहके दलोंको कोई चीन भी नहीं समझते।, इसको अपने कार्यमें अति सावधान देख विद्याधर गुरु इसको पुकार कर कहते हैं-अरे वीर ! साहस कर, प्रमाद चोरके वशमें न पड़, अब तू मोहके दलकी भी इष्ट चीनको जो तेरे पास हो अपने पाससे निकाल और नई मूर्छा और उसके कारणोंको मेट, शरीर मात्र परिग्रहका धारी रह और निर्द्वन्द विकार रहित होकर मोहके दलोंके पीछे निरन्तर ध्यानका अग्निवाण फेंक | इस शिक्षासे द्विगुणित माइस पाकर यह वीर आमा उठता है, कमर कसता