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स्वसमरानन्द |
तौ भी इस समय यह प्रथम शुरूभ्यानके शुद्ध शुरू - रंग में रंजायमान होता हुआ अपनी अहं बुद्धिमें उन्मत्त होकर सर्व जगतको भुला चुका है और अपनेको ही शुद्ध चिन्मात्र ज्योतिका धारक परमात्मा समझ रहा है। मैं और परमात्मा मिन २ है, इस विकल्पको भी उड़ा दिया है। मैं ध्यान करता हूं ऐसा कर्तापनेका अहंकार भी नहीं रहा है । इस समय यह स्वानुभव रसका भोग भोग रहा है और उसके रसमें ऐसा मगन हो रहा है जैसा एक भ्रमर कमलकी सुगंधमें मुग्ध हो जावे । तथापि इस विकलसे दूरवर्ती है कि मैं स्वानुभव कर रहा हूं । चाहरसे देखो तो इस वीरकी मूर्ति सुमेरु पर्वतके समान निश्चल है। यद्यपि अंतरंग में श्रुतके भावका व श्रुत पदका व योगके आलम्बनका परिवर्तन हो जाता है तो भी इस स्वरूप मगनकी बुद्धिमें कुछ नहीं झलकता । जैसे उन्मत्त पुरुपैके मुखकी और शरीरकी चेष्टा बदलती है, परंतु उसके रंगमें बाधाकारक नहीं होती। आठवें पदमें विरानित ध्यानी आत्मवीरकी ऐसी ही कोई अपूर्व परिणति है । इसकी निराली छटा इसीके अनुभवगोचर है या श्रीसर्वज्ञ परमात्मा के ज्ञानमें प्रतिविम्वित है । यह योद्धा अपने गुरु विद्याधरकी कृपासे आत्मीक सम्पदाका उपभोग करता हुआ मोह शत्रुके मुकाबले में किसी प्रकार न दबता हुआ. स्वसमरानन्दके सुखमें अद्भुत तृप्तिकी उपलब्धि कर रहा है ।
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परमात्मतत्त्व- वेदी,
निजानन्द- अनुरागी, स्वसंवेदन-भागी शिवर मणि - आशक्तधारी निजगुण साहस विस्तारी आत्मवीर आठवें स्वस्वरूपकी मगनतासे ऐसा बलिष्ठ हो गया है कि इसने .