Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી Tollebec le Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ ૩૦ ૦૪૮૪૬ www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन - सिद्धान्त - भास्कर के नियम । १ जैन - सिद्धान्त - भास्कर अङ्गरेजी - हिन्दी-मिश्रित त्रैमासिक पत्र है, जो वर्ष में दिसम्बर और मार्च में चार भागों में प्रकाशित होता है। ७ ८ +++ २ इसका वार्षिक चन्दा देशके लिये ४) रुपये और विदेश के लिये डाक व्यय लेकर ४|| ) है, जो पेशगी लिया जाता है । ११) पहले भेज कर ही नमूने की कापी मंगाने में सुबिधा होगी। ३ केवल साहित्यसंबन्धी तथा अन्य भद्र विज्ञापन ही प्रकाशनार्थ स्वीकृत होंगे। मैनेजर, जैन-सिद्धान्त-भास्कर, आरा को पत्र भेजकर दर का ठीक पता लगा सकते हैं; मनीआर्डर के रुपये भी उन्हीं के पास भेजने होंगे । ४ पते में हेर-फेर की सूचना भी तुरन्त उन्हों को देनी चाहिये । ५ प्रकाशित होने की तारीख से दो सप्ताह के भीतर यदि “ भास्कर " नहीं प्राप्त हो, तो इसकी सूचना जल्द आफिस को देनी चाहिये । ६ . इस पत्र में अत्यन्त प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक के जैन इतिहास, भूगोल, शिल्प, पुरातत्त्व, मूर्त्तिविज्ञान, शिला-लेख, मुद्रा-विज्ञान, धम्मं, साहित्य, दर्शन, प्रभृति से संबंध रखने वाले विषयों का ही समावेश रहेगा । लेख, टिप्पणी, समालोचना - यह सभी सुन्दर और स्पष्ट लिपि में लिखकर सम्पादक, श्रीजैन - सिद्धान्त - भास्कर, आरा के पते से आने चाहिये । परिवर्तन के पत्र भी इसी पते से आने चाहिये | 'किसी' लेखे, 'टिप्पणी आदि को पूर्णतः अथवा अंशतः स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने का अधिकार सम्पादकमण्डल को होगा । ९ अस्वीकृत लेख लेखकों के पास बिना डाक व्यय भेजे नहीं लौटाये जाते । १० समालोचनार्थ प्रत्येक पुस्तक की दो प्रतियाँ “भास्कर" ओफिस, आरा के पते से भेजनी चाहिये । ११ इस पत्र के सम्पादक निम्न लिखित सज्जन हैं जो अवैतनिक रूप से जैन-तत्व के केवल उन्नति और उत्थान के प्राय से कार्य्य करते हैं : प्रोफेर प्रोफेसर ए : उपाध्ये, एम. ए. जून, सितम्बर, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat लाल, एम. एल. एल. बी. बाबू कामता प्रसाद, एम.आर.ए.एस. पण्डित के. भुजबली, शास्त्री www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-सिद्धान्त-भास्कर (जैन-पुरातत्त्व-सम्बन्धी त्रैमासिक पत्र) भाग ४] मार्गशीर्ष [किरण ३ . सम्पादक-मण्डल प्रोफेसर हीरालाल, एम. ए., एल.एल, ची. प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद, एम. आर. ए. एस पण्डित के० भुजबली शास्त्री जैन-सिद्धान्त-भवन धारा-द्वारा प्रकाशित भारत में ) विदेश में एक प्रति का ।) विक्रम सम्वत् १९६४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची हिन्दी-विभाग १ जैनमन्त्र-शास्त्र [श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री] २ सम्मेद शिखरजी की यात्रा का समाचार [ श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन] ३ बंगाल में जैनधर्म [श्रीयुत बोबू सुरेशचन्द्र जैन, बी०ए०] ... ४ ऐतिहासिक प्रसंग [ श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री | ५ भट्टाकलंक का समय [ श्रीयुत पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री] ६ एक प्राचीन गुटका | श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन] ७ जैन-ज्योतिष और वैद्यक-ग्रंथ [ श्रीयुत बाबू अगरचन्द नाहटा ] ८ विविध विषय-(१) नषधीय चरित में जैनधर्म का उल्लेख[श्रीयुत बाबू का० प्र० जैन] १८८ (२) “जैन एन्टीक्वेरी' के लेख [श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन] १८९ ग्रन्थमाला-विभाग-- १ तिलोयपण्णत्ती-[श्रीयुत प्रो० ए० एन० उपाध्ये] ... पृष्ठ ३३ से ४० तक २ प्रशस्ति-संग्रह-[श्रीयुत पं०के० भुजबली शास्त्री ... ,, ८१ से ८८,, ३ वैद्यसार-[श्रीयुत पं० सत्यन्धर आयुर्वेदाचार्य] ... ,, ८१ से ८८,, अंग्रेजी-विभाग1. Podanpura and Taksasila By Kamta Prasad Jain, M.R.A.S.] 57 2. Knowledge and Conduct in Jaina Scriptures [By Principal ___ Kalipada Mitra, M.A., B.L, Sahitya-kaustubha] ... 3. The Jaina Chronology [By Kamta Prasad Jain, M.R.A.S.] ... 4. The Jaina Siddhānta Bhaskara (our Hindi Portion Vol. IV-II) 80 5. Select Contributions to Oriental Journals ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ AHILPIRIHIAND ROIMAnaenimammIITTESTRATIMETAIMER HERNA ITTARIETITAL - SSE. HITAHARA MIDA CHATTA CH ANDE H ATTERIALYERIENHANEL THE JAINA ANTIQUARY. जैनपुरातत्व और इतिहास-विषयक त्रैमासिक पत्र भाग४ दिसम्बर, १९३७ । मार्गशीर्ष, वीर नि० २४६४ किरण ३ जैनमन्त्र-शास्त्र (लेखक-श्रीयुत पं० के० भुजवली शास्त्रो) आजकल बहुतेरे व्यक्तियों का विश्वास मन्त्रशास्त्र पर सर्वथा उठता जा रहा है। इसका प्रधान कारण यह है कि अब हमारे भारतवर्ष में इस शास्त्र के मर्मज्ञ बहुत ही कम पाये जाते हैं। इसी का यह नतीजा है कि वर्तमान समय में सर्वत्र सुलभतया मन्त्रशाल के न पथ-प्रदर्शक मिलते हैं और न इसके साधक ही। जब कोई इस शास्त्र के अल्पज्ञ साधक स्वार्थ-प्रे.रेत हो किसी मन्त्र या देवदेवियर्या को सिद्ध करने के लिये प्रयत्न करता है तब मले प्रकार उसके विधि-विधान को नहीं जानने से असफल हो बैठता या उल्टा हानि उठाता है। इन्हीं सब बातों को देखकर साधारण जनता की श्रद्धा इस शास्त्र से ही उठ जाती है। मन्त्रशास्त्र में अविश्वास होने का यही मूल कारण है। मेरे उल्लिखित कथनानुसार आजकल बहुसंख्यक साधक स्वार्थवासना से प्रेरित हो धन, संसान एवं विजय आदि की प्रापि के लिये ही किसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्कर [भाग ४ मन्त्र या देव-देवियों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होते हैं। इसीसे ऐसे कलुषित साधकों को वे सिद्ध होते भी कम। यह तो लोकोपकारक विद्या है। अत एव स्त्री-वश्यादि प्रकरणों. में परस्त्रोवश्यादि को मन्त्रशास्त्र में सर्वथा निन्द्य ठहराया है। यह है भी ठीक-अन्यथा इन दुर्व्यवहारों के साधक का स्वदार-संतोषादि व्रत किसी प्रकार कायम नहीं रह सकता। साथ ही साथ अधिकतर कमजोर दिलवाले सोधक साधनकार्य में प्रवृत्त होते हुए किसी कारणवश घबड़ा कर या भयभीत होकर कष्टसाध्य समझ उसे बीच ही में छोड़ देते हैं। ऐसे ज्वलंत दृष्टांत एक नहीं अनेकों उपस्थित किये जा सकते हैं। इस प्रकार के कार्य से साधक अपनी अभीष्ट-सिद्धि प्राप्त करना तो दूर रहा–प्रत्युत क्लेश उठाता है। यह स्वाभाविक बात है कि कोई भी देव-देवी साधक को इच्छानुवर्तिनी होने के पूर्व उनकी खरी परीक्षा लेती हैं। साथ ही साथ इनके मन में यह विचार भी उठना स्वाभाविक है कि यह साधक किस उद्देश से हमें सिद्ध करना चाहता है। कहीं इन्हें यह पता लग गया कि साधक का हृदय स्वार्थ-वासना से दूषित है तो फिर कहना ही क्या ? एक बात और है; जिस प्रकार लोक में एक सामान्य व्यक्ति को वश करना साधारण बात है और एक विशिष्ट व्यक्ति को वश करना एक विशिष्ट बात है, उसी प्रकार साधारण देव-देवियों को सिद्ध करना बहुत आसान है-पर विशिष्ट देव-देवियों को वशवर्ती बनाना सहज बात नहीं है। उसके लिये विशिष्ट शक्ति, धैर्य एवं अध्यवसाय की आवश्यकता होती है। वे बहुत परिश्रम से सिद्ध होती हैं। हो, सिद्ध होने पर न सामान्य कारणों से उनका सम्बन्ध-विच्छेद ही हो सकता है और न वे साधक को एसा कोई मार्मिक आघात हो पहुंचा सकती हैं। परन्तु किन्हीं साधारण देव-देवियों पर कोई विश्वास नहीं किया जा सकता। आज वे साधक से सन्तुष्ट हैं—कल ही ज़रा सी त्रुटि पर उनसे असन्तुष्ट हो सकती हैं। बल्कि इस असंतुष्टि से वे अपने उपासक की अत्यधिक क्षति भी पहुंचा सकती हैं। इसके भी पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। कुछ शताब्दियों के पूर्व भारतवर्ष में हिन्दू, जैन एवं बौद्ध प्रत्येक धर्म में इस मन्त्रशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् अधिकतर उपलब्ध होते थे और वे एक से एक विशिष्ट चमत्कार को दिखला कर लोगों को चकित कर देते थे। बल्कि उस जमाने में इस मन्त्रशास्त्र के द्वारा प्रदर्शित इन चमत्कारों से बहुत से भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी भी प्रभावित हो अपने धर्म में दीक्षित होते थे। उस समय जिस धर्म में इस मन्त्रशास्त्र का बोल-बाला नहीं वह धर्म निर्जीव सा समझा जाता था। उन दिनों मन्त्रशास्त्र का एकाधिपत्य इसी से ज्ञात होता है कि शौचादि (मलमूत्र-परित्याग) से लेकर बड़े से बड़े यागादि कृत्य की नकेल इस शास्त्र के सदा हस्तगत रहती थी। यही कारण है कि निवृत्ति-माग-प्रधान जैन धर्म भी इससे नहीं बच सका। साधारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] जैनमन्त्र-शास्त्र गृहस्थों की बात कौन कहे बड़े बड़े तपोनिष्ठ मुनि भी अपने मार्ग के प्रतिकूल होने पर मी इससे मुक्त नहीं हो सके। क्योंकि उन्होंने समझा था कि इस युग में इसकी अवहेलना करने से फिर पीछे धर्म को रक्षा करना कष्टसाध्य हो जायगा। वास्तव में मन्त्रशास्त्र योग का एक अंग है। इसे 'मन्त्रयोग' भी कहते हैं। जैन परिभाषा में यह पदस्थ-ध्यान के अन्तर्गत है। सुप्राचीन काल में यह केवल आध्यात्मिक सीमा के अन्तमक्त था। किन्तु भारतवर्ष में एक ऐसा भी समय आया. जब कि इस शास्त्र की खास तौर से वृद्धि हुई। उस समय इसकी अनेक शाखा-प्रशाखायें निकलों और ये आध्यात्मिक-विकाश को सोमा का उल्लङ्घन कर प्रायः लौकिक कार्यों को सिद्धि का प्रधान साधन बन गयों। यही तांत्रिकयुग' के नाम से प्रख्यात है। जैसा मैं ऊपर लिख चुका हूं इस युग में मंत्र, तंत्र एवं यंत्रों का पर्याय आविष्कार तथा प्रचार हुआ और इस विषय के अनेकों ग्रंथों की रचना हुई। उस समय "कितने ही अध्यात्मनिष्ठ जैन साधु इस लोकप्रवाह में अपने का नहीं रोक सके। इसलिये उन्होंने भो समयानुकूल अपने मंत्रशास्त्र को संस्कारित किया, अनेक अतिशय-चमत्कार दिखलाये, अपने मंत्रबल से जनता को मुग्ध कर उसे अपनी ओर आकर्षित किया और लोगों पर यह भलीभाँति प्रमाणित कर दिया कि उनका मंत्रबाद किसी से कम नहीं है-प्रत्युत वढ़ा चढ़ा है। साथ ही, उन्होंने कितने ही मंत्रशास्त्रों की मी सृष्टि कर डाली, जिन सब का मूल 'विद्यानुवाद' नाम का १० वाँ 'पूर्व बतलाया जाता है”। ___ अस्तु, मन्त्रशास्त्र का विषय बहुन हो गहन एवं गंभीर है। इसीलिये उसे झट-पट समझ लेना यह आसान काम नहीं है। शास्त्रों में जो इसका विवेचन मिलता है, वह अत्यधिक सुन्दरः बुद्धिगम्य एवं मननीय है। जैन-साहित्य में जालिनीमत, विद्यानुशासन, मालिनीकल्प, भैरवपद्मावती-कल्प, भारतीकल्प, नमस्कारमन्त्रकल्प, कामचाण्डालिनी-कल्प, प्रतिष्ठाकल्प, चक्रेश्वरी-कल्प, सूरिमन्त्रकल्प, श्रीविद्याकल्प, ब्रह्मविद्याकल्प, रोगापहारिणी-कल्प, वद्ध मानकल्प, सरस्वतीकल्प, गणधरवलयकल्प. श्रीदेवताकल्प, वाग्वादिनीकल्प और घण्टाकर्णकल्प आदि मंत्रशास्त्र के अनेक मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त पद्मावतीस्तोत्र, जालिनीस्तोत्र, पार्श्वनाथ-स्तोत्र, कुष्माण्डिनी-स्तोत्र, सरस्वती-स्तोत्र और ब्रह्मदेव-स्तोत्र आदि कई मंत्रस्तोत्र भी पाये जाते हैं। प्रनिष्ठा एवं भिन्न-भिन्न आराधना-सम्बन्धी ग्रंथों में मो इस विषय को काफी चर्चा की गयी है। जैनाचार्यों ने मन्त्र-व्याकरण एवं मन्त्रकोष या बीजकोष की भी रचना की है। बल्कि सुनने में आता है कि प्रातःस्मरणीय आचार्य समन्तभद्र ने भी एक मन्त्र-व्याकरण का प्रणयन किया था। उपलब्ध दिगंबर साहित्य में मन्त्र * देखें अनेकान्त' पृष्ट ४२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्कर । भाग शास्त्र के सब से अधिक ग्रंथ मल्लिषेण आचार्य के पाये जाते हैं। आप बड़े मन्त्रवादी थे। स्वरचित 'महापुराण' में आपने अपने को खास तौर से 'गारुडमन्त्रवादवेदी' लिखा है। आपके भैरवपद्मावतीकल्प से यह भी स्पष्ट सिद्ध होता है कि आप सरस्वती से कोई वर भी प्राप्त किये हुए थे। इस बात को आप उक्त ग्रन्थ में 'सरस्वतीलब्धवरप्रसादः' इस पद्यांश से व्यक्त किया है। इस बात की सूचना अन्यान्य ग्रंथों से भी मिल जाती है। आचार्य मल्लिषेण 'उभय-भाषा-कविशेखर' 8 की पदवी से अलंकृत थे। आप जिनसेनाचार्य के शिष्य एवं अजितसेनाचार्य के प्रशिष्य थे। आपका समय विक्रम की ११वीं तथा १२वीं शताब्दी है। क्योंकि आप का 'महापुराण' शालिवाहन शक ९६९ (वि० सं० ११०४) में बन कर समाप्त हुआ था। (१) विद्यानुशासन (२) ज्वालिनीकल्प (३) भैरवपद्मावती-कल्प (४) मारतीकल्प (५) कामचाण्डालिनी-कल्प (६) बालग्रह-चिकित्सा ये छः ग्रन्थ इन्हीं की कृतियाँ हैं। इनमें विद्यानुशासन ही आप के मंत्रशास्त्र का सब से बड़ा ग्रन्थ है। इसमें २४ अधिकार तथा ५ हजार मंत्र हैं। मगर इन्द्रनंदियोगीन्द्र-द्वारा रचित वालिनीमत या ज्वालिनी-कल्प लगभग इससे भी एक शताब्दी प्राचीन है। यह इन्द्रनन्दि बप्पनन्दि के शिष्य तथा वासवनंदि के प्रशिष्य थे। यह तो जैनमंत्र साहित्य की बात हुई; इसी प्रकार बौद्धसाहित्य में ताराकल्प, वसुधाराकल्प और घण्टाकर्णकल्प आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। वैदिक साहित्य में तो इस मन्त्रशास्त्र का एक अलग भाण्डार ही है। __ अब मंत्र-साहित्य के प्रत्येक अंगोपांग के पारिभाषिक शब्दों पर सामूहिक रूप से प्रकाश डाला जाता है : कल्पग्रन्थ-जिन ग्रंथों में मंत्र-विधान, यंत्रविधान, मंत्रयंत्रोद्धार, बलिदान, दीपदान, आह्वान, पूजन, विसर्जन एवं साधनादि बातों का वर्णन किया गया है वे कल्प-प्रन्थ कहलाते हैं। तंत्र-ग्रन्थ-जिनमें गुरु-शिष्य की संवादरूप से मंत्र-यंत्र, तन्त्र, औषधी आदि बातों का उल्लेख हो वे तंत्र-ग्रंथ से अभिहित होते हैं। पद्धति-ग्रन्थ-जिन ग्रन्थों में अनेक देव-देवियों की साधना का विधान बतलाया गया है उनकी पद्धति-ग्रन्थ से प्रसिद्धि है। बीजकोष-मंत्रों के पारिभाषिक शब्दों को समझने की पद्धति दिखला कर एक एक बीज की अनेक व्याख्या की गयी हों उन्हें बीजकोश या मंत्रकोश कहते हैं। मार्ग-मन्त्र-शास्त्र में मन्त्र सिद्ध करने का मार्ग भी मिन्न भिन्न वर्णित हैं। क्योंकि * कई प्राचीन प्रतियों में इनको उपाधि 'उभवभाषाकविचक्रवर्ती, भी उपलब्ध होती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ! जैममन्त्र - शास्त्र I मंत्र शास्त्र का कहना है कि इसी उपाय - द्वारा मन्त्र सिद्ध हो सकता है । दक्षिण, वाम और मिश्र के भेद से इस शास्त्र में तीन ही मार्गों का उल्लेख मिलता है। सात्त्विक मंत्र सात्त्विक सामग्री- द्वारा सात्विक देवताओं की सात्विक उपासना का नाम दक्षिण अथवा सात्त्विक मार्ग है । जिस मार्ग द्वारा मदिरा, मांस और महिला आदि कुद्रव्यों से भैरव, भैरवी आदि तामस प्रकृति की देव देवियों की आराधना करने का विधान हो वह वाम मार्ग है। इसी प्रकार उक्त मांस-मदिरादि वस्तुओं को प्रत्यक्ष रूप में न ग्रहण कर उनके प्रतिनिधियों द्वारा इष्ट की सिद्धि की जाने का नाम मिश्र मार्ग है । प्रधानतया दक्षिण और नाम ये ही दो मार्ग हैं। साथ ही साथ यह भी जान लेना परमावश्यक है कि वाम मार्ग प्रायः तंत्र शास्त्र का विषय है और कल्प- प्रन्थों में इस मार्ग का विवेचन सर्वधा नहीं मिलता है । वाममार्गी प्रायः भैरव और काली आदि देव देवियों के आराधक होते हैं । नवनाथ ही इनके गुरु हैं और वे गुरुपादुका, श्रीचक्र एवं भैरवचक्र की पूजा किया करते हैं । परन्तु इतना बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि वाममार्ग का प्रभाव मिश्र मार्ग पर पड़ा ही है; किन्तु दक्षिण मार्ग भी इसके प्रभाव से बच नहीं सका। इसी का परिणाम है कि दक्षिण मार्गी भी पीछे तमः प्रधान देवताओंकी उपासना करने लग गये । दक्षिण मार्ग सात्त्विक होने से एक प्रकट मार्ग है । पर वाम मार्ग असात्विक होने से गुम मार्ग है । इसी से वे प्रायः अपने मार्ग को बतलाने में संकोच करते हैं और प्रारंभ से ही वे “गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः " इस बात को रट लगाते हैं। तान्त्रिक ग्रन्थ प्रायः वाममार्ग को ही पुष्ट करते हैं। पीछे वाम मार्ग का बन अधिक बढ़ जाने से साविक मंत्र एवं सात्त्विक देव देवियों का सिद्ध होना दुःसाध्य सा हो गया। मंत्र शास्त्र से विश्वास उठ जाने का यह भी एक कारण हुआ । - १३६ सम्प्रदाय - मंत्रशास्त्र में केरल, काश्मीर एवं गौड नामक तीन सम्प्रदाय प्रचलित हैं । वैदिक धर्मावलम्बी मांत्रिकों में प्रायः केरल सम्प्रदाय, बौद्धों में गौड और जैनियों में काश्मीर सम्प्रदाय निर्दिष्ट हैं। काश्मीर सम्प्रदाय वाले सरस्वती, पद्मावती आदि साविक देवताओं के उपासक होने से विशुद्ध दक्षिण मार्गी हैं। गौड़ सम्प्रदाय वाले काली तारा आदि तामस प्रकृति की देव देवियों के उपासक होने से वाममार्गी होते हैं । केरल सम्प्रदाय मिश्रमार्गी सम्प्रदाय है। इसमें प्रकट रूप से तो दक्षिण और गुम रूप से वाम मार्ग का आश्रय लिया जाता है । राजस प्रकृति वाली महालक्ष्मी आदि ही इनकी उपास्य हैं । 'कुलार्णव' आदि प्रन्थों में सम्प्रदाय का आश्रय लेना परमावश्यक ही नहीं प्रत्युत अनिवार्य बतलाया गया है। आगम - मार्ग एवं सम्प्रदाय के समान मंत्र शास्त्र में वेदागम, बौद्धागम एवं जैनागम इस प्रकार तीन भिन्न-भिन्न श्रगम वरिणत हैं । जैनागम दक्षिणमार्गावलम्बी एवं काश्मीर सम्प्रदाय प्रधान है। बौद्धागम वाम मार्गावलम्बी एवं गौड़सम्प्रदाय - प्रधान है। बेदागम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० भास्कर [भाग. मिश्रमार्गावलम्बी एवं केरलसम्प्रदाय-प्रधान है। वैदिक मतावलम्बी मान्त्रिक मंत्र की उत्पत्ति शिव जी से मानकर वेदागम को शैवागम भी कहते हैं। मंत्रशास्त्र के सम्प्रदायों को चक्रपूजा भी मान्य है। जैनों के काश्मीर सम्प्रदाय में सिद्धचक, केरल सम्प्रदाय में श्रीचक्र एवं गौड सम्प्रदाय में भैरवचक्र की पूजा की जाती है। मंत्रदीक्षा-गुरु के निकट शास्त्रोक्त विधि से मंत्र लेने को मंत्रदोक्षा कहते हैं। जिस सम्प्रदाय की विधि से दीक्षा ली गई हो उसी के अनुकूल साधना करने से मंत्र सिद्ध होता है। मंत्रपीठिका-मंत्रशास्त्र में निम्नाङ्कित चार पीठिकाओं का वर्णन मिलता है :(१) श्मशानपीठ (२) शवमीठ (३) अरण्यपीठ (४) श्यामापीठ। मंत्र सिद्धि में पीठिका का होना भी परमावश्यक है। (१) श्मशान-पीट–श्मशान पीठ उसे कहते हैं जिसमें भयानक श्मशान में प्रतिदिन रात्रि में जाकर यथाविधि मंत्र का जप किया जाता है। विवक्षित मंत्र-सिद्धि का काल शास्त्र में जितने समय का बतलाया गया हो उतने समय तक नियम से उस श्मशान में जाकर शास्त्रोक्त विधि से मंत्र सिद्ध करना आवश्यक है। भीरु साधक से यह साधना सम्पन्न होना नितान्त अशक्य है। इसके लिये बड़े दिलेर साधक की जरूरत पड़ती है। जैनियों के कुछ ग्रंथों में कहा गया है कि सुकुमाल आदि मुनीश्वर उल्लिखित पीठ से ही परमेष्ठी महामंत्र को सिद्ध कर मुक्त हुए थे। (२) शव-पीठ-किसी मृतक कलेवर पर आसन जमा मन्त्रानुष्ठान करना 'शव-पीठ' है। यह प्रायः वाममार्गियों का हो प्रधान पीठ है। कर्णपिशाचिनी, कर्णेश्वरी, उच्छिष्टचाण्डालिनी आदि कुदेवियों की सिद्धि इसी पीठासन से की जाती है। (३) अरण्य-पीठ-मनुष्य-संचार-रहित सिंह, व्याघ्र आदि हिस्र पशुबहुल निर्जन एवं भयानक अरण्य में निर्भय और एकाग्रचित्त होकर मंत्र साधना अरण्य पीठ है। निर्वाणमंत्र की सिद्धि के लिये अरण्य ही प्रशस्त बतलाया गया है। इसीलिये निम्रन्थ तपस्वियों ने आत्मसिद्धि के लिये एक निर्जन अरण्य को ही पसंद किया है। सुप्राचीन काल में मुनिमहर्षि नगर-ग्राम आदि में न रह कर सदा एकान्त वन में ही निवास कर आत्म-साधना किया करते थे। इसी का परिणाम है कि नहीं चाहने पर भी अहमहमिकया बहुत सी सिद्धियाँ उन्हें आ घेरती थीं। परिग्रह को एक सुदृढ़ एवं अविच्छेद्य बन्धन समझ कर ऐहिक सुख को लात मारने वाले, विषय-विरक्त वे तपम्वो अनायास प्राप्त उन सिद्धियों का लोकोपकारक सार्वजनीन कार्य में ही उपयोग करते थे न कि अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के कार्य में। बल्कि स्वयं भयानक से भयानक रोगादि से आक्रान्त होने पर भी उनसे मुक्त होने के लिये उन सिद्धियों का उपयोग कमी उन्होंने किया ही नहीं। वास्तव में त्यागमय जीवन के लिये एकान्तवास ही सर्वथा उपयुक्त भी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ । (४) श्यामा - पीठ - यह पीठ यदि वस्तुतः सभी पीठों से दुर्गम एवं दुरूह कहा जाय तो इसमें कोई भो अतिशयोक्ति नहीं होगी । इस अन्तिम पीठ - परीक्षा में कोई विरले ही महापुरुष अपनी असाधारण जितेन्द्रियता से उत्तीर्ण होते आये हैं । एकान्त स्थान में पोडशी नवयौवना सुन्दरी को वस्त्र - रहित कर सामने बैठा मंत्र सिद्ध करने को एवं अपने मन को तिलमात्र भी चलायमान न होने देकर ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहने का श्यामा- पीठ कहते हैं । जैन ग्रन्थों में लिखा है कि द्वैपायन-पुत्र मुनीश्वर शुकदेव आदि इस मंत्र को सिद्ध कर विजयी हैं। जनमन्व-शास्त्र १४१ यहाँ तक तो केवल मंत्र शास्त्र के बाह्य अंगों की समीक्षा हुई, अब देखना है कि मंत्र क्या चीज है और बड़े से बड़े लौकिक एवं पारलौकिक लाभ इससे किस प्रकार होते हैं । मंत्र का सम्बन्ध मानस शास्त्र से है। I मन की एकाग्रता पर ही इसकी नीव निर्भर करती है । मन को एकाग्र कर इन्द्रियों के विषय की ओर से लक्ष्य हटाकर मंत्र-साधन से वह सिद्ध हो जाता है । मन को चञ्चलता जितनी जल्दी हटेगी उतनी ही जल्दी मन्त्र सिद्ध होगा । महर्षियों ने मन्त्र शब्द की निरुक्ति-जिन विचारों से हमारा कार्य सिद्ध हो, वह मंत्र है यों बतलायी है । मैं पहले ही लिख चुका हूं कि मन्त्र - विद्या योग का एक अंग है । इस विषय के मर्मज्ञों का कहना है कि मन के साथ वर्णोच्चारण का घर्षण प्रकटित होती है और उन्हीं वर्णों के समुदाय का नाम मन्त्र है । अर्थ 'विचार' कहा है । राजनीति शास्त्र में भी लिखा है कि जिन राज्यतन्त्र चलाया जाता है-वह मन्त्र है । यही कारण है कि राज्यतन्त्र के प्रधान सञ्चालक महामन्त्री एवं उनके सहायकों को 'मंत्रिमण्डल' कहते हैं । मन्त्र का सिद्ध होना साधक की योग्यता पर निर्भर है। क्योंकि मन्त्रशास्त्र में लिखा है कि साधक को चतुर, जितेन्द्रिय, मेधावी, देवगुरु-भक्त, सत्यवादी, वाकपटु, निर्भय, दयालु, प्रशांत, निर्लोभ, निष्कपट, निरहंकार, निरभिमान, परस्त्रीत्यागा और बीजाक्षरों का धारण करने में समर्थ होना चाहिये । होने से एक दिव्यज्योति इसीलिये मन्त्रशास्त्र का विचारों को गुप्त रख कर यन्त्र - अष्टगन्ध, लौह लेखनी आदि से भोजपत्र, रजत एवं ताम्रपत्रादि पर षड्दल, अष्टदलं. शतदल, सहस्रदल तथा त्रिकोण, चतुष्काण या वर्तुल रेखाओं के भीतर बीजाक्षरों को लिखना उनका यथाविधि अभिषेक, पूजन, प्राण-प्रतिष्ठा, मंत्रपुष्पादि द्वारा साधन करना यंत्रसाधन है । सिद्धचक, ऋषिमण्डल, गणधरवलय मृत्युञ्जय, कलिकुण्ड, वज्रपञ्जर एवं घण्टाकर्ण आदि यंत्रों के अतिरिक्त प्रत्येक काम्य कार्य के लिये भिन्न भिन्न हजारों यंत्र और मी बतलाये गये हैं । कहीं कहीं केवल मंत्र और कहीं कहीं यंत्र मंत्र दोनों काम में लाये जाते है। यंत्र - विद्या भी मंत्रशास्त्र का ही एक अंग है और वरण या बीजाक्षरों को एकाग्रतापूर्वक लिखना ही इस साधन की मुख्य क्रिया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्कर [भांग तन्त्र-औषधियों के द्वारा कार्य सिद्ध करना तंत्रसाधन है। कितने ही तंत्रों में यंत्र, मंत्र का भी उपयोग होता है। मंत्र, यंत्र तथा तंत्र का एक दूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह तंत्र भी मंत्र-शास्त्र का अंग ही है। अब मैं बतलाना चाहता हूं कि यंत्रमंत्रादि से कौन कौन से काम लिये जाते हैं और वे कुल कितने विभागों में विभक्त हैं। (१) स्तम्भन (२) मोहन (३) उच्चाटन (४) वश्याकर्षण (५) जृम्भण (६) विद्वेषण (७) मारण (८) शांतिक (९) पौष्टिक। इस प्रकार मंत्र का प्रयोग प्रायः नौ प्रकार का होता है। स्तम्भन-जिस मंत्र-यंत्रादिक के प्रयोग से सर्प व्याघ्रादि श्वापद, भूत-प्रेतादि व्यन्तर, परचक्र (शत्रुसेना) आदि के आक्रमण का भय दूर होकर वे जहाँ के तहाँ निष्क्रिय से स्तम्भित रह जायँ उसे स्तम्भन कहते हैं। मोहन-जिस प्रयोग के द्वारा साधक किसी को भी मोहित कर ले उसे मोहन कहते हैं। मोहन प्रयोग के प्रधानतया तीन भेद हैं-(१) राजमोहन (२) सभा-मोहन (३) स्त्रीमोहन। उच्चाटन-जिस प्रयोग से किसी का मन अस्थिर, उल्लासरहित एवं निरुत्साह होकर पद-भ्रट एवं स्थान-भ्रष्ट हो जाय उसे उच्चाटन कहते हैं। किन्तु इस प्रयोग-द्वारा कोई प्रेमान्ध व्यक्ति अपने प्रेमपात्र का चित्तोचाटन करे तो इसका दुरुपयोग ही समझा जायगा। भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षसादि पीडाप्रद व्यन्तरों को किसी पीड़िन प्राणी से दूर भगाने के लिये ही इस उच्चाटन प्रयोग की सदुपयोगिता कही जायगी। वश्याकर्षणजिस प्रयोग से इच्छित व्यक्ति या वस्तु साधक के पास स्वयं चला आये-उसका विपरीत मन मी अनुकूल होकर साधक के आश्रय में आ जाय, उसे वश्याकर्षण कहते हैं। इसके द्वारा सर्प, व्याघ्रादि तिर्यञ्च, स्त्री-पुरुषादि मनुष्य एवं भूतप्रेतादि व्यंतर आकृष्ट हो जाते हैं। जृम्भण-जिस प्रयोग के द्वारा शत्रु एवं भूत-प्रेतादि व्यंतर साधक की साधना से मयत्रस्त हो जायँ, दब जायँ, काँपने लग जायँ उसे जम्मण कहते हैं। विद्व षण-जिस प्रयोग से कुटुम्ब, जाति, देश आदि में परस्पर कलह और वैमनस्य की क्रांति मच जाय उसको विद्वेषण कहते हैं। मारण-आततायियों को मंत्रप्रयोग-द्वारा साधक प्राणदण्ड दे सके, उस प्रयोग को मारण कहते हैं। पर है यह बड़ा ही कर प्रयोग। शांतिक-जिस प्रयोग के द्वारा भयङ्कर से भयङ्कर व्याधि, ब्रह्मरासादि भयानक व्यंतरों की