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स्वसमरानन्द।
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शुद्ध निधेष नयसे आनन्दकन्द शुद्ध युद्ध परमस्वरूपी आत्मा व्यवहार नयसे मोहनृपकी प्रबल सेनाके अधिपति आठ फमोके द्वारा घिरा हुधा अपने मित्र विद्याधरके द्वारा प्राप्त विशुद्ध मंद कपायरूपी सेनाओंके द्वारा उनका बल गंदार उनको भगा. नेका पुरा २ साहस कररहा है। यह भव्य है, शिवरमणीके नरपनेको प्राप्त होनेवाला है । मन इसको प्रायोग्य लब्धा स्वामित्व प्राप्त हो गया है। जिस पक्षकी विजय होती जाती है उस पक्षके योद्धाओं का उत्साह और साहस पड़ता जाता है। इस वीरात्माके विशुद्ध परिणामोंमें इस तरह उत्साहरूपी तरंगोंकी वृद्धि है कि समय २ उनमें अनंतगुणी विशुद्धता होती जाती है, अपनी सेनाकी अधोकरण लम्बिने होनेवाली चमत्कारिताको देखकर यह शूरवीर आत्मा एकाएक मोहनी कर्मकी वृहत् सेनाके बड़े दुष्ट और महा अन्यायी पांच सुभटपतियों ( अफसरों) को ललकारता है और उनका सामना करनेको उद्यमीभूत होता है। यह पांच सुभट सम्पूर्ण जगतको भवके चकरोंमें नचानेवाले हैं। इन्हीकी दुष्टतासे अनंतानंत जीव इस सप्तारमें अनादिकालसे पर्यायमें लुब्ध होकर मालित हो रहे हैं। इन दुष्टोंकी संगति जबतक नहीं छूटती तबतक कोई जीव इस जगतमें किसी कर्मशत्रुका न तो क्षय करसक्ता है न उनके बलको दवा सक्ता है । जीवोंको भव २ की आकुलतामयी उराधियोंमें परेशान, अज्ञान और हैरान रखकर उसको एकतानके गान अमलान सुखथानमें स्ववितानका निशान स्थिर रखकर आत्मरस