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स्वसमरानन्द ।
पाता है, कर्म शत्रुओंके विध्वंस करनेका उत्कट साहस जमाता
जाता है ।
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इस तरह छह आवश्यक क्रियाओंकी सेनाओंको देखकर चेतन चीर परम प्रसन्न हो रहा है । प्रगत्तंगुणस्थान में ठहरा हुआ चेतन अपनी सर्व सेनाका अलग ९ विचार करता हुआ अपने बलको पुष्ट जान और मोह शत्रुसे विजय पानेका पक्का निश्चयंकर स्वसमरानन्दमें तृप्त हो परमानन्दित रहता है । ( ३२ )
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चैतन्य राजा अपनी पूर्ण शक्तिको लगाकर व अपनी २८ मूल गुण रूपी सेनाका विचार कर यकायक अपने उज्जल परिणामरूपी शस्त्रोंकी सम्हाल करता है और बातकी बातमें पष्टम श्रेणी से सातवीं श्रेणीपर पहुंच जाता है इस श्रेणीपर पहुंचते ही अब तो यह अपने समरके एक तान में ऐसा लीन होता है कि इसे और कोई ध्वनि ही नहीं सुझती है। यह क्षायिक सम्यग्टी है । स्वतत्त्वका अप निश्चय रखनेवाला है। अपनी शक्तिकी व्यक्ति में व मोहके जीतने में अटूट परिश्रम कर रहा है । यह वीर मात्मा अब सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में तन्मय है। अब नीचे गिरनेका नहीं, ऊपर ही ऊपर चढ़ता है। इस समय मोह शत्रुकी सेनाएं जो ६३ प्रकृतिरूप छठेमें आकर जमा होती थी सो उनमें से ६ का आना बन्द हो गया । जैसे अस्थिर, अशुभ, असाता, भयशस्कीर्ति, अरति और शोक केवल ५७ ही आती हैं।
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'हाँ' जब यह आत्मा स्वस्थान अप्रमत्त अवस्था में होता है तब इसके .. आहारक शरीर और माहारक अंगोंमें पांव भी आते हैं। इस
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