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स्वमरानन्द
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रहता है । इसीके प्रतापसे सारी कर्मों की सेनाओं की संत्ता दूर हो जाती है | आत्मबीरके लिये मैदान साफ होजाता है । कहीं कोई भी रिपु योद्धा दिखलाई नहीं पड़ता । सब तरह शत्रुका विध्वंश कर इस वीरने अन्त कालके लिये अपना कोई भी विरोधी नहीं रक्खा जो इसको अपने साध्यसे रंच मात्र भी गिरा सके । मथ यह पूर्ण परमात्मा होगया है | शरीरादि किसी भी पुद्गलकी वर्गणाका सम्बन्ध नहीं रहा है। निष्कलंक पूर्णमासीके चंद्रमा के समान पूर्ण प्रकाशमान होगया है । स्वभावसे ही ऊर्ध्वं गमन करके यह तीन लोकके अग्रभागमें तनुं बातवलयमें जाकर ठहरा गया है। अलोकाकाशमें केवल प्रकाश होने से धर्मास्तिकायकी आगे सत्ताके बिना यह आगे नहीं जाता । यह सिद्धात्मा होकर ऐसा 'इच्छा' रहित, कृतकृत्य और स्वात्मानन्दी हो गया हैं कि इस परमात्माको अब कोई सांसारिक संकल्प विकल्प नहीं सताते । इसका ज्ञान स्वरूपी आत्मा अपने अतिम देहके समान उससे कदमें वालसे भी कुछ कम आकारको रखे हुए सदा स्वरूपके अनुपम आनन्द रसका स्वादी रहा करता है, निज शिवतियाके विलाससे उत्पन्न अमृतधाराका नित्य निरन्तराय पान किया करता है । अब इसकी ईश्वरता पूर्ण हो गई है, जिस अटूट लक्ष्मीको मोहकी फौनने दबाया था उसको इसने हासिल कर लिया है। इसकी महिमाका अत्र पार नहीं है | मोह शत्रुसे लड़ते हुए जो समरका आनन्द था वह यहां समरके विजय के अनन्दमें परिणमन हो गया है। इसका मानन्द भव स्वाधीन है । आप ही नाथ है, आप ही शिव सुंदरी है, सिर्फ कथनमें भेद है, परन्तु वास्तव में अभेद है । परम शुद्ध
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