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स्वसमरानन्द।
(६८) समय चेतन राजाके सामने मैदानमें खड़ी हुई ८१ मेसे आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, निद्रानिद्रा, प्रचलापचला, और स्त्यान गृद्धि निकाल करके ७६ ही प्रकृतियोंकी सेना है, तो भी मोहके युद्ध क्षेत्रके अड्डेमें १४८ में से ३ दर्शनमोहनी, ४ अनंतानुबंधी कषाय, नरक व तिथंचायु इस तरह ९ निकाल कर केवल १३९ प्रकृतियोंकी कुल सेनाएं जमा हैं । अब भी इस उद्योगी वीरात्माको इन सर्व सेनाओंको विध्वंश करना है-बड़ा भारी काम है । तो भी यह घबड़ाता नहीं, इसके परिणामों में बड़ी भारी शांतता है, बड़ी भारी वीरागता है, बड़ा ही ऊंचा धर्मध्यान है । रूपातीत ध्यानमें लय है जहां ध्यान, ध्याता, ध्येयका विकल्प नहीं है । इस समय इसके उपयोगरूपी दिशामें परमशांत निर्मल आत्मचन्द्रमा अपनी शुद्ध गुणकिरणावलीको लिये हुए झलक रहा है। उस चंद्रमासे जो अतिशांत स्वानुभवरूपी रस टपक रहा है उसे पान करते हुए इस ध्यानीको परम तृप्तता हो रही है । उस ध्यानमें प्रमाण, नय और निक्षेपके सर्व ही विकल्प अस्त हो गए हैं। इतने ही में मोह नाशक अधोकरण लब्धिके समय २ अनंत गुणी विशुद्धताको लिये हुए परिणाम रूपी सेनाओंका समागम होता है । यद्यपि यह सेना उतनी बलवती नहीं है जैसी. अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणको सेनाएं होती हैं तो भी,मोह शत्रुको छकानेके लिये व उसे रुलाने के लिये बड़ी ही प्रबल हैं। इन परिणामोंका अनुभव कर वीरात्मा त्रिगुप्तरूप अति प्रौढ़ दुर्गमें बैठा हुआ:-मोहके झपेटोंसे बिलकुल बचा हुआ है । उसको अपनी, अनुभूति तियासे सम्मेलन करनेका परम सुंदर अवसर है । वास्तव में यह अनुभूति सखी ही शिव