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(६९) स्वसमरानन्दः । सुन्दरीकी भेट, कराने वाली है। विना इसके बीचमें हुए :कोई 'उस अपूर्व सुंदरीसे भेट ही नहीं कर सका। . . . . . . '.. बड़े ही आश्चर्यकी बात है. कि यह स्वसमरानादी आत्मा स्वानुभूतिका भोग भी करता जाता है. और युद्ध भी करता जाता है । यद्यपि लौकिक अवस्थामें, दोनों क्रियाओंका एक साथ युगपत होना सर्वथा असंभव है; तथापि पारलौकिक अवस्थामें दोनोंका. एक साथ ही सम्बन्ध है, जो निजानन्दी है । वही-मोह विजयी. है । जो स्वरसका पान करनेवाला है. वही. मोह संहारक है। जो. भव सम्बन्धी. क्लेशोंसे अतीत है. वही मवमें भ्रमणः करानेवाले. मोहको जीत सक्ता है । जो निन भूमिमें स्थिर है वही अपने निशानोंसे मोहकी सेनाओंको चूर चूर कर सकता है। इस तरह यह सातिशय अप्रमत्ती. आत्मा परम वीरताके साथ अपने प्रेम.. रसको पीता हुआ व अपने स्वभावमें लय रहता हुआ : मोहके .. सामने डटा हुमा स्वसमरानन्दका परमसुख - अनुभव कर . . नहा है।
सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानमें विराजनेवाला साधु आत्मा मोहको विजय करने ही वाला है । इसके परिणामरूपी. उन्चल चाणोंकी. ऐसी तेजी है कि मोहकी: सेनाको शीघ्रही विध्वंश करनेवाला है। इसके निर्मल. ध्यानकी. खगके सामने किसीका. जोर नहीं चलता । यकायक तेजीसे धर्म ध्यानकी खड़गको उठाते ही मोह शत्रुके दल जो सामने खड़े हुए हैं कांप जाते हैं.। संज्वलन क्रोधः मान माया लोभ और नोकषाय सेनापतियोंकी सेना यकायक