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स्वसमरानन्द।
(१०) नरछियोंको इतनी तेजीसे चला रहे हैं कि पांचों सेना के सिपाही घवड़ा गए हैं, करीब २ हिम्मत छूटती जाती है, समय १ भमते झरते जाते हैं तथापि समय १ अपने सदृश अनंत कर्म वर्गणाभोंको बुला लेते हैं। इसीसे अभी सन्मुखता त्यागते नहीं। धन्य है यह वीर भात्मा-परम धीरताके साथ युद्धकर रहा है मौर इस बातपर कमर कप्त की है कि किसी तरह इन पा को यदि क्षय न कर सका तो निर्बल कर भगा तो भवश्य देना। नातक कोई पुरुष किसी इष्ट और साध्य कार्यके लिये भपने एक मन, वचन, कायसे उद्यत नहीं होता और संकटोंकी भागतिमे भाकुलित नहीं होता तबतक कार्यका सिट होना कठिन क्या असाध्य ही होता है । जिसको जैनागमके अदभुत रहस्य से परिचय हो गया है वह जीव जिनत्व प्राप्त करनेको तत्पर हो जाता है। नैसे द्रव्यका लोभी देश प्रदेश नाकर दुःख उठानेकी कोई चिन्ता न करके किसी भी रीतिसे द्रव्यको उपार्जन करता है व विधाका लोभी दूर निकट क्षेत्रका विचार न कर विद्याफा लाम हो वहीं भवेक कष्ट उठाकर जाता है और विद्याका काम करता है। इसी तरह मात्मीक सुधाके स्वादका लोलुपी जहां व निस उपायसे यह तृप्तिकर परम मिष्ट स्वाद मिले उसी जगह जा उसी उपायको कर निस तिस प्रकार सुधासंवेदका उद्यम करता है ऐसे ही यह वीर भात्मा परमदयालु विद्याधरके प्रतापसे निज मनुभृतितियाकी प्राप्तिका लोलुपी होकर अपने सारे उपयोग और शक्तिको इसी अर्थ कगा रहा है और इस अनुभूति-तियाके संवेदके विरोधी शत्रुओंसे भी जानसे युद्ध करता हुआ रंचमात्र