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'स्वसमरानन्द ।
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तरह पांच समितिकी सेनाएं भी बड़ी ही अपूर्व हैं, जो सदा पांच महाव्रत रूपी सेनापतियोंकी रक्षा किया करती हैं। निज जीव सम समस्त जीवोंका अनुभव कर निज चरण प्रवृत्तिसे पर जीवोंको बाघासे बचानेवाली ईर्ष्या समिति है । कर्कश कठोरं वचन वर्ग'णाओंसे पर जीवोंको बाघा होती है- ऐसा विचार सदा समता रस गर्भित शांत ध्वनिको अंतरंगमें फैलाकर निज तत्वकी सत्यताको - कायम रखनेवाली भाषा समिति है । व्यवहारिक शुद्ध आहार - वर्गणाओंके ग्रहणसे केवल परकी तृप्ति जान निज अनुभवमई परम - शुद्ध और स्वादिष्ट रसका आहार अपने आपको करा कर तृप्ति देनेवाली एषणा समिति है । व्यवहार प्रवर्तन में शुभोपयोग द्वारा वर्तते हुए बंधकी आशंका कर निज उपयोगको अति सम्हालकर निज भूमिसे उठाते हुए व निम गुण व पर्यायके मनन रूपी गृहण में प्रवर्तते हुए निज वीतराग परिणतिको रक्षा देनेवाली आदान निक्षेषणा समिति है । निज आत्म सत्तामें बैठे हुए कर्म मलोंको अपनेसे हटाकर उनको उनके स्वरूप व आपको अपने स्वरूपमें निर्विकार रखनेवाली प्रतिष्ठापना समिति है । ऐसी अपूर्व समिति रूपी सेनाओंके सामने शत्रु की सेना क्या कर सक्ती है | 'पंचेन्द्रिय निरोधरूपी सेना भी बड़ी प्रबल है । यह प्रचल शत्रुओं के आसको रोकने वाली है । स्पर्श इन्द्रिय पर हैं, पुद्गल मय है, विनाशीक है । मैं स्वयं चैतन्य स्वरूप अविनाशी हूंऐसा अनुभव प्रधानी उपयोग निजस्वरूपके सिवाय अन्यको स्पर्श नहीं करता हुआ चेतनकी सेनाकी दृढ़ता से रक्षा करता है।
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