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स्वसमरानन्द ।
इन्द्रियजनित बाधासहित पराधीन क्षणिक सुखोंको सन्मानकी दृष्टिसे नहीं देखता है और अपने ज्ञानानंद रससे प्रपूरित शांतिधाराके निर्मल प्रवाहमें केल करता हुआ नगतके प्रपंचोंसे रहित स्वसमरानंदमें तन्मयता करता हुआ उन्मत्त रहता है।
" आत्म वीर निज शिवत्रियाका अभिलाषी, मोहशत्रुसे उदासी, निजगुण विकासी होकर हर तरहसे रिपुदकको संहार व उसके उपशममें प्रयत्नशील होरहा है, इस समय इसकी दृष्टि चार अप्रत्याख्यानावर्णी कषायोंकी तरफ हड़तासे लग रही है क्योंकि उनके रोकनेके कारण यह आत्मा पंचमगुणस्थानमें नहीं जासक्ता। निस संयमकी सहायतासे मोक्षका विशाल आराम स्थान प्राप्त होता है उस संयम मित्रका कुछ भी समागम नहीं होने पाता । धन्य है संयम मित्र जो इसका निरादर करते हैं और इसके विरोधी असंयमकी कदर करते हैं, अनेक कष्ट सहनेपर भी स्वा. मृत सुखका अनुभव नहीं कर सक्ते आत्मवीरको अपने तत्वज्ञान मित्रकी ऐसी प्रवल सहायता है कि जिसके कारण इस वीरके विशुद्ध परिणामोंकी सेना, प्रौढ़ता बढ़ती चली जाती है उनकी साहसभरी बार २ की चोटोंसे चारों अप्रत्याख्यानावर्णी कपार्योका . मुख कुम्हला गया है और वे एक दूसरेकी मुंहकी ओर ताकते हैं कि कोई तो अपना प्रबल बल करै । अप्रत्याख्यानावर्णी क्रोधके निमित्तसे इस मात्मवीरके परिणामोंमें त्यागभावकी ओरसे अरतिपना हो रहा है, अप्र० मानके उदयसे यह आत्मा निन वर्तमान प्रवृत्ति में जो अहंकार है उसको त्यागता नहीं, अप० मायाके