पीड़ा, करग्रह, जंगम एवं स्थावर विष-बाधा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्षादि ईतियाँ, और चौरभयादि प्रशांत हो जायँ उसे शांतिक कहते हैं। पौष्टिक-जिस प्रयोग के द्वारा सुख-सामग्रियों की प्राप्ति होती है उसे पौष्टिक प्रयोग कहते हैं। किसी किसी के मत से सांतानिक प्रयोग अर्थात् वंध्यात्व से मुक्त होना भी एक अलग प्रयोग माना गया है। परंतु बहुसंख्यक मांत्रिकों ने इसे उल्लिखित प्रयोग में ही गर्मित किया है। हाँ, यहां एक बात बतला देना परमावश्यक है कि इन नौ प्रयोगों में से सात्विक साधक मारण, मोहन आदि क्रूर कों को पसंद नहीं करते। वे केवल लोकोपकार की यि से शांतिक, पौष्टिकादि सौम्य प्रयोगों का ही उपयोग करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मेद शिखरजी की यात्रा का समाचार (लेखक-श्रीयुत कामता प्रसाद जैन ) -::जैनियों में तोर्थयात्रा के लिये चतुर्विध-संघ निकालने का रिवाज पुरातन है। पहले पहल यह रिवाज कब अमल में लाया गया, इसका पता लगाना अन्वेषक-विद्वानों का काम है। हाँ, यह हम जानते हैं कि मध्यकालीन भारत में इसका अधिक प्रचार था, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि उससे प्राचीन भारत के जैनियों में यह प्रथा प्रचलित थी या नहीं? वास्तव में यह एक स्वतंत्र विषय है, जिसके लिये साहित्य का गहन अध्ययन और परिशीलन वांछनीय है। प्रस्तुत लेख में हम पाठक, महाशयों के समक्ष एक तीर्थयात्रा-संघ का परिचय उपस्थित करेंगे, जो विक्रमीय १९वीं शताब्दी में मैंनपुरी से सम्मेदशिखर की यात्रा के लिये गया था। _ मैनपुरी संयुक्त प्रांत की आगरा कमिश्नरी का एक प्रमुख नगर है। वहाँ के ध्वंसावशेषों से मैनपुरी एक प्राचीन नगर प्रतीत होता है। कहते हैं कि उसका प्राचीन नाम मदनपुरी था; वही नाम अपभ्रंश भाषा में 'मइनपुरि' नाम से प्रसिद्ध हो गया। इससे अधिक उसका र आरंभिक परिचय कुछ भी नहीं मिलता। हॉ. मुसलमानी जमाने में उसके " अस्तित्व का पता चलता है और वह कन्नौज सरकार के अधीन था। किन्तु जब से मैनपुरी में चौहान क्षत्रियों का आगमन हुआ तब से उसकी श्री-वृद्धि खूब हुई। सन् १३६३ ई. में मैनपुरी का चौहान राजा प्रतापरुद्र नामक एक वीर क्षत्रिय था। बहलोल लादो के राज्यकाल में वही मैंनपुरी के प्रमुख जमोदार थे और उन्हीं के अधिकार में मौगाँव, पटियाली और कम्पिल मी थे। उनके पुत्र नरसिंहदेव थे, जिनको दरया खाँ लोदी ने सन् १४५४ में कत्ल किया था। परंतु इसपर भी उनकी संतान मैनपुरी की राज्याधिकारी बनी रही। ग़दर के ज़माने में राजा तेजसिंह उन्हों को संतति में २१वें उत्तराधिकारी थे। राजा प्रतापरुद्र ने उस नगर को काफी उन्नत बनाया था-चौहाना का अपना पक्का किला बन गया था सौर उस किले के आसपास धोरे-धीरे एक समृद्धिशाली नगर श्राबाद हो गया था। मथुरा से चौबे ब्राह्मण, मौगांव से कायस्थ और करीमगंज तथा कुरावली स सरावगी (जैनी) श्रा-आकर बस गये थे। राजा जसवंतसिंह ने सन् १७४९ ई० में अपने भाई मुहकमसिंह की याद में 'मुहकमगंज' बसाया था। अंग्रेजों ने ग़दर के बाद मैंनपुरी के राज-पद पर राजा तेजसिंह के चाचा भवानी सिंह जी को बिठाया था। अंग्रेजी हाकिमों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 989 हुए लेन सा० और रैकस सा० लोगों में बहुत ही प्रसिद्ध थे । रैकस (Raikes) सा० ने सन् 'रकसगंज' बसाया था और उसके बाद लेन सा० ने 'लेन – टेंक' सन् १८७२ ई० में मैनपुरी में वैश्यों की संख्या ७४३३ थी, जिनमें ये जैनी अग्रवाल, खंडेलवाल, बुढ़ेलवाल आदि उपजातियों में बँटे १८४८ - १८५० ई० में (तालाब) बनाया था । अधिकांश जैनी थे । * थे ! भास्कर माग ४ विक्रमीय १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध - भाग में वहाँ बुढ़ेले जैनियों की प्रधानता थी । उनमें मी 'रुइया' वंश के महानुभाव प्रमुख और राज्यमान्य थे I उस समय वहाँ चौहानवंशी राजा दलेलसिंह जी का राज्य था; किंतु मालूम ऐसा होता है कि दिल्ली के हया-वंश मुसलमान बादशाहों के वह करद थे, क्योंकि तात्कालीन कवि कमलनयनजी ने मैनपुरी को आगरा सूबा, सरकार कन्नोज, चकला इटावा, परगना भीमगाम (भोगाँव) में अवस्थित लिखा है । यह शासन व्यवस्था मुग़ल-सरकार की थी, यह बात 'आइने अकबरी' कं देखने से स्पष्ट होती है । उल्लिखित कवि कमलनयन जी हमें बताते हैं कि मैंनपुरी के जनियों में तब साहु नंदराम जी प्रमुख थे। केवल जैनियों के ही नहीं, बल्कि वह पुरवासियों, के सिरमौर थे । उन्हें वह काश्यपगोत्री नगरावार कहते हैं | वर्तमान 'रुइया - वंश' के ज्ञात आदिपुरुष श्रीशिवसुखराय जी थे, जिनके पुत्र कुंदनदास और पौत्र नंदराम थे । नंदरामजी ने रुई का व्यापार आरंभ किया था, जिस की वृद्धि उनके पुत्र साहु धनसिंह जी ने की थी । इस व्यापारिक सफलता के कारण ही साहु नंदराम का वंश था । साहु नंदराम की संतति में साहु उतफ़तराय जो थे, 'रुइया' नाम से प्रसिद्ध हुआ जो लेखक (का० प्रसाद) के See:Statistical, Descriptive and Historical Accounts of the N. W. P. of India by E. T. Atkinson, Vol. IV. pp. 474-720. ተ " आगरे के सूबे में चकत्ता इटावा बसै, जाक सिरकार कन्नौज एक अनिये । तिसही इटाए के पहने में भीमप्राम, तिसमें मैनपुरी जहां राजे रजवानी पैसृपति दलेल सिंघ जाने कोई नांहि विंगदेहि, सदा दान दीन दुखी पहिचानिये ।" — जसवन्तु नगर के जैन मंदिर में विराजमान हस्तलिखित "जिनदत्त चरित्र" में देखों " जाति बुढ़ ले वंश जदु । मैंमपुरी सुख वासु ॥ 'नगरावार कहावते, कासिप गोत सु तासु ॥ नन्द राम इक साहू वहीं, पुरवासिन सिरमौर ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - देखा वरांग चरित्र उपरोक्त मन्दिर में । www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण : सम्मेद शिवरजी की यात्रा का समाचार १५ श्वसुर थे और जिनसे साहु नंदराम का वंश-वृन और वृत्तांत उसे निम्न प्रकार ज्ञात हुआ था: शिवसुखराय कुन्दनदास (दो भार्या) परमसुख नंदराम (पहली भार्या से) धनसुखराय खूबचंद दिलेराय तीनां री से) महाबराय धनमिह नैनसुख सिनाबराय श्यामलाल सोहनलाल विधिचंद्र हजारीलाल हजारीलाल वेनी वेनीराम वंशीधर बिहारीलाल तुलाराम कुखमन उलफतराय साहु धनसिंह जी एक व्यापारकुशल, पुरुयार्थी और धर्मात्मा सजन थे। उन्होंने अपने पिता नंदराम-द्वारा चालिन रुई के व्यापार को खूब तरक्को दी। उनकी दूकानें फर्रुखाबाद, फरिहा, कोटला आदि मई के केन्द्र-स्थानों पर थीं। इस व्यापार में उनको खूब लाम हुआ। यहाँ तक कि उस समय उनके समान कोई दूसरा धनवान् न था। आजतक साहु धनसिंह के धनाढ्य होने की बात लोक-प्रचलित है। पुराने लोग जब कभी अपने निकम्मे लड़के को इन शब्दों में ताड़ना देते मिलते हैं कि “जासे तो तू साहु धनसिंह को बैल होतो नो नीको थो, हुंअन तोय लडुआ-जलेबी तो खान को मिलते।" इस जनश्रुति से रुइया लोगों की समृद्धिशालीनता का पता चलता है। लेखक ने उनकी गगनचुम्बी विशाल 'हवेली' का एक अंश देखा था; किंतु आज वह भी धराशायी है और अपने गर्म में अज्ञात सम्पत्ति को लिये हुई अनुमानी जाती है। उसका वर्तमान धंस-रूप मानो यही चेतावनी देता है कि 'दुनियां के लोगो, घमण्ड न करो–यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है।' धनाढ्य होने के साथ ही साह धनसिंह धामा सज्जन थे। वह निरंतर धर्म-कार्यों को करने में आनन्द मानने थे। उनके शेष तीन माई भी उन्हीं के अनुरूप धर्मी-कर्मी और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास्कर [ भाग. विवेकी नर-रत्न थे। उन में सब से छोटे साहु श्यामलाल जी थे। ज्ञात होता है कि मन वह संस्कृत के विद्वान् थे, क्योंकि कवि कमलनयनजी को संस्कृत भाषा में रचे हुए 'जिनदत्त-चरित्र' का अर्थ जहाँ-तहाँ इन्होंने ही बताया था ।* इस उल्लेख से यह भी स्पष्ट है कि कवि कमलनयन जी ने जिन नगरावार काश्यप गोत्री नन्दरामजी का उल्लेख किया है, वह रुइया वंशके ही थे, क्योंकि उन्होंने श्यामलालजी को साहु नन्दराम का पुत्र लिखा है, जैसे कि वे रुइया वंश-वृक्ष में भी बताये गये हैं। अच्छा तो, इन्हीं धर्मात्मा सज्जनोत्तम साहु धनसिंहजी का श्रीसम्मेद-शिखरजी तीर्थराज की वंदना सहधर्मी भाइयों के साथ करने का शुभ-भाव हुआ। लोगोंने यह समाचार चाव से सुना, क्योंकि उस ज़माने में तीर्थ यात्रा करना अत्यन्त दुष्कर था। न तब तेज रफ्तार से चलनेवाली सवारियां थीं और न सड़कें ही पुख्ता और सुरक्षित थीं। भक्तजन तीर्थ यात्रा करने के लिये तरसते थे। बस, तब धर्मश्रद्धालु भव्यजनों को साहु धनसिंहजी का प्रस्ताव बड़ा रुचिकर हुआ। सर्वसम्मति से साहु धनसिंहजी के नेतृत्व में एक यात्रा-संघ मैंनपुरो से मिती कार्तिक कृष्णा पञ्चमी बुध वार संवत् १८६७ को सम्मेद-शिखर तीर्थ की यात्रा के लिये चला। कहते हैं कि इस यात्रा-संघ में करीब २५० बैलगाड़ियाँ और करीब १०८० यात्रिगण थे । साहु धनसिंह जी ने उनकी हर तरह से सार-संभाल कर उपकार किया था। पाठकगण शायद आश्चर्य करें कि यह पुरानी बात मालूम कैसे हुई ? क्या यह केवल सुनी हुई बात है ? वास्तव में यह केवल सुनो हुई बात नहीं है, बल्कि एक प्रामाणिक वार्ता - है और इसका प्रमाण "श्री समेदसिखिर की यात्राका समाचार" नामक हस्त लिखित पुस्तिकायें हैं, जो हमें अलीगञ्ज और मैंनपुरी के जैन-मंदिरों में देखने को मिली हैं। इन पुस्तिकाओं में उपर्युक्त यात्रा-संघ का पूर्ण विवरण पद्य में लिखा हुआ है। जिस पुस्तिका के आधार से हम लिख रहे हैं, उसका आकार ९॥४४॥ इञ्च है और उसका काराज देशो और मोटा है। उसमें लिखे हुये कुल ११ पृष्ठ हैं। आरम्भ में एक पृष्ठ विना लिखा हुआ है। उसके बाद दूसरे पृष्ठ की दूसरी तरफ से रचना लिखी गई है। प्रत्येक पृष्ठ में करीब १७-१८ पंक्तियाँ हैं। यह प्रति संवत् १८६९ वैसाख कृष्ण ४ गुरुवार की लिखो हुई है और इसे किन्हीं 'भोलानाथ कायस्थ' ने लाला सोहन लाल के पठनार्थ लिखा था। उल्लिखित वंशवृक्ष देखने से ज्ञात होता है कि ला० सोहनलाल साहु धनसिंह के भतीजे थे। यह प्रति हमें स्व. पं० श्रीराजकुमार जी द्वारा प्राप्त हुई थी और अब हमारे पास है। किन्तु खेद है कि इस यात्रा-समाचार रचना के रचयिता के नाम-धाम का पता कुछ भी नहीं * "श्यामलाल के सहाइ पुत्र, नन्दराम गाई, अर्थ जिन दीइ बताय, नाहि जहां जानिया ।" -जिनदत्तचरित्र (जसवन्त नगर की प्रति) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। सम्मेद शिखरजी की यात्रा का समाचार ९१७ चलता। रचना में कहीं पर भी लेखक ने अपना नाम सूचित नहीं किया है। फिर भी हमारा अनुमान है कि यह रचना बहुत कर के कविवर श्रीकमलनयन जी की है। क्योंकि पहले तो वह र साहु नन्दराम धनसिंह के समकालीन और उन से घनिष्टता रखनेवाले थे और - दुसरं उस समय मैंनपुरी में हिन्दी में पद्य रचनेवाले वही मिलते हैं। इस रचना का सादृश्य भी उनकी रचनाओं में है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि साहु धन सिंह कवि कमलनयन के सदृश धर्मात्मा सज्जन को संघ के साथ ज़रूर ले गये होंगे। इसलिये उन्होंने ही यात्रा का पूर्ण विवरण पद्यबद्ध किया होगा और साहु धन सिंह आदि ने उसे लिखवा कर मंदिरां और श्रावकों को भेंट किया होगा। मालूम ऐसा होता है कि कमलनयनजी की रचनाओं को लिखवा कर यह महानुभाव सर्वसाधारण में प्रचलित कर देते थे, क्योंकि उनके समय की लिखी हुई प्रतियां मिलती हैं। अच्छा तो, इन कवि कमज़नयन जी का परिचय पा लेना भी उपयुक्त है-यह परिचय केवल उन्हीं के ग्रन्थों से प्राप्त होता है और बहुत ही संक्षिम है। मैनपुरी के बुढ़ेले जैनियों से उनके बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं हुआ। उन के लिये यह एक नया समाचार था कि कोई कवि कमलनयन जी उनके मध्य हो गये हैं। जहां अपने निकटवर्ती मान्य पूर्वज का परिचय लोगों को प्राप्त न हो, वहां उन्हें अपनी जाति और कुल के महत्व और गौरव का भान भला क्या होगा ? खैर, स्वयं कवि महोदय के अनुग्रह से हम जानते हैं कि वह ( कवि कमलनयनजी) मैनपुरी के अधिवासी बुढ़ेले जातीय श्रावकोत्तम थे। उनके पितामह राय हरिचन्द थे और उनके पिता का नाम श्री ला० मनसुखरायजी था जो एक अच्छे वैद्य थे। इन मनसुखरायजी के दो पुत्र थे। जेठे पत्र का नाम छत्रपति और छोटे का नाम कमलनयन था। कमलनयन जी ने कहीं-कहीं पर कविता में अपना नाम 'हगज' भी लिखा है। उन्होंने जैनधर्म-विषयक कई ग्रन्थों की माषा रचना पद्य में की है। जिससे पता चलता है कि वह एक धर्मज्ञान लिये हुए विवेकी सज्जन थे। उनके समय का बहुभाग धर्म-विषयक चर्चा-वार्ता में बीतता था। एक समय * "प्रासंवत्सर वेद' रस रंध्रचंद्र' पहिचानि । राज विक्रमा दत्य नृप गत वर्षे भवि जान॥ कातिक सुदि सुभ पंचमी कयौ ग्रंथ आरंभ। चैत्र कृष्ण तेर्रास तिथी पूरन भयो निदंभ ॥ जाति बुद्धले जानिये बसें महा धनवंत । नन्दराम आदिक बहुत साधर्मी गुनवंत ॥ तिनही में इक जानबै नाम गय हरिचन्द । वैचककला-परवीन अति मनसुग्व गाय सुनन्द ॥ तिनके सुत जंठे ए नाम छत्रपतिसार । तिन लघु भ्राता जा नये कमलनयन निरधार ॥ एक समय निज बाद पुर गये प्रयाग मंझार । मन में इच्छा यह भई कीजै देश विहार ॥ तजीरथरा प्रयागवर तह श्रावग बहु लोय। अगरवाले जातिवर कसैं महाजन सोय ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४९ भास्कर [ माग १ आप को देशाटन करने को इच्छा हुई और आप प्रयाग पहुंचे। वहां अच्छा सत्संग पाकर आप रम गये। उस समय प्रयाग में श्री विधिचन्द्र हीगामल जी नामक अग्रवाल जैनी बहुप्रसिद्ध थे। हीगामल जी के पुत्र श्रीलाल जी थे। हमारे कवि को इनसे मित्रता हो गई। मित्रता इसलिये हुई कि श्रीलालजी उनकी नजर में 'परम धर्म की खानि' थे। उन्हीं के आग्रह से कवि महोदय ने 'अढाई द्वीप के पाठ' की भाषा-रचना पद्य में रची थी। उनकी उपलब्ध रचनाओं में यही सर्वप्राचीन है। बहुत संभव है कि यही उनकी पहली रचना हो, क्योंकि जब लालजी ने इस रचना का प्रस्ताव उनके सामने रखा था तो उन्होंने इसे दुष्कर जानकर अस्वीकार किया। परन्तु लाल जी ने उन्हें जिनेन्द्र आज्ञा लेनेके लिये कहा। संभवतः उन्होंने इस आज्ञा के लिये जिनेन्द्र-पासाकेवली का उपयोग किया। जिनआज्ञा मिल गईकमलनयन जी का उत्साह बढ़ गया उन्होंने 'अढ़ाई द्वीप का पाठ' रच दिया। इसे उन्होंने संवत् १८३ में संपूर्ण किया था। इस समय वह युवावस्था की प्रारंभिक चंचलता को पार करके प्रौढ़ता को प्राप्त हुए प्रतीत होते हैं। इसके बाद उनकी उपलब्ध रचनाओं में संवत् १८७३ की रची हुई (१) श्रीजिनदत्त-चरित्र और (२) श्रीसहस्त्रनाम पाठ नामक रचनायें मिलती हैं। उपमेत संवत् १८७६ में उन्होंने 'पंचकल्याणक-पाठ' रचा और संवत् १८७७ में 'वारॉग चरित्र' लिख कर समान किया था। अनुमान होता है कि प्रयाग आदि नगरों का देशाटन करके वह ३ वर्ष में लौटे होंगे और लौटने पर संवत् १८६७ में साहु धनसिंह जी के साथ सम्मेद-शिखर की यात्रा को चले गये। वहां से संवत् १८६८ में वह मैनपुरी आये । मैंनपुरी आने पर उन्होंने 'यात्रा-विवरण' लिखा। मालूम होता है कि फिर साहु श्यामलाल की संगति में रह कर उन्होंने 'जिनदान चरित्र' का ठीक-ठीक अर्थ समझा और संवत् १८७३ में . उसे रच कर समाप्त कर दिया। यह उन का संक्षिन परिच य है। उपर्युक्त यात्रा-विवरण पुस्तिका को देखने से पता चलता है कि साहु धनसिंह जी के नेतृत्व में मिती कार्तिक कृष्ण पंचमी बुधवार संवत् १८६७ को मैनपुरी से अनेक जैनियों का संघ या श्रीसम्मेदशिखरादि तीर्थों कोयात्रा-वंदना के लिये रवाना हुआ था। उस रोज मैनपुरी में जलेव ( रथयात्रा ) हुई थी। भगवान आदिनाथ जी की विधिचन्द्र नामा भले हाधर्मी इक अनि । तिन सुन होगामल जी कीरतिवंत महान ॥ तिनो सुत हैं लाल जी परमधर्म की खान। अधिक प्रीति हमसौं करें पुरब योग प्रधान ॥ एक समय बैठे हुते लालजीत हम दाय। उन विचार मन में किया जा सुनि अचरज होय ॥ सार्द्ध द्वीप-पाठ की भाषा सुगम सुढार। जो कीजै तौ है भली यहो सीव उरधारि ॥ तव हमनें उनसौं कहो सुनौ मित हम बान । यह कारज दुदर महा होय सकै क्यों भ्रात ॥ फिर उन हमसौं यों कही जिन श्रुत आज्ञा लेहु । जो शुभ आवे वचनवर तो यह काज करेहु ॥" . -प्रशस्त अदाई द्वीप का पाठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] सम्मेद शिखरजी को यास का समाचार मनोहर प्रतिमा को रथ में विराजमान कर संघ के साथ रक्खा गया था, जिससे यात्रा में जिनदशन का अन्तराय न हो ! पहले ही संघ खरपरी गांव में ठहरा था, जो मैनपुरीके पास है । कार्तिक वदी १२ को महदी घाट पहुंच कर उन्होंने गङ्गा पार की। कई घाटों से बहुत-सी नाव इक्कठी की गई परन्तु तब भी संघ दो रोज में पार उतर पाया। इससे उसकी विशालता का पता चलता है | कार्तिक सुदी १३ को संघ रतनपुर पहुंचा, जिसे नौराही कहते थे । वहाँ से चल कर कार्तिक सुदी १४ को अयोध्या पहुंचा; जहाँ खूब धूमधाम के साथ रथयात्रा निकाली गई । रथयात्रा में बलमधारी चपरासी - सिपाही आदि भी थे । वस्तुतः जैन रथयात्राओं के आगे शस्त्रास्त्र से सुसज्जित हाथी, घोड़े, प्यादे आदि होना ही चाहिये, जैसा कि कवि ने लिखा है। पांच तीर्थंकर भगवान के जन्मस्थान पृथक् पृथक् थे- संघ ने उनकी वंदना की थी । पश्चात् मगसर बढ़ी १५ कां बनारस पहुंचा और भेलूपुरा के मन्दिर के निकट ठहरा। यहां भी रथ यात्रा निकाली गयी थी और धर्मचक्र का पाठ किया गया था । वंदना करके संघ आगे चल कर पौप बढ़ी ४ को पटना पहुंचा । वहाँ खूब जोर की वर्षा हुई जिसके कारण संघ एक माह तक वहां ठहरा रहा; फिर चज़ कर पौष शुक्ल ४ को संघ ने पात्रापुर की वंदना की। संघ जल-मंदिर के निकट ठहरा था और उसके पहले चौक में आदि जिनेन्द्र की प्रतिमा विराजमान करके संघ ने पूजा - भजन किया था । जल-मंदिर का कवि ने खूब ही सूक्ष्म वर्णन किया है। आगे उसी महीने की नवमी को संघ राजगृह पहुंचा और वंदना की थी । यहाँ संघ ने समोशररण पाठ विधान किया था । उपरांत माघ बदी २ को संघ नवादा पहुंचा था। वहां गौतम स्वामी की वंदना करके संघ माघ बदी १३ को पालगंज पहुंचा था। वहां राजा सुत्ररन सिंह जी थे। संघ उन से मिलकर आगे गया था । माघ सुदी ३ को मधुवन में डेरा दिया गया था। वहां संघ ने चार चैत्यालयों की वंदना की थी । वसंत पञ्चमो को संघ ने श्री सम्मेद शिखरपर्वत की वंदना की थी उसका भी पूरा विवरण aa ने लिखा है जिससे प्रकट है कि तब बीन में नीचे तलहटी के मंदिर की वंदना भी दिगम्बर जैनी करते थे I पर्वत वंदना से लौट कर मधुवन में धर्मोत्सव मनाया गया और रथयात्रा निकाली गई, जिसमें पालंगज के राजा भी सम्मिलित हुए थे । इस प्रकार सानन्द पूजा वन्दना करके माघ सुदी पूनम को संघ ने मधुवन से प्रस्थान किया। फागुन बदी ८ को बैजनाथपुर आये । यह शिव की वंदना करने अन्यमती लोग अधिक संख्या में आते लिखा है; परन्तु वहां भी संघ को पार्श्व भगवान् के दर्शन हुये थे । कवि कहते हैं कि : । - "पंडन मठ मंदिर मांही- प्रतिबिंब जिनेश्वर माहीं । तिनको भी शिवजु कहै हैं -नित सेवा मांहि रहे हैं ।" शायद अत्र भी यह जिनमूर्ति वहां के पंडा लोगों के पास होगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १४६ इस प्राचीन मूर्ति का www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. भास्कर [भाग ४ पता लगाना उचित है। फाल्गुन सुदी पड़वा को संघ चंपापुर पहुंचा था। वहां की वंदना करके फाल्गुन सुदी ४ को संघ वापस हुआ और वाद-नामक नगर में पहुंचा। यहां पर पहले जाते हुए पटना के जैनी लोग श्रोजी-सहित आकर यात्रासंघ में मिले थे और साथ साथ वंदना कर आये थे। वह अब यहां से अपने घरों को चले गये। सचमुच उस दुष्कर काल में तीर्थ यात्रा करना सुगम न था। पटना के श्रावकों ने इस सुयोग से लाभ उठाया। कैसा वह पुण्यमय अवसर था ! उन सहधर्मी भाइयों को श्रीजो के साथ विदा करते समय रथयात्रादि उत्सब किया गया था। श्रावकों ने परस्पर वात्सल्य धर्म का परिचय दिया था-जरा विचार कीजिये उस अनूठे अवसर को-मुक्तकंठ से कौन नहीं कहता होगा तब 'धन्य धन्य साधर्मी जन मिलन को घरी।' वहां से विदा हो संघ काशी में आकर ठहरा । नौ रोज वहां विश्राम करके चला सो महदी घाट पर उसने गङ्गा पार किया। वैसाख वदी ७ को गङ्गाधरपुर में संघ ठहरा और वैसाख बदी १२-१३ को वापस मैनपुरी पहुंचा। कवि कहते हैं कि देश-देश के लोग सब अपने-अपने घर को वापस गये और वह यह भी बताते हैं कि उन सबका साहु धन सिंह ने ओर-छोर उपकार किया था। धन्य थे वह महानुभाव, जिन्होंने साधर्मीजनों की सेवा में अपना तन-मन धन लगाया था और उनके लिये धर्मसाधन का परम योग उस जमाने में दुर्लभ सम्मेद शिखर जैसो तीर्थराज की यात्रा का सुयोग सुलभ किया था। सहस्रकण्ठारव जिनेन्द्र के पवित्र नाम से दिशाओं को पवित्र बना रहा था। यह सुअवसर अधिकाधिक संसार में सुलभ हो, यही भावना इस "सम्मेद शिखिर यात्रा का समाचार" पढ़ने से हृदयमें जागृत होती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ inte में जैन धर्म बंगाल (लेखक – श्रीयुत सुरेशचन्द्र जैन, बी० ए०) बंगाल में जैनधर्म की गति विशेष रही है। वहाँ मानभूम सिंहभूम, वीरभूम और वर्दवान इन चारों जिलों के नामकरण भगवान् महावीर या वर्द्धमान के नाम के आधार पर ही हुए हैं। चौबीस तीर्थकरों में से बीस ने हजारीबाग जिला के अंतर्गत पार्श्वनाथ पहाड़ के सम्मेदशिखर पर से निर्वाण प्राप्त किया है । 'आचारांग सूत्र' से विदित है कि राढ़ देश के जमूमि और सुम्भमूमि नामक प्रदेशों में विहार करते हुए भगवान महावीर को अनेकानेक कठिनाइयां उठानी पड़ी थीं; उन्हें कठोर यंत्ररणायें सहन करनी पड़ी थीं और कठिन से कठिन कार्य करने पड़े थे । यह प्रदेश यात्रियों के लिए दुर्गम था और मुनियों के प्रति यहाँ के निवासियोंका व्यवहार अत्यन्त ही क्रूर एवं करुरगोत्पादक था । ये लोग निस्सहाय मुनियों के पीछे कुत्तों को छोड़ देते थे और इनसे अपनी रक्षा करने के हेतु असहाय मुनियां को बांस की • फराठियों का सहारा लेना पड़ता था । अत एव यह ज्ञात होता है कि वर्द्धमान महावीर के समय में बंगाल में जैनधर्म की जाप्रति, प्रगति तथा उन्नति हो रही थी । सन् ९३९ ई० पूर्व में श्रीहरिषेण ने 'वृहत् कथा - कोष' नामक एक महान् ग्रंथ रचा था । उससे प्रकट है कि सुविख्यात जैनाचार्य एवं मौर्थ्य सम्राट् चन्द्रगुम के राजगुरु श्रीमद्रबाहु जी पुंडूवर्धन देशांतर्गत देव कोटी नगरी के रहने वाले एक ब्राह्मण के पुत्र थे । एक दिन जब भद्रबाहु अपनी बाल्यावस्था में देवकोटि के अन्य बालकों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे तब चतुथ श्रुतकेवली श्रीगोवर्धन ने उन्हें देखा था और उनको देखते ही उनके मन में इस बात की पूर्ण धारणा हो गई थी कि यह बालक पंचम श्रुतकेवली होगा । ऐसी धारणा मन में उत्पन्न होते ही उन्होंने श्रीभद्रबाहुजी के पिता की अनुमति से उनको तत्काल ही अपनी हिफाजत में रख लिया और कुछ समय बाद यही बालक पञ्चम श्रुतकेवली के रूप में श्रीगोवर्धनजी का उत्तराधिकारी हुआ । पुण्ड्रवर्धन ग्राम में एक निर्मन्थ के दोष के कारण अट्ठारह हजार मनुष्यों की हत्या का जो वर्णन 'दिव्यावदान' नामक बौद्धग्रन्थ में किया गया है उसकी सत्यता पर विश्वास हो अथवा नहीं परन्तु उससे इतना पता तो अवश्य मिलता है कि तृतीय शताब्दी के पूर्व में उत्तरीय बंगाल जैनियों से भरा था। 'अंगुत्तरनिकाय' के सोलह महाजन पदों में जिन भिन्न-भिन्न देशों का गिनाया गया है। उससे अंग और मगध की गणना पूर्वीय प्रांतों में की गई है। जैन 'भगवती सूत्र' के मी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ भास्कर [ भाग ४ पंद्रहवे परिच्छेद में जिन सोलह देशों का वर्णन है उनमें भी अंग, बंग और लाधा (राढ़) का उल्लेख देख कर प्रत्यक्ष रूप से इस बात की अविचल धारणा होती है कि आदि काल में बंगाल के साथ जैनियों का संपर्क बौद्धों से कहीं अधिक था। 'कल्पसूत्र' में तामलित्या, कोटिवर्षीया, पौंड्रवर्धनीया और खावदोया को जैन भिक्षुकों के गोदासगण को चार शाखायें मानी गयी हैं। ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष और पुंड्रवर्धन क्रमानुसार मिदनापुर, दिनाजपुर और बोगरा जिलों में हैं और पश्चिमीय बंगाल में स्थित वर्तमान खवीर को प्राचीन खावाडोया माना गया है। जैन उपाङ्गों में तामलित्त और बंग आर्य लोगों की भूमि माने गये हैं। इस प्रकार साहित्यावलोकन से यह प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि महावीर के समय से जैनधर्म का प्रचार तोत्र बेग से होने लगा जैनधर्म-वीरों को संख्या बढ़ने लगी और बंगाल के प्रत्येक भाग में जैनियों की सत्ता समूल स्थापित होने लगी। यदि 'आचाराङ्ग-सुत्त' में वर्णित जैन मुनियों पर किए गए अत्याचारों पर विश्वास किया जाय तब यह मानना ही पड़ेगा कि पूर्व काल में जैनियों को कटंकाकीर्ण पथ का पथिक बनना पड़ा। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैन मुनियों को अनेकानेक कठिनाइयाँ सहन कर धर्म का प्रचार करना पड़ा था। परन्तु साथ ही, साथ देश के कोने कोने में जैनधर्म का विस्तार देखते हुए यह भी मानना पड़ता है कि अन्त में सत्य की ही विजय हुई और जैनधर्म को निर्मल एवं पवित्र-पताका विधर्मियों के खण्डहरोंपर फहराने लगी। । यद्यपि क्रिश्चियन युग के बाद (after Christian Era) चन्द्रगुप्त अथवा खारवेल जैसे जैन-संरक्षक नृपति दीख नहीं पड़ते, तथापि लोकमत को यह धारणा है कि जैनधर्म पूर्वीय भारत से लुप्तप्राय हो गया था यह सर्वथा असंगत है। मथुरा के पुरातन शिलालेख से पता चलता है कि सम्भवतः सन् १०४ में 'रारा' के एक जैन मुनि के आग्रह पर एक जैन प्रतिमा की स्थापना हुई थी। पहाड़पुर के एक ताम्रपत्र से पता चलता है कि एक ब्राह्मण-दंपति ने 'वाट-गोहाली' के विहार में चंदनादि से जैन तीर्थकरों की पूजा के लिए कुछ भमि प्रदान की थी। काशी की पञ्च-स्तूप-शाखा के निर्ग्रन्थ गुरु गुहनंदो के शिष्य के शिष्यों ने इस विहार के सभापति का आसन ग्रहण किया था। पहाड़पुर की ताम्रलिपि का अध्ययन यदि 'हयुएनचाँग' की यात्रा-संबंधी विवरण के साथ-साथ किया जाय तो पता चलेगा कि पंड्वर्धन, सातवीं शताब्दी तक, जैनियों का एक बृहत् , शक्तिशाली और प्रतिष्ठित केन्द्र था। 