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स्वसमरानन्द |
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देख परम दयालु श्री गुरु विद्याधर फिर आते है और जब इसके पासमें आक्रमण किये हुए मोहके योद्धको कुछ गाफिल और . बेखबर पाते हैं तब इस आत्माको फिर सचेत करते हैं । श्री गुरुका इतना ही शब्द कि, हे त्रिलोक धनी ! क्यौरे परघनमें राग करता है । देख तेरा अटूट भंडार तेरे ही निकट है । जरा
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अपनी नजर जगतसे फेर, निजघर में देख, तुझे तेरी निधिका
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: अवश्य निश्रय हो जायगा । इस आत्माको जगाता है और जैसे ही यह सचेत होता है तत्त्वज्ञान और तत्त्वविचार योद्धाओंकी 'सेनाएं विद्याधरकी प्रेरी हुई इसकी सहायता करने लग जाती हैं। यह वीर इन सेनाओं की सहायतासे मोह वैरीकी सातकर्मरूपी सेनाओंके जोरको और स्थितिको कमजोर कर देता है। अंत:कोहाकोड़ी सागर मात्र ही स्थितिकर देता है । और अपने बलको बढाते हुए प्रायोग्य और करणलब्धिके उज्वल परिणामोंके द्वारा दशनमोहनी के तीन और चारित्रमोहनीके ४ अनंतानुबंधी कपाय ऐसे सातों योद्धाओंकी सेनाको ऐसा दबाता है कि वह बिलकुल सामने से हट जाते हैं। उनका इटना कि यह आत्मा फिर सम्यक्त मित्रकी रक्षा में चला जाता है, उपशम सम्यक्तके विशुद्ध परिणामोंका कर्ता भोक्ता हो जाता है और इस दशा में मैं क्रोधादि कषायोंका कर्ता हूं और क्रोधादि कषाय मेरे कर्म हैं, इस बुद्धिको इटा देता है - जो जगत इसका कर्म और इसको रागी, द्वेपी कर रहा था वही जगत् अब इसका तमाशा हो गया है- यह वास्तव में 1. ज्ञाता दृष्टा है सो अब ज्ञाता दृष्टा पनेका काये ही कर रहा
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है | धन्य है यह आत्मा, इस समय इसका कार्य्यं और सिद्धम
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