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स्वसमरानन्द ! निश्चय स्वरूपका पर्चा होकर यह अव स्वभाव विकाशी हो गया है, औपाधिक गुणोंसे रहित होनेसे निर्गुण है, पर स्वाभाविक गुणोंका स्वामी होनेसे सगुण है । धन्य है यह वीर, धन्य है यह सम्यक्ती आत्मा, धन्य है यह रत्नत्रयका स्वामी । अब यह भक्तजनोके द्वारा ध्येय है । स्वसमरानंदके फलको पाकर निश्रग शुद्धोपयोगको रखता हुआ यह वीर महावीर परमात्मा होकर जिस अद्भुत स्वजातीय आनन्दका अनुभव कर रहा है उस भानन्दकी झलकको वे ज्ञानी भी प्राप्त कर सक्ते हैं जो इस महावीर परमात्मा के गुणका अनुभव कर उसके शुद्धोपयोग पथपर अपने उपयोगको आचरण कराते है । शुभोपयोगमें रुके हुए मनुष्य मुमुक्षु होकर fte Farrotest फिकर करते हैं वह स्वात्मलाभ सर्व मुमुक्षुओको प्राप्त हो ऐसी इस स्व स्वरूप मननके अभिलासी लेखककी भावना है । जिस वाइस वीर मिथ्यादृष्टीने अति नीची श्रेणी से चढ़ कर सर्वोच्च श्रेणीको प्राप्त करके अपने परमात्म पदका लाभ कर लिया है और इस चतुर्गतिमय संसारके भ्रमणसे अपनेको रक्षित कर लिया है । इसी तरह जगत निवासी हरएक स्वभाव विकासका इच्छुक भव्यात्मा उद्यम करके उस परम सुखमयी स्वपदको उपलब्ध कर सक्ता है और भवसागर से निकलकर अनन्त काल तक के लिये सुखसागरमें मग्र होकर परम सुखको प्राप्तकर सक्ता है । इति-शुभं भवतु - कल्याणं भवतु ।
मिती श्रावण सुदी १ रवि० विक्रम सं० १९७३, वीर सं० २४४२, तारीख ३० जुलाई १९१६ ई.