'युएनचाँग' ने तत्कालीन धर्मों तथा उनसे संबद्ध संस्थाओं के विषय में अपने जो मार्मिक, भावपूर्ण एवं विवेचनात्मक विचार प्रकट किए हैं वे सदा आदरणीय हैं और यदि श्रीजिनसेनाचार्य ने भी अपने को पंचस्तुपान्धवी' लिखा था और वह नंदिसंघ के आचार्य थे। संभव है कि गुहनंदि भी उसी संघ और शाखा के हो । संपादक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] बंगाल में जैन धर्म उन गूढ़ एवं प्रभावशाली विचारों के आधार पर तत्कालीन प्रचलित धम्मों का तुलनात्मक विश्लेषण किया जाय तो हम एक ऐसे निश्चित, अटल और अनिवार्य्य निष्कर्ष पर पहुंचेंगे जो हमारी धार्मिक प्रौढ़ता को और भी अधिक प्रौढ़, हमारे अटल विश्वास को और मी अधिक दृढ़ तथा हमारे धार्मिक दृष्टिकोण को और भी विस्तृत तथा दूरदर्शक बना देगा। किन्तु हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि अपने वृत्तांत में 'हयुएनचॉग' ने बौद्ध धर्म के अतिरिक्त और किसी भी धर्म-विशेष पर पूर्ण प्रकाश नहीं डाला है और निग्रंथों का वर्णन तो कहीं कहों केवल प्रसंग-वश ही आ गया है। इतने पर भी उस बौद्ध परिव्राजक ने लिखा है कि वैशाली, पंडवर्धन, समतट और कलिङ्ग देशों में निग्रंथों की संख्या असंख्य थी। अत एव यह प्रत्यक्ष है कि सातवीं शताब्दी में इन्हीं भू-भागों में जैनों की संख्या सब से अधिक थो। इस चीन-परित्रातक ने भारत के और किसी भी प्रांत के निग्रंथों का उल्लेख विशेष रूप से नहीं किया है। परन्तु उनके यह लिखने से कि और और प्रांतों में भिन्न-मिन्न-धर्मावलम्बा मिल-जुल कर रहते थे--यह सिद्ध होता है कि उन भिन्न-भिन्न धमावलम्बियों में जैनधर्मावलम्बी भी अवश्य सम्मिलित रहते होंगे। इस विषय पर उनके मौन रहने से यह कभी भी नहीं माना जा सकता कि पूर्वीय भारत के अन्य भागों में जैनियों की कमी थी। 'हयुएनचाँग ने अपने राजगृह' के विवरण में जैनियों की कुछ भी चर्चा नहीं की है किन्तु 'विपुला' पहाड़ के पास उन्होंने बहुत से निपंथों को देखा था। आज भी बहुत से दिगम्बर जैनी यहाँ आते हैं, ठहरते हैं और पूजनादि करते हैं। केवल जैन साहित्य में ही नहीं, 'राजगृह' बौद्ध साहित्य में मो विख्यात है और आज भी यह जैनियों का एक अत्यन्त ही रमणीक एवं पवित्र तीर्थ स्थान है। इस स्थान के समीप अनेक जैन प्रतिमाए पायी जाती हैं। 'वैमार' पर्वत पर गुप्तवंश के समय की चार जैन प्रतिमाएँ हैं। ८वीं, ९मी, और १२वीं शताब्दियों की मी जैन प्रतिमायें वहाँ पर पायी जाती हैं। इस बात के मी प्रमाण मिलते हैं कि मुसलमानों के राज्यकाल में भी जैनियों ने 'राजगृह' में जैन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की थी। ७ वीं शताब्दी के बाद बंगाल में जैनधर्म की क्या दशा थी इस विषय पर हमलोग पूर्ण अंधकार में हैं। इसका विकास, इसका पतन अथवा दूसरे धर्मों के साथ इसका मिश्रित हो जाना ये समी बातें अतीत के अन्धकार में मिश्रित हो गई हैं। इस संबंध में दो प्रतिद्वन्दी धमों की कहानी अत्यन्त ही रोचक है। प्रारंभ में भगवान महावीर' और 'माखालीपुत्त गोसाल' में चाहे जिस प्रकार का व्यवहार रहा हो परंतु आगे चलकर भिन्न-भिन्न दो धम्मों के प्रवर्तक होने के कारण दोनों का पारस्परिक व्यवहार यदि घोर कठोरता और शत्रुता का न था वो इसमें भी संदेह नहीं कि इनके परस्पर के व्यवहार में मित्रता तथा सजनता भी न थी। यदि भगवती' में वर्णित 'गोसाल' और 'महावीर' के कार्यों पर विश्वास किया जाय तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ भास्कर [भाग ४ यह मानना पड़ेगा कि ये दोनों 'राधो' के एक भाग 'वज-भूमि' में स्थित ‘पनित-भूमि' में सात वर्ष तक सोथ-साथ रहे। 'राधो' में भ्रमण करते हुए 'महावीर' ने अनेक संन्यासियों को हाथ में बाँस की फराठी लिये हुए देखा था। 'पाणिनि'-द्वारा वणित 'मस्करिण' नामक ये सन्यासी जैन आजीविक थे। अतएव यह पता लगता है कि 'महावीर' के समय में छठवीं शताब्दी के पूर्व में भी भाजीविक लोग पश्चिम बंगाल में अपना धर्म प्रचार कर रहे थे। अशोक और दशरथ आदि मौर्य सम्राटों ने भी समय समय पर इन आजीविकों को इनके प्रचार-कार्य में सहायता दी थी और 'नागार्जनि' एवं 'बाराबर' की गुफाओं से पता चलता है कि ईसा के ३०० वर्ष पूर्व के उत्तरीय भारत में इन आजीविकों के धर्मानुगामियों की कमी न थी। _ 'भगवती' में 'पुण्ड' देशांतर्गत 'महापौम' (महापद्म) के एक राजा का उल्लेख है। इनको आजीविकों का संरक्षक बतलाया गया है। 'पुण्ड' विन्ध्य पर्वत की तराई में बतलाया गया है। साथ ही साथ 'महापौम' की राजधानी में एक सौ सिंहद्वारों का होना कहा गया है। 'पुण्ड' के नाम से ही पता चलता है कि संभवतः यह 'पंडा' ही था और इसकी भौगोलिक स्थिति, जो कि 'विन्थ्य' पर्वत के पास बतलायी गयी है, नगण्य मानी जा सकती है। पुंड्रवर्द्धन अथवा आधुनिक फिरोजाबाद में एक निग्रंथ के दोष के कारण अशोक-द्वारा १८००० आजीविकों की हत्या किये जाने के वृत्तांत की सत्यता मानी जाय चाहे नहीं परन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि यहाँ भी आजीविकों का एक बहुत बड़ा केन्द्र था। इन सबों से अधिक महत्त्व रखनेवाली बात यह हुई कि तत्कालीन लोगों ने आजीविकों को पहचाना ही नहीं और उन्हें ही निर्पथ समझ बैठे। उन दोनों के आपार, व्यवहार, रहनसहन तथा धर्मकायों में इतनी समानता थी कि लोगों को एक दूसरे के पहचानने में कठिनाई होने लगी। इसी कारण हमलोग मी डाकर वेणीमाधव बरुआ की ही सम्मति से सहमत हैं कि 'दिव्यावदान' के संपादन के समय निग्रंथों तथा आजीविकों के प्राचारविचार तथा सिद्धांतों में इतनी कम असमानता थी कि उन दोनों को पृथक् पृथक् पहचान लेना एक प्रवासी बौद्ध मिक्षुक के लिये कठिन था। दक्षिण भारत के आजीविकों की गणना तो जैन-ग्रंथकारों ने बौद्ध मिक्षुकों की हो एक संप्रदाय में की है। ऐसी अवस्था मे यह समझ लेना कि 'ह्यु एनचाँग' ने अनेक आजीविकों को ही जैनी समझ लिया कुछ अत्युक्ति न होगी; वरन् स्वामाविक ही होगा। अधिक अध्ययन करने से पता चलता है कि * आजीविक संप्रदाय जैनमत से भिन्न था, वयपि उसका निकास जैनमत से दो हुनासउसका संस्थापक एक समव जैन मुनि था।-संपादक + बंगाल में जैनधर्म के हास का एक कारण भने ही वह हो। परन्त बहनहीं कहा जसा कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन ] बंगाल में जैन धर्म १५५ जैनियों और आजीविकों में बहुत कम भेद था। उस समय अन्य अन्य धर्मावलम्बियों का मी जोर बढ़ रहा था और इस बात की अत्यन्त आवश्यकता र्थः कि आजीविकों तथा जैनियों में किसी प्रकार का भेदमाव न रहे। अन्य धर्मावलम्बियां के आक्रमण को रोकने और उनका सामना करने के लिए इन दोनों संप्रदायों का परस्पर सम्मिलित हो जाना बहुत संभव था। बौढयतिकों के कट्टर शत्रु देवदत्त ने जो एक पृथक संप्रदाय की स्थापना की थी वह मी सातवीं शताब्दी में बौद्धधर्म में प्रायः सम्मिलित ही हो गयी थी और एक अबौद्ध के दृष्टिकोण से देखने पर उन दोनों संप्रदायों में कुछ अन्तर न था। उसकी आँखों में तो केवल बौद्धधर्म ही बसा था। यद्यपि आज भी प्रमाणों की कमी है, फिर भी यह अनुमान किया जा सकता है कि कुछ ही समय के बाद जैनधर्म, बौद्ध तथा वदिक धम्मों में ही अन्तर्हित हो गया था। प्राचीनकाल में 'पहाड़पुर' का मठ जैनियां की ही संपदा थी; इनके द्वारा ही इसका निर्माण हुआ था परन्तु अन्त में यह बौद्धों के ही अन्तर्गत हो गया और उत्तर बंगाल में 'सोमपुर' के बौद्ध विहार के नाम से प्रसिद्ध हो गया । 'पएनचाँग' के अपनी यात्रा का वर्णन लिखने के बाद से जैन तीर्थङ्करों की कुछ प्रतिमाओं के अतिरिक्त जैनियों के अस्तित्व का यहाँ कुछ भी पता नहीं चलता। श्रीराखालदास बनर्जी के मतानुसार बंगाल में केवल चार ही जैन प्रतिमायें हैं। किंतु उनका यह मत वर्तमान लोकमत के विरुद्ध है। क्योंकि श्रीयुत के० डी० मित्रा ने । सुन्दरवन' के एक भाग के खाज (Exploration) द्वारा जो ऐतिहासिक अन्वेषण किये हैं उनसे 'सुन्दरवन' के केवल उसी भाग में ही दस जैन प्रतिमाओं का और मी पता चला है। 'सुन्दरवन' के केवल एक भू-भाग में एक साथ दस प्रतिमाओं के मिलने को यदि 'वैरेकपुर' में प्राप्त ताम्रपत्रों के प्रमाणों के साथ मिलाकर गूढ विचार किया जाय तो पता चलेगा कि 'ह्य एनचाँग' ने जिस समतट' नगरी में निर्धयों को अधिकाधिक संख्या में देखा था उसमें उत्तर-पश्चिमीय सुन्दरवन भी सम्मिलित था। बाँकुरा और बीरभूम जिलों में अभी भी प्रायः जैन-प्रतिमाओं के मिलने का समाचार पाया जाता है। श्रीराखालदास बनर्जी ने भी इस क्षेत्र को तत्कालीन जैनियों का एक प्रधान केन्द्र बताया है। बंगाल में प्राप्त इन बीस प्रतिमाओं में से केवल एक श्वेतांबरी प्रतिमा है। इससे यह पता चलता है कि वहाँ दिगंबरों की संख्या इवेतांबरों से बहुत अधिक थी। वहां श्रीकृषमनाथ जी या श्रीआदिनाथ जी, श्रीनेमिनाथ जी. श्रीशांतिनाथ जी सब जैनी वैष्णव या गैड हो गये थे। बंगाल के सरा। लोग आज तक प्राचीन जैनों के स्मारकरूप से है। -संपादक छ गुएन चांग ने स्पष्ट शब्दों में उन साधुओं को निर्मन्य लिखा है, इसलिये उन्हें आजीविक अनुमान मना पालत है। -संपादक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ भास्कर [भाग १ तथा श्रीपार्श्वनाथजी की प्रतिमायें पायी गयी हैं और इनमें श्रीपार्श्वनाथ जी की प्रतिमा सब से अधिक लोकप्रिय है। मूर्तियों के आकार-प्रकार, उनमें अङ्कित चिह्नों, उनके पार्श्ववर्ती शिला-लेखों तथा उनके नग्नत्व से वे जैनियों की ही प्रमाणित मूर्तियाँ मानी जाती हैं। मूर्ति-निर्माणकला के अध्ययन से पता चलता है कि बंगाल की सभी जैनमूर्तियाँ 'पाल' राज्यवंश के समय की हैं। तुलनात्मक रूप से विचार करने से पता चलता है कि उस काल की जितनी धार्मिक मूर्तियों पाई गयो हैं उनमें जैन प्रतिमाओं की संख्या बहुत ही कम है और यही जैनियों के अल्प संख्या में होने का प्रमाण है। इस में अब कुछ भी संदेह नहीं रह गया है कि 'पाल' राज्यवंश के शासनकाल के आरंभ से ही जैनियों की संख्या दिन प्रतिदिन क्षीण होती गई और उसी समय से बंगाल में जैनधर्म की अवनति के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। तब से आजतक बंगाल में जैनधर्म की अवनति ही होती आई है और उसके प्रमाण- स्वरूप आज का बंगोल और उसका जैनधर्म सब के समक्ष उपस्थित है। अभी पूरी खोज हो कहां हुई है ? फिर भो बंगाल के भिन्न-भिन्न जिलों के गजेटिबरों से स्पष्ट है कि प्रत्येक स्थान पर अनेक प्राचीन जैन चिह्न विद्यमान हैं। -संपादक + 'इण्डियन कलचर' जनवरी १९३७ में प्रकाशित Jainism in Bengal' का रूपान्तर । -लेखक क Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रसंग (सं०-श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री) 7TH CENTURY .I. D. (१) महेन्द्र वर्मा, (पला वंशीय) जो संभवनः जैनी था, ई. सन ६१० में हुआ। उसने शैव होने पर साउथ आर्काट के अन्तर्गत पाटलीपुत्र (Patliputtiram) के एक बड़े जैनमठ (the large Jain monastry) को नष्ट किया। Ref. Smith, Early history of India P. 472. (२) चीन का बुद्धयात्री ह्वेनसंग (Hiuen Tsang) ई० सन् ६३० में भारतवर्ष में आया और ६४४ तक रहा। उसने जैनियों के सम्बन्ध में बहुत सी बातें लिखा हैं और सिंहापुर Singhapur (murti in the salt region) में एक वेनाम्बर मंदिर का उल्लेख एवं कलिङ्गदेश में जैनधम के प्रचार को सूचित किया है और साथ ही साथ दक्षिण भारत में हर जगह दिगंबर-सम्प्रदाय के अनुयायियों से मिला है। Ref. Beal, Siyuki, I, 144 etc. vol. II P. 205, etc. V. F. J. IV, P. 80 (३) ऐहोले (Aihole) का शिलालेख शक संवत् ५५६ में लिखा गया, जिसको जैनकवि रविकीति ने रचा। उसमें रविकीर्ति ने कालिदास और भारवि की बराबरी का दावा किया है। यह शिलालेख जैन मंदिर के बनने के संबंध का है। पश्चिमी चालुक्य पुलकेशी द्वितीय सत्याश्रव के राजत्वकाल में लिखा गयो। ___Ref. Ep. Ind. VI, P. 4. (8) 655 A. D. Terrible persecution of the Jains in the Deccan by Kuna, Sund, or nedumaram Pandya a Jain convert to Sāmism: assigned to about this period (655A.D.) by the scholars. Ref. smith, Early History of India, (1914) P. 454-5. cp. Ind. Ant. II, P. (५) वसन्तगढ़ से निकली हुई दो पीतल की जैनमूतियाँ इस समय पीडवाडा (सिरोही) के जैनमंदिर में हैं, जिन पर वि० सं० ७४४ के लेख हैं। Ref. अोझा सिरोही का इतिहास पृ० ३१-३२ 8TH CENTURY A. D. (६) Saka Era 656 (734 A.D.) Inscription of Vikramaditya II, Western Chalukya, mentioning the restoration of the temples of Pulikere and conveying gifts, (apocryphal). Ref. Guerinot no. 114. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ भास्कर भाग (७) शांतरक्षित नाम के बौद्ध नैयायिक ने अपने तत्वसंग्रह-कारिका नामक ग्रंथ में (749 A. D.) दिगंबर (जैन) के जीव-संबंधी सिद्धांत की आलोचना की है। Ref. विद्याभूषण, इण्डियन लाजिक P. 125. (८) शक सं० ६९८ (776 A. D.) में पश्चिमी गंगवंशीय राजा श्रीपुरुष ने श्रीपुर के जैनमंदिर को जो दान दिया उस के प्लेट (पत्र) लिखे गये। Ref. Guerinot no. 121. __ (९) ई. सन ७८४ में वत्सराज (Vatsaraja) प्रतिहार कन्नौज में हुआ। वि० सं० १०१३ के एक शिलालेख में लिखा है कि उसने ओसिआ (Osia) में एक जिन-मंदिर बनवाया। Ref. Arch. Surv. Ind. Annual Rep. 1906 -7, pp. 209, 42. (१०) शक संवत् ७१९ (797 A. D.) में श्रोविजय ने, जो कि पश्चिमी गंग वंशीय मारसिंह का जागीरदार (feudatory) था, एक जैनमंदिर बनवाया। Ref. Guerinot no. 122. 9TH CENTURY A. D. (११) शक संवत् ७३५ (812 A. D.) में गंगवंशीय राजा 'चाकिराज' की प्रार्थना (विज्ञप्ति पर राष्ट्रकूट वंशोद्भव द्वितीव प्रभूतवष, तृतीय गोविन्द ने एक गाँव विजयकीर्ति मुनि के शिष्य अर्ककीति को जिनेन्द्र मंदिर के लिये दिया। यह मुनि यापनीय नन्दिसंघ के पुन्नागवृक्षमूल गण के थे। दानपत्र का नाम (Kadaba, maisur plates) Ref. Ind. Ant. XII, P. 13. ___Epi. Ind. IV, P.340. (प्राचीनलेखमाला प्रथम भाग, पृष्ठ ५१-५२) (१२) शक संवत् ७४३ में सूरत का दानपत्र लिखा गया, जिस में गुजरात के राष्ट्रकूटवंशी ककराज प्रथम ने कुछ भूमि का नागप्रिका nagaprika : (नवसारी Navsari) के जैनमंदिर को दान दिया है। Ref. Bom. Gaz. I, I, (Hist. of Guz. J. P. 125) (१३) शक सं० ७८२ (860 A. D.) में कोन्नर (Konnur) का शिलालेख लिखा गया। जिस में राष्ट्रकूटवंशी महाराजाधिराज अमोघवर्ष प्रथम की तरफ से देवेन्द्र नाम के दिगंबर जैन को एक गाँव दान किया गया (apocryphal) Ref. Ep. Ind. VI, P. 29. ___Imperial Gazetteer of India, II. P.9f. (१४) घाटियाला जैन प्राकृत शिलालेख-समय वि० सं० ९१८ (861 A. Dपडिहार राजा कक्कुक ने एक जैनमंदिर बनवाया और उसे धनेश्वर गच्छ को दे दिया। ___Ref. Ramkarana, J. S. S.Rep. P. 1. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निय३] ऐतिहासिक प्रसंग १५६ (१५) A. Vir. 1400 Jesthbhuti : disappearance of Kalpavyavaharasutra : 5373796RqT) | Ref. P. R. III app. P. 22; IV, Ind. P. XLVII. (१६) Vik. Sam. 919 Deogadh pillar insciption of Bhojdeva of Kanouj. It records that in the reign of Bhojdeva while Luachchhagira was governed by the great feudatory Vishnuram, the pillai which contains the inscription was set-up near the temple of Shāntinath at Luachchhagiri (Deogadh) by Deva, a pupil of the Acharya Kamaldeva. Ref. Ep. Ind. Vol. IV. P. 309-10. (१७) सौंदत्ति (Saundatti) का शिलालेख-समय शक सं० ७९७ । इसमें राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय के मातहत शासक Gore:nor) पृथ्वीराम ने, जो सौंदत्ति और वेलगाम का शासक था, कुछ भूमि एक जैनमंदिर को दान की। ____Ref. Ep. Ind. app. No. 79. Guerinot-130. (१८) शक सं० ८०९ (887 A. D.) में पश्चिमी गंगवंशीय सत्यवाक्य कागुनो वर्मन (Konguni varman) की ओर से एक दान (gift) सर्वनन्दी को दिया गया। Ref. Guerinot, D' Epig. Jain, no. 131. (१९) बिलियर का शिलालेख (Biluir stone inscription) समय शक संवत् ८०९ (888 A. D.) है। सत्यवाक्य कोगुनी वर्मन (पश्चिभी गंगराचमल्ल प्रथम ?) ने बिलियूर के १२ छोटे गाँव (hamlets) शिवनन्दि सिद्धांत भट्टारक के शिष्य सर्वनंदो को पेन्नेकडंग (Penneka danga) के 'सत्यवाक्य जिनमंदिर' के लिये दिये। Ref. Ep. Car. 1. ___Coorg Inscriptions. (ed. 1914) no. 2. Introd. P. 8. (२०) विक्रम सं० ९५१ (895 A.D.) में रामसेन के शिष्य भट्टारक देवसन का जन्म हुश्रा। Ref. under 934. A. D. (P. R. IV. Index.) (२१) शक संवत् ८१५ (ई० ८९२) निधियण और चेदियण्ण नाम के दो वणिक् पुत्रों (sons of a merchant from Srimaigal) ने तगडूरु (धर्मपुरी) में एक जनमंदिर बनवाया। इन में से पहले को राजा से मूलपल्लि नाम का गाँव मिला, जिसे फिर उसने विनयसेन सिद्धांत-भट्टारक के शिष्य कनकसेन सिद्धांत-भट्टारक को मंदिर की सुव्यवस्था (up-keep) के लिये दिया। ये मट्टारक पोगरीयगण, सेनान्वय और मूलसंघ के थे। Ref. Ep. Ind. X, 57, 65. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܢܪ भास्कर [ भाग 10TH CENTURY A. D. (२२) शक सं० ८२४ (902 A. D.) में आदिपम्प या हम्प का जन्म हुआ, जो दि०कर्णाटक कवि था । Ref. J. R. A. (N. S.) XIV, 19. (२३) श्रीविजय दण्डनायक, जिन्हें रिविनगोज और अनुपम कवि भी कहते हैं, प्रायः ई० सन् ९१५ के लगभग हुए हैं। दानवुल पाडुस्तंभ शिलालेख में वे राजा इन्द्र (पानरेंदु) के., जो कि राष्ट्रकूट नित्यवर्ष इन्द्रतृतीय जाना गया है (identified with the Rastrakuta) अधीन के (subordinate) बतलाये गये हैं। गंगमंत्री चामुण्डराय की तरह, जो पश्चिमीया गंगसम्राट् मारसिंह द्वितीय और राचमल्ल द्वितीय का सेवक और जैन साहित्य तथा धर्म का बहुत बड़ा संरक्षक था । श्रविजयशास्त्रविद्या के समान अस्त्र (युद्ध) विद्या में भी अद्वितीय था। साथ हा जैनधर्म का संरक्षक था और उनने अन्त में मोक्षप्राप्ति के लिये, एक पवित्र जैन के सदृश, संसार का त्याग किया । Ref. Ep. Ind. X, 149-50. (२४) वि० सं० ९७३ (917 A.D.) में राष्ट्रकूटवंशी राजा विदग्ध हुआ । अपने धर्मगुरु वासुदेवसूरि (बलभद्र) के उपदेश से उसने हस्तिकुण्डिका ( हाथंडी) में एक जैनमंदिर वनवाया । राजा ने अपने को सोने से तौला था जिसका दो तिहाई भाग 'जिन' को और शेष (3) जैनगुरु (वासुदेव सूरि) को दिया । उस ने मंदिर और गुरु को और भी दान वि० सं० ९७३ में दिये थे । Ref. Ep. Ind. X, 17–23. (२५) वि० सं० ९९६ (940 A. D. ) में' 'मम्मट' राष्ट्रकूट ने अपने पिता विदग्धराज के दिये हुए दानपत्र को फिर से हस्तिकुण्डिका जेनमंदिर के हक़ में नया किया (Renewed). Ref. Ep. Ind. X., 20. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat (२६)वि० सं० १००८ ( 944 A. D.) में शालास्थिति का प्रारंभ हुआ । अर्थात् श्वेतांबर साधुओं की मंदिरों में रहने की प्रवृत्ति के स्थान में उपाश्रयों में रहने की धीरे धीरे प्रवृत्ति प्रारंभ हुई | Approximate date of the great Swetambar awakening. Ref. B. R. 1883-4, P. 323. (२७) शक संवत् ८६७ शुक्रवार के दिन (5th December, 945A. D.) पूर्वीय चालुक्य अम्मा द्वितीय या विजयादित्य षष्ट का, जो कि चालुक्य भीम द्वितीय वेंगी के राजा का पुत्र और उत्तराधिकारी था, और जिसने ईस्वी सन् ९७० तक राज्य किया, दबार (coronation) हुआ। यह राजा जैनियों का संरक्षक था । महिला 'चामकाम्ब' के कहने पर (at the instance of), जो पट्टषर्धक घराने की थी, उस (राजा) ने एक गाँव www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ऐतिहासिक प्रसंग नन्दी को (अनन्दी सकलचंद्र सिद्धान्त के शिष्य अप्पपोटि का शिष्य था), जो कि अडकल गच्छ और बलहारि गरण का था, सर्वलोकाश्रय जिन-भवन के हितार्थ दान किया था (Kaluchumbarru grant), उसके फौजी जनरल दुर्गराज ( कटकाधिपति विजयादित्य के पुत्र) ने“ Whose sword always served only for the protection of the fortune of the chalukyas and whose renowned family served for the support of the excellent great country called Vengi" धर्मपुरी के निकट कटकाभरण नाम का जिनालय बनाया और उसका अधिकार श्रीमन्दिरदेव (Srimandiradeva) को, जो कि ‘दिवाकर' का (जो कि नन्दिगच्छ कोटिडुंब (?) गए और यापनीय संघ के जिननन्दि का शिष्य था ) शिष्य था, दिया । मलियापुंडि का दानपत्र (grant ) एक गाँव के दान का उल्लेख करता है जो अम्मा द्वितीय ने इस जिनमंदिर के वास्ते दिया था । Ref. D. C. 90. Ep. Ind. VII, 179, Ibid, IX, 49-50. १६१ (२८) 949 AD. War between the Rastrakuts and cholas. Hostility between the rival religious, Jainism and Hinduism in the Deccan leads to the introduction of much bitterness into the wars of this period. Ref. Smith Early History of India (1914) P. 429. (२९) विक्रम सं० १०११ (२ अप्रैल दिन सोमवार में खजराहाँ ( रियासत छतरपुर) का शिलालेख लिखा गया । ( it records a number of gifts by Pahilla) इस लेख में पाहिल... • के द्वारा, " who is held in honor" by King Dhanga Chandella जिननाथ के मंदिर के लिये (in favour of the temple of Jinanath) दिये हुए अनेक दानों का उल्लेख है । Ref. Ep. Ind. I. 135-6. महेन्द्रचन्द्र ने, जो संभवतः ग्वालियर के निकट है) में (३०) वि० सं० १०९३ ( 956 A. D. ) में माधव के पुत्र ग्वालियर का राजा था, एक जैनमूर्ति सुहम्य Suhamya (जो अर्पण की । Ref. Jr. Asiatic Soc. Beng. XXXI, P. 399. (३१) विक्रम संवत् १०३४ (977 A. D.) । सुहम्य ( Suhamya) की जैनमूर्ति पर एक शिलालेख है जो वज्रदमन कच्छपघाट के समय का है। Ref. Jr. Asia. Soc. Beng. XXXI, P. 393, 401. (३२) शक संवत् ९०० में चामुण्डराज ( मंत्री पश्चिमी गंगराज राचमल्ल) ने अपना पुराण, समाप्त किया । Ref. Ind. ant. XII. 21. Inscrip. at Sr. Bel. no. 75, 76, 77 85 and pp. 22, 25, 33, 34. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भास्कर [भाग १ (३३) शक सं० ८५९ (978 A. D.) में पेग्गूर का शिलालेख लिखा गया। इसमें रकस ने, जो कि गंगवंशी राचमल्ल द्वितीय का छोटा भाई और वेड्डोरेगेरे (Beddoregare) का शासक (governor सूबादार) था, श्रवणबेलगोल के अनन्तवीर्य को, जो कि पण्डित गुणसेन भट्टारक का शिष्य था, एक दान दिया। Ref. Ep. Car. I, Coorg Inscriptions (ed. 1914) no. 4. Rice, Mysore and Coorg from inscriptions, P. 47. (३४) राष्ट्रकूटवंशी कृष्णराज तृतीय का पौत्र इन्द्रराज चतुर्थ, श्रवणबेलगोल में शक संवत् ९०४ (सोमवार के दिन २० मार्च) को मरा। Ref. Inscrip. at Sr. Bel. no. 57. p. 53. Ind. ant. XXIII. p. 124, no. 64. (३५) वि० सं० १०५३ (997 A. D.) में रविवार (२४ जनवरी) के दिन हस्तिकंडिका का जैनमंदिर (जिसे राष्ट्रकूटवंशी विदग्धराज ने बनाया था) बहाल किया गया या मरम्मत की गयी (restored)। वासुदेव सूरि के शिष्य शान्तिभद्र सूरि ने वहाँ एक ऋषभदेव की मूर्ति स्थापित की। इस घटना की स्मृति में सूराचार्य ने एक प्रशस्ति रची।। Ref. Ep. Ind. X, P. 17 f. (३६) 1000-1200. A. D. Prevalence of Jainism as the chief form of morship among the highest classes in central India. Ref, Imp. Gazet. Ind. IX, p. 353. (३७) लघुसमंतभद्र, जिसने अष्टसहस्रो पर एक टीका लिखी है, ईस्वी सन १००० के लगभग की है। (श्वे०) अभयदेव सूरि का भी यही समय है । ___Ref Vidyabhooshan Indian Logic pp. 36-37. K. J. O. Tank's Dic. I, P. I. P. R., V pp. 216-19. IITH CENTURY A. D. (३८) ईसवी सन् १००४ में, राजेन्द्रचोल के आधिपत्य में चोलों की विजयों द्वारा पश्चिमी गंगवंश के राज्य का पतन हुआ। इस राजकीय परिवर्तन से, जैनधर्म को मैसूर प्रांत में जो राजधर्म (s. r.) का स्थान प्राप्त था वह विरुद्धता में परिणत हो गया (adversely affec ted)। ___Ref. Rice, Mysore and Coorg from Inscriptions, pp. 48, 203. (३९) वीरभद्र ने वि० सं० १०७८ में 'आराधना-पताका' बना कर समाप्त की। Ref. I. G. 64. (४०) मथुरा से प्राप्त हुई एक जैनमूति पर वि० सं० १०८० का लेख है। Ref., Ep. Ind, II; p. 211 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण.] ऐतिहासिक प्रसंग १ (४१ बुद्धिसागर ने जो कि वर्धमान और जिनेश्वर-द्वारा अनुगृहीत था (the favoured one of) 'शब्दलक्ष्य-लक्षण' नाम का एक व्याकरण वि० सं० १०८० में बनाया, जब कि वह जवालीपुर (जालोर मारवाड़) में था। Ref. B. R. 1904-5 and 1905-6 p. 25, 77, Tank's Dic. p. 5. (४२) तिरुमलइ गिरि शिलालेख(समय 1024 A. D. ) है । यह चोल राजा के सम्बन्ध में केसरी वर्मन अपर नाम (alias) राजेन्द्र चाल देव प्रथम के राज्य के १३वें वर्ष का लिखा हुआ लेख है। राजेन्द्र चोलदेव ई० सन् १०१२ में राज्यासन पर बैठे (और उसने तिरुमलइ गिरि के, जो कि उत्तर आर्कट जिले में पोलूर के निकट है, जैनमंदिर के दीपक और पूजा के लिये कुछ रुपये का दानपत्र लिखा ) and records a gift of money for a lamp and for offerings to the Jain Temple on the hill of Tirumalai (near Polur in the north Arcot district) by Chamundappai the wife of the merchant Nannappaya of Malliyur in Karaivali, a subdivision of Perumban appadi. The temple was called Sri-Kundavi-Jinalaya. This name suggests that the shriue owed its foundation to kundvai the daughter of Parantak II, elder sister of Rajaraja I (and consequently the paternal aunt of Rajendra chola I) and wife of Vallava raiyar Vandya devar. Ref. Ep. Ind. IX p. 230-3 (१३) वि० सं० १०९२ में वर्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि (श्वे०) ने (वृह० ख० पट्टावली) शीलावती कथा आशापल्ली में बनाई। __Ref. B. R. 1882-3, p. 46. (४४) Saka 970. Balagamve inscription registering a Jain benefaction by Chavundaraya, Kadamba faudatory of Banvasi under the Western Chalukya, Somesvar l., of Kalyan. (४५) ई. सन् १०५० के लगभग गुणसेन ने धर्म के तौर पर नागकूप नाम का कुओं मुल्लूर ग्राम के वास्ते खुदवाया। _____Ref. Ep. Car. loc. cit., no. 42. (8) वि० सं० ११०९ में जीरापल्ली तीर्थ की नींव पड़ी (Jirapalli Tirth founded) Ref, B. R. 1883-4 322. (१७) शक सं० ९७६ (1054 A. D.) में होनवाड संस्कृत और कन्नड़ शिलालेख लिखा गया। इस शिलालेख में, जो पश्चिमी चालुक्य (सोमेश्वर प्रथम) त्रैलोक्यमल्ल के राज्यकाल से संबंध रखता है, उस दान का वर्णन है, जो रानी केतल देवी की प्रार्थना पर किया गया था। इस शिलालेख में मूलसंघ, सेनगण और पोगारि गच्छ का उल्लेख किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्कर 1 माग गया है। ब्रह्मसेन, उस का शिष्य, आर्यसेन, उसका शिष्य महासेन और उसका शिष्य चाकिराज, जो कि केतल देवी का एक कर्मचारी (officer) था। Ref. Ind. ant. XIX, p. XIX, p. 272. (४८) खजराहाँ की एक जैनमूर्ति पर वि० सं० १२१२ का लेख है। उसमें शिल्पकार का नाम कुमारसिंह दिया गया है। Ref. Cunningham archer. Survey India XXI, page 68. (४२) सं० ९८० (1058 A. D) में मुल्लुर को शिलालेख लिखा गया। इसके द्वारा राजेन्द्र कोंगाल्व ने उस बस्ति के लिये एक दान किया जो कि उसके पिता ने बनवाई थी। 'राजाधिराज' की माता, पोचबरसि ने गुणसेन को दान दिया। Vide 1064, A. D. Ref. Ep. Car. I, Coorg Inscrip. (ed. 1914), no. 35. (५०) शक सं० ९८६ (1064 A. D.) में मुल्लूर का शिलालेख लिखा गया, जिसमें गुणसेन की मृत्यु का उल्लेख है जो कि एक प्रधान नैयायिक और वैयाकरण थे। गुणसेन नंदिसंघ, द्रविलगण और अरुङ्गल आम्नाय के पुष्पसेन का शिष्य था। ___Rep. Ep. Car. I, Coorg Inscriptions (ed. 1914) no. 34. (५१) अन्नीगेरि के जैनमंदिर जो कि मैसूर के अन्यान्य जैनमंदिरों के साथ राजेन्द्रदेव चोल के द्वारा जला दिये गये थे, जिनका एक स्थानीय शासक के द्वारा ई० सन १०७० के करीब जीर्णोद्धार किया गया (are restored). _____Ref. Fergusson History of Indian and Eastern architecture (1910 A. D.) Vol. II., p. 23. (५२) राजपूताना म्यूजियम अजमेर में एक खड़ी दिगंबर जैनमूर्ति पर वि० सं० ११३० (1074 A. D.) का लेख है, दूसरी पर ११३७ । Ref. Prog. Rep. of arch. Surv. of India west. cir. for 1915-(P. 35) (५३) गुडिगेरे का टूटा कन्नड जैनशिलालेख का समय शक ९९८(1076 A. D.) है। इस में प्राचार्य श्रीनंदी पण्डित के दानों का वर्णन है। चालुक्य-चक्रवर्ती विजयादित्य वल्लभ (ie. probably Vijayaditya west Chalukya) की छोटी बहन कुंकुम महादेवी ने पहले एक जैनमंदिर बनवाया था, ऐसा इस शिलालेख में उल्लेख है। साथ ही भुवनैकमल्ल-शांतिनाथ देव का भी उल्लेख है, अर्थात् शांतिनाथ एक जैनमंदिर या बिम्ब का जो पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल के द्वारा बनाया गया अथवा स्थापित किया गया था। ___Ref. Ind. ant. XVIII, p. 38. (५४) विक्रमसिंह कच्छपघाट का शिलालेख का समय वि० सं० ११४५ है। इस में उन दानों का वर्णन है जो कि दूबकुंड (Dubkunda) के नये बने हुए जैनमंदिर के लिये दिये गये। Ref. Ep. Ind. II, 232, f, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टाकलंक का समय [ले" श्रीयुन पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, सं० जैनदर्शन] जैन सिद्धान्त-भास्कर, भाग ३, किरण ४ में, उसके अन्यतम संपादक बाबू कामता प्रसाद जी का 'श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेव' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ है। यद्यपि इस लेख में लेखक महोदय ने अकलङ्कदेव के बारे में उपलब्ध सामग्री का अच्छा सङ्कलन किया है, किन्तु फिर भी उसमें कुछ ऐसे स्थल हैं जो ऐतिहासिक तथा साहित्यिक दृष्टि से स्खलित कहे जा सकते हैं : अतः उन पर प्रकाश डालना आवश्यक है। जैन-साहित्य में अकलङ्कदेव का वही स्थान है, जो बौद्ध-साहिय में धर्मकीर्ति का है। उन्होंने जैनन्याय का कितना और कैसा विकास किया तथा उसे कौन कौन सी अमूल्य निधियां भेट को ? यह बतलाने के लिये एक स्वतन्त्र लेख की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में यहां तो मैं केवल इतना ही कह देना चाहता हूं कि यदि जैनन्याय-रूपी आकाश में अकलङ्करूपी सूर्य का उदय न हुआ होता तो न मालूम जैनन्याय और उसके अनुसर्ताओं की क्या दुर्गनि हुई होती ? किन्तु ऐसे महान् वाग्मी और प्रवन ताकिक की जीवन-घटनाए तथा सुनिश्चित समय जानने की सामग्री हमारे पास नहीं है । पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी के निर्मित कथा-कोशों में उनकी कथा मिलती है। - कथाओं में अकलक को मान्यखेट के राजा शुभतुङ्ग के मन्त्री का पुत्र बतलाया है। और हिमशीतल राजा की सभा में उनका बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ करनेका भी उल्लेख किया है। अन्तिम बात का समर्थन श्रवणबेल्गोल की मलिषेण-प्रशस्ति से भी होता है और उसी प्रशस्ति में, राजा साहसतुङ्ग की सभा में अकलङ्क के जाने का भी उल्लेख मिलता है। डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण * ने राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्णगज प्रथम को साहसतुङ्ग या शुभतुङ्ग ठहराकर अकलङ्क को उनका समकालीन माना है और इसी मत को स्वीकार करते हुए श्रीयुत प्रेमीजी ने अकलङ्क का समय वि० सं० ८१० से ८३२ ( ई . ७५३ मे ७७५ ) तक बनलाया है। किन्तु डाकर पाठक ने राष्ट्रकूट राजा साहसतुङ्ग दन्तिदुर्ग के समय में अकलङ्क का होना स्वीकार किया है। बा० कामताप्रसादजी ने प्रेमीजी के उक्त मत का उल्लेख करके उसमें आपत्ति की है और दन्तिदुर्ग को साहसतुङ्ग ठहरा * हिस्टरी ऑफ दि मिडियावन स्कूल ऑफ इविडवन लॉजिक । * जैनहितैषी, भाग १, पृ. ४१८]. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्कर [भाग ४ कर उसके राज्यकाल (वि० सं० ८०१ से ८१६ तक ई० स० ७४४ से ७५९ ) में अकलङ्क को जीवित मानना ठोक बतलाया है तथा निष्कर्ष निकालते हुए अकलङ्कदेव का कार्य-काल संभवत: वि० सं० ८०१ से ८३९ तक ( ई०७४४ से ७८२ ) बतलाया है। ____ अपने मत के समर्थन में लेखक ने उक्त हेतु के अतिरिक्त अन्य ६ हेतु और भी सङ्कलित किये हैं, जो निम्न प्रकार हैं २ स्वर्गीय भण्डारकर महोदय ने लिखा है कि जिनसेन ने अपने हरिवंश-पुराण (श० ७०५ = ई० ७८३ ) में सिद्धसेन, अकलङ्क आदि का उल्लेख किया है। अतः उससे पहले अकलङ्कदेव विद्यमान थे। ३ हरिवंशपुराण में आचार्य कुमारसेन का उल्लेख है और इन्हीं कुमारसेन का उल्लेख विद्यानन्द स्त्रामोने अपनो अष्टसहस्त्री-जो कि अकलङ्क को अष्टशती का ही भाष्य है के अन्तमें किया है। अतः इससे भी हमारे निष्कर्ष का समर्थन होता है । ४ विद्वानों का कथन है कि अकलङ्कदेव ने बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति के मत का खण्डन अपने ग्रन्थों में किया है। धर्मकीर्ति का समय ईस्वी सातवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग माना जाता है। अतः इसके बाद आठवीं शताब्दी में अकलङ्कदेव का अस्तित्व मानना उचित है। ५ स्व० प्रो० पाठक ने प्रकट किया था कि कुमारिलभट्ट ने अपने 'इलोकवार्तिक' ग्रन्थ में अकलङ्क देव के 'अष्टशती' नामक ग्रन्थ पर कुछ कटाक्ष किये हैं, तथा कुमारिल अकलङ्क के कुछ समय बाद तक जीवित रहा था। कुमारिल का समय वि० सं० ७५७ से ८१७ तक ( ई. स. ७२० से ७६० ) निश्चित है। अत एव अकलङ्क का समय भी यही हो सकता है। ६ अकलंकचरित नामक ग्रन्थ में स्पष्ट कथन है कि शक सं० ७०० में अकलंकयति का बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ था। इससे सिद्ध है कि शक सं० ७०० ( ई० ७७८) में अकलंक विद्यमान थे। ७ प्रो० पाठक, डा० विद्याभूषण, प्रो० राईस आदि विद्वानों ने अकलंक को ईस्वी आठवों शताब्दी का विद्वान् निश्चित किया है। आलोचना सबसे पहले लेखक के प्रथम हेतु पर विचार न करके हम उसके सहायक हेतुओं पर विचार करेंगे, क्योंकि सहायक हेतुओं के बाधित होने पर प्रथम हेतु स्वयं ही निस्सार प्रतीत होने लगेगा। २ अकलंक, जिनसेन के हरिवंशपुराण के पूर्ववर्ती हैं, इसमें तो किसी को विवाद नहों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिर ३] भट्टाब्लंक का समय जान पड़ता। किन्तु, जैसा कि लेखक महोदय ने लिखा है, यद्यपि डा. मण्डारकर ने अपनी रिपोर्ट में हरिवंशपुराण में अकलङ्कदेव के स्मरण किये जाने का उल्लेख किया है, तथापि हमें उस ग्रन्थ में ऐसा कोई स्थल न मिल सका। वा० कामताप्रसाद जी ने ऐसे दो स्थल खोज निकाले हैं, वे स्थल हैं हरिवंश-पराण के पहले सर्ग का ३१वां और ३९वाँ श्लोक । लेखक का कहना है कि इन से प्रकरान्तर-रूप में अकलंक का उल्लेख हुआ कहा जा सकता है। किन्तु यह लेखक का भ्रम है। असल में ३१वें श्लोक में ग्रन्यकार ने 'देव' शब्द से अकलंकदेव का स्मरण नहीं किया है, किन्तु जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता प्रसिद्ध शाब्दिक देवनन्दि काजिनका दूसरा नाम पूज्यपाद भी था -स्मरण किया है। आदिपुराणकार तथा वादिराज ने भी जिन्होंने अकलङ्कदेव का भी स्मरण किया हैइन्हें इसी संक्षिप्त नाम से स्मरण किया है। अतः यह 'देव' शब्द अकलङ्क का संक्षिप्त नाम नहीं है किन्तु देवनन्दि' को संक्षिप्र नाम है। ३९ वें श्लोक में श्रीवीरसेनाचार्य की कीर्ति को 'अकलङ्क' कहा गया है। किन्तु केवल 'अकलङ्क विशेषण से अकलङ्कदेव जैसे प्रखर तार्किक और समर्थ विद्वान् का स्मरण किये जाने की कल्पना हृदय को स्पर्श नहीं करती । पर जब हरिवंश-पुराणकार ने ऐसे विद्वानों का स्मरण किया है जिन्होंने अपनी रचनाओं में अकलङ्क का न केवल स्मरण किया है किन्तु उनके राजवार्तिक सं उद्धरण तक दिये हैं, तब उनके द्वारा अकलङ्क का स्मरण न किया जाना अचरज की बात अवश्य है। अस्तु, यदि हो सका तो इस सम्बन्ध में फिर कभी प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। ३ तीसरे हेतु से भी केवल इतना ही सिद्ध होता है कि अकलङ्क हरिवंशपुराण की रचना से पहले हुए हैं। और इस में किसी को भी विवाद नहीं है,यह हम पहले ही लिख चके हैं। ४ चौथे हेतु में किसी को विवाद नहीं है क्योंकि अकलङ्क के ग्रन्थों से यह स्पष्ट है कि उन्होंने न केवल धर्मकीर्ति का खण्डन ही किया है किन्तु उसके ग्रन्थों से उद्धरण तफ दिये हैं। उदाहरण के लिये लघीयस्त्रय की 'स्वसंवेद्य विकल्पानाम्' आदि कारिका की स्वोपज्ञ-विवृत्ति में "सर्वतः संहृत्य चिन्तस्तिमितान्तरात्मना" आदि आता है। यह धर्मकीर्ति के प्रमाण * इन्द्रचन्द्रावनेन्द्रव्यापि(डि)न्याकरणनिणः । देवस्य देवसंघस्य न बंद्यन्ते गिरः कथम् ॥३॥ + बोना तीर्थदेवः कितरांस्तस वर्षते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् ॥ ॥२॥ प्रथम पर्व : अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽमिवंयो हितैषिणा । शब्दाच येन सिद्ध्यन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः । __पारवनाथचरित - देखें, जैन साहित्य-संशोधक भाग १, अंक २ में प्रकाशिन श्रीयुत प्रेमी जी का 'जैनेन्द्र पाकरण और आचार्य देवनंदि' शीर्षक लेख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भास्कर [ भाग ४ वार्तिक के तीसरे परिच्छेद की १२४ वीं कारिका के ही शब्द हैं। न्यायविनिश्चय की एक कारिका का पूर्वाद्ध है-"भेदानां बहुभेदानां तत्रैकत्रापि संभवात् ।" यह प्रमाणवातिक के "भेदानां बहुभेदानां तत्रैकस्मिन्नयोगतः ॥ १-९१ ॥” का ही उत्तर है। इसी तरह प्राप्त मीमांसा-कारिका ५३ की अष्टशती में "न तस्य किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम्" आता है। यह प्रमाण-वार्तिक के प्रथम परिच्छेद की २७९ वी कारिका का उत्तरार्द्ध है, तथा अष्टसहस्री पृष्ठ ८१ ने अष्टशतीकार अकलङ्कदेव ने 'मतान्तरप्रतिक्षेपार्थ वा' आदि लिख कर जो बौद्धों के निग्रह-स्थानों की आलोचना की है वह धर्मकीर्ति के 'वादन्याय' का ही खण्डन किया है। अतः इसमें तो विवाद ही नहीं कि अकलङ्क ने धर्मकीति का खण्डन किया है। किन्तु इससे धर्मकीर्ति और अकलङ्क के बीच में एक शताब्दी का अन्तराल नहीं माना जा सकता, जैसा कि लेखक ने लिखा है। दो समकालीन ग्रन्थकार भी-यदि उनमें से एक वृद्ध हो और दूसरा युवा हो तो-एक दूसरे का खण्डन-मण्डन कर सकता है और इतिहास में इस तरह के अनेक दृष्टान्त मिलते भी हैं। अतः धर्मकोति का खण्डन करनेके कारण अकलङ्क को उनके १०० वर्ष बाद का विद्वान् नहीं माना जा सकता। ५ डाक्टर के० बी० पाठक ने अपने कई लेखों में इस बात को सिद्ध किया है कि कुमारिलमट्ट ने समन्तभद्र और अकलङ्क के कुछ मन्तव्यों पर आक्रमण किया है, अतः कुमारिल अकलंक के समकालीन होते हुए भी अकलंक के बोद तक जीवित रहे थे। भण्डारकर प्राच्यविद्या-मन्दिर की पत्रिका जिल्द ११, पृ०१४९ में समन्तभद्र के समय पर उन्होंने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने अकलंकदेव और उनके छिद्रान्वेयो कुमारिल के साहित्यिक व्यापारों को ईसा की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रखने की सलाह दी थी। बा० कामताप्रसादी ने भी अपने पक्ष के समर्थन में डा० पाठक की सलाह को अपनाया है और कुमारिल का सुनिश्चित समय-न मालूम किसके अधार पर-ई० स० ७०० से ७६० तक बतलाया है । प्रथम तो कुमारिल को यह सुनिश्चित समय ठीक नहीं है जैसा कि मैं बतलाऊंगा। और यदि इसे ठीक भी मान लिया जाये तो डाकर पाठक का यह मत कि कुमारिल अकलङ्क के बाद तक जीवित रहे है, लेखक के दिये गये अकलङ्क और कुमारिल के समय से ही वाधित हो जाता है। लेखक ने अकलंक का कार्यकाल ई० ७४४ से ७८२ तक लिखा है और कुमारिल का ई० ७०० से ७६० तक। इस से तो अकलंक का कुमारिल के २२ वर्ष बाद तक जीवित रहना सिद्ध होता है, जो लेखक के द्वारा स्वीकृत डाकर पाठक के मत से बिल्कुल विपरीत है। भण्डारकर-प्राच्य-विद्या-मन्दिर पूना को पत्रिका, जिल्द १३ पृष्ठ १५७ पर मुद्रित .. देखें, नैनजगम्, वर्ष 8, अंक १५, १६ में प्रकाशित 'समन्तभद्र का समय और डा. के. बी.. पाठक, शीर्पक पं: जुगलकिशोर जी मुख्तार का लेख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ । महाकलंक का समय 'अकलंक का समय' शीर्षक अपने लेख में एक स्थल पर डाकर पाठक ने लिखा है कि अकलंक का समय इतना सुनिश्चित है कि उसको वजह से अकलंक के छिद्रान्वेषक कुमारिल को सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध या उत्तरार्द्ध का विद्वान नहीं माना जा सकता। इन शब्दों को पढ़ कर डाकर पाठक की इस असिद्व में प्रसिद्ध को सिद्ध करने की प्रणाली पर हमें कु अचरज अवश्य हुआ। अकलंक को साहमतंग दन्तिदुर्ग का समकालीन ठहराना कितने सुदृढ़ स्तम्भों पर अवलम्बित है यह हम दिख ना ही चुके हैं तथा आगे भी बतलायेंगे। उसके आधार पर कुमारिल को भी आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में घसीट कर ले आना किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा सकता। वास्तव में अकलंक की तरह कुमारिल का समय निर्धारण करने में भी एक शताब्दो की भूल की गई है और इस भूल की वजह से डाकर पाठक से अन्य भी कई भूलें हो गई हैं, जैसे नालंदा बौद्ध विद्यापीठ के आचार्य तत्वसंग्रहकार शान्तरक्षित को नवौं शताब्दी का विद्वान बतलाना। शान्तरक्षित ने अपने तत्वसंग्रह में कुमारिल को बहुत सी कारिकाएँ उद्धन की हैं, अतः जब कुमारिल को आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध का विद्वान कहा जाता है तो शांतरक्षित को नवौं शताब्दी का विद्वान् कहना ही पड़ेगा। किन्तु यह शृङ्खला इतिहास से बाधित है। मुनि जिनविजयजी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर हरिभद्रसूरि का समय ई० सन् ७०० से ७७० तक स्थिर किया है, क्योंकि ई. सन् ७७८ में रचित 'कुवलयमाला' में उनको स्मरण किया गया है। हरिभद्रसूरि ने अपने शास्त्रवार्ता-समुच्चय की स्वोपन-टीका में 'सूक्ष्मबुद्धिना शान्तरक्षितेन' लिखकर स्पष्टरूप में शान्तरक्षिन का नाम निर्देश किया है और शांतरक्षित ने अपने तत्वसंग्रह ग्रन्थ में कुमारिल की अनेक कारिकाएँ उद्धृत की हैं, अतः कुमारिल को सातवीं शताब्दी का विद्वान् मानना ही पड़ेगा। और जब डाकर पाठक के मतानुसार अकलंक की अष्टशती पर कुमारिल ने आक्षेप किये हैं और कुमारिल उनसे कुछ समय बाद तक जोवित रहे हैं तो अकलंक को भी सातवीं शताब्दी के मध्य का विद्वान मानना ही होगा। यदि उक्त चारां विद्वानों की औसत आयु ६० वर्ष मानी जाय तो उनके पारस्परिक सम्बन्ध का ध्यान रखते हुए उनका समय-क्रम इस प्रकार मानना होगा-अकलंक ई० ६२० से ६८० तक, कुमारिल ई०६४० से ७०० तक, शान्तरक्षित (क्योंकि उसने कुमारिल और उसके साक्षात् शिष्य उव्येयक उपनाम भवभूति का उल्लेख किया है) ई० ७०० से ७६० तक और हरिभद्र ई. ७१० से ७७० तक । ६ अकलंकचरित के श्लोक का अथ करने में तो लेखक महोदय ने कमाल कर दिया १ जैन साहित्य-संशोधक, भाग ,, अंक 1, में 'हरिभद मूरि का समम-निर्णय' शीर्षक लेख । २ देखें, तत्व-संग्रह की अंग्रेजी प्रस्तावना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्कर [ भाग ४ है। आप के द्वारा उद्धृत श्लोक में 'शक' शब्द का कहीं नाम भी नहीं है, प्रत्युत 'विक्रमार्क' स्पष्ट लिखा है, फिर भी आपने उसका अर्थ शक सं० कर दिया है और इस तरह अकलंक के बौद्धों से शास्त्रार्थ करने के समय वि० सं० ७०० (ई० ६४३) के स्थान में शक सं० ७०० (ई० ७७८) लिख गये हैं, जो उनकी अकलंक को दन्तिदुर्ग का समकालीन सिद्ध करने की धुन में जानबूझ कर की गई भूल का परिणाम जान पड़ता है। अतः लेखक-द्वारा प्रदत्त इस प्रमाण से भी हमारे ही मत की पुष्टि होती है न कि लेखक के मत की। 'अकलंक का समय' शीर्षक डाकर पाठक के लेख का निर्देश हम ऊपर कर आये हैं और यह भी लिख आये हैं कि डाकर पाठक को अपने निर्धारित समय की सुनिश्चितता पर इतना दृढ़ विश्वास था कि उन्होंने उसके आधार पर कुमारिल को आठवीं और शान्तरक्षित को नवीं शताब्दी का विद्वान् मान लिया। उनके इस विश्वास का आधार था, प्रमाचन्द्र का प्रसिद्ध श्लोक "बोधःकोऽप्यसमः समस्तविषयः प्राप्याकलंक पदम्” आदि, जिसका अर्थ यह किया गया कि प्रभाचन्द्र ने अकलंक के चरणों के समीप बैठ कर ज्ञान प्राप्त किया था, और * विक्रमार्कशताब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलङ्कयतिनो बोद्धैर्वादो महानभूत् ॥ पं० जुगलकिशोर जी ने भी अपने 'समंतभद्र' (पृष्ठ १२५) में यह श्लोक उद्धृत कियाहै। किन्तु उसमें 'विकमार्कशकाब्दीय' पाठ है जो शुद्ध प्रतीत होता है। बाबु कामताप्रसाद जी ने भो अपने लेख के फुटनोट में इस बात का निर्देश किया है और पं० जुगल किशोर जी के अर्थ वि० सं० ७०. पर आपत्ति करते हुए लिखा है कि दक्षिण भारत के कई लेखों में शकाब्द का उल्लेख 'विक्रमार्क' शब्द से हुआ है। हुआ होगा, किन्तु यहाँ पर तो ऐतिहासिक घटना-क्रम से विक्रम सम्वत् की ही पुष्टि होती है। तथा इसका समर्थन लेखक की उस आशंका से भी होता है जो उन्होंने शक सं० ७०० के बारे में प्रकट की है। वे लिखते हैं "किन्तु इस अवस्था में कुमारिल का अकलंक के बाद तक जोवित रहना बाधित होता है। हमारे ख्याल से या तो कुमारिल के काल-निर्णय में कुछ गड़बड़ी है, अथवा अकलंक देव को कुमारिल के आक्षेप को देख कर उसके निरसन करने का अवसर नहीं मिला था।" हेतु नं०५ में डाक्टर पाठक के मत का उल्लेख और कुमारिल का सुनिश्चित समय वि० सं० २१७ तक लिखने के बाद भी निष्कर्ष निकालते हुए अकलंक के समय की अन्तिम अवधि ८३९ वि० सं० निर्णीत की गई और उस समय लेखक महोदय को अपनी उस भूल का ध्यान न आवा जिसे हम हेतु नं०५ को हेत्वाभास सिद्ध करते समय दरसा आये हैं। हर्ष है कि अकलंकचरित के 'विक्रमार्कशक' का अर्थ शकसम्वत् करते हुए उन्हें अपनी भूल ज्ञात हो गई और उससे उन्हें कुमारित के काल-निर्णय में कुछ गड़बड़ी मालूम दी। किन्तु हम ऊपर बता चुके हैं कि कुमारिल का काल-निर्णय कुछ नहीं बलिक सर्वथा गड़बड़ है और इस गड़बड़ी का मूल कारण अकलंक के काल-निणंव की गड़बड़ी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] महाकलंक का समय इससे यह निष्कप निकाला गया कि प्रभाचन्द्र अकलंक के शिष्य थे। अपने उक्त लेख में श्रीकण्ठ शास्त्री के मन की आलोचना करते हुए स्व. डा० पाठक ने बड़े जोर के साथ लिखा है कि यदि अकलंक का समय ६४५ ई. माना जाय तो 'प्राप्याकलङ्क पदम्' के अनुसार प्रभाचन्द्र-जिनका स्मरण आदिपुराण (ई० ८३८ ) में किया गया है और जो अमोघवर्ष प्रथम के समय में हुए हैं-अकलंक के चरणों में नहीं पहुंच सकते। बाबू कामताप्रसाद जी ने भी डाकर पाठक के इस मत का अनुसरण किया है और प्रभाचन्द्र को अकलंक का समकालोन बतला कर प्रमाणरूप से फुटनोट में उक्त श्लोक उद्धृत कर दिया है। किन्तु पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार । डाकर पाठक के इस भ्रम का निराकरण बड़ी अच्छी तरह कर चुके है। यहाँ उसके दुहराने को आवश्यकता नहीं है। प्रभाचन्द्र तो क्या, अकलंक के प्रकरणों के ख्यातनामा व्याख्याकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्द भी, जिनका स्मरण प्रभाचन्द्र ने किया है, अकलंक के समकालीन नहीं जान पड़ते, क्योंकि अनन्तवीर्य अकलंक के प्रकरणों का अर्थ करने में अपने को असमर्थ बताते हैं तथा दोनों ने धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर गुण आदि बौद्ध विद्वानों का उल्लेख किया है जो आठवीं शताब्दी के विद्वान हैं और जिनका अकलंक के प्रकरणों पर कोई प्रभाव नहीं जान पड़ता। अतः प्रभाचन्द्र के उक्त श्लोक के आधार पर प्रभाचन्द्र को अकलंक का साक्षात् शिष्य बतलाना और इसीलिये अकलंक को सातवों शताब्दी के मध्य से खोंच कर आठवों शताब्दी के मध्य में ला रखना सरासर भूल है। बाबू कामताप्रसाद जी के द्वारा अपने मत के समर्थन में दिये गये हेतुओं को हेवामास सिद्ध करने के बाद हम कुछ ऐसे और भी हेतु उपस्थित करेंगे जो उनके मत का निरसन और हमारे मत का समर्थन करते हैं। अनन्तवीर्य के समय के सम्बन्ध में डा० पाठक के मत की आलोचना करते हुए एक फुटनोट में प्रो० ए० एन० उपाध्याय ने अकलंक के समय के संबंध में भी उनके मत की आलोचना की है और दन्तिदुर्ग को साहसतुंग कहना केवल अनुमान मात्र बतलाया है। तथा यह भी लिखा है कि धवला टीका में जो जगत्तंग के राज्य में (७८४ से ८०८) समान हुई थी। अनेक स्थलों पर वीरसेन ने अकलंक के राजवार्तिक से लम्बे लम्बे चुनिन्दा वाक्य उद्धृत किये हैं। पं० जुगलकिशोर जी ने|| धवला टीका का समाप्ति * भाण्डारकर-प्रास्य विद्या मंदिर पूना की पत्रिका, जिल्द १२, पृष्ठ २५३.२१५ में विद्यानंद और शंकर-मत' शीर्षक से श्रीकण्ठ शास्त्री का एक लेख प्रकाशित हुआ है, उस में लेखक ने अकलंक का समय ६४५ ई० लिया है, उसी का खण्डन करने के लिये स्व० डा० पाठक ने 'अकलंक का समय' शीर्षक निबन्ध लिखा था। + अनेकांत, जिल्द 1, पृ १३० । * जैनदर्शन, वर्ष ४, अंक १, पृष्ठ ३८१ से। ॥ समन्तभद्र, पृष्ठ १७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ भास्कर [ भाग ४ काल शक सं० ७३८ (ई० ८१६) लिखा है। यद्यपि अकलंक को दंतिदुर्ग का समकालीन मान लेने पर भी वीरसेन के द्वारा धवला टीका में उनके राजवार्तिक से उद्धरण दिये जाने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती, क्योंकि अकलंक के अंत और धवला की समाप्ति में ३४ वष का अन्तर है, फिर भी धवल सरीखे सिद्धांतग्रन्थ में वीरसेन जैसे सिद्धांत-पारगामी के द्वारा आगम-प्रमाण के रूप में राजवार्तिक से वाक्य उद्धृत करना प्रमाणित करता है कि वीरसेन के समय में राजवातिक ने काफी ख्याति और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी और उसमें काफी समय लगा होगा, अतः अकलंक को दन्तिदुर्ग का समकालीन नहीं माना जा सकता। सिद्धसेन गणी ने अपनी तत्वार्थ-भाष्य की टीका' में अकलंक के सिद्धि-विनिश्चय का उल्लेख किया है। इनका समय अभीतक निर्णीत नहीं हो सका है। 'जैन साहित्यनो इतिहास'' में परम्परा के आधार पर इन्हें देवद्धिगणि (५वीं शताब्दी के लगभग) का सम कालीन बतलाया गया है, किन्तु इतने प्राचीन तो यह कभी हो ही नहीं सकते। इन्होंने अपनी तत्वार्थ-भाष्यवृत्ति' में धर्मकीति का नाम निर्देश किया है और दूसरी तरफ नवमी शताब्दी के विद्वान् शीलाङ्क ने गन्धहस्ती नाम से इनका उल्लेख किया है, अतः वे सातवीं और नवमी शताब्दो के मध्य में हुए हैं इतना सुनिश्चित है। पं० सुखलालजी' का कहना है कि हरिभद्र और सिद्धसेन गणि ने परस्पर में एक दूसरे का उल्लेख नहीं किया अतः ऐसी संभावना जान पड़ती है कि ये दोनों या तो समकालीन हैं या इनके बीच में बहुत ही थोड़ा अन्तर होना चाहिये। हरिभद्र का सुनिश्चित समय हम ऊपर लिख आये हैं अतः सिद्धसेन गणि को आठवीं शताब्दी का विद्वान् मानने में कोई बाधा नहीं है। अब यदि अकलङ्क का समय भी आठवीं शताब्दी माना जाता है तो उनकी सुप्रसिद्ध कृति का सिद्धसेन गणि-द्वारा उल्लेख किया जाना संभव प्रतीत नहीं होता अतः अकलङ्क को आठवों शताब्दी का विद्वाम् न मान कर सातवीं शताब्दो का विद्वान् मानना चाहिये। जिनदास' गणि महत्तर ने निशीथसूत्र पर एक चूर्णि रची है। इनकी एक चूर्णि नन्दिसूत्र पर भी है। इस चर्णि की प्राचीन विश्वसनीय प्रति में इसका रचना-काल शक सं. ५९८ ( ई० ६७६ ) लिखा है। निशीथ-चूणि में जिनदास ने सिद्धसेन के 'सन्मति' , एवं कार्यकारणसम्बन्धः समवायपरिणामनिमित्तनिवर्तकादिरूपः सिद्धिविनिश्चयसृष्टिपरीक्षातो योजनीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेण। पृ० ३७ । २ ले मोहनलाल देसाई, पृ० १४३ । ३ पृ० ३६७। आचाराङ्ग-टीका, पृष्ठ १ तया ८२ । ५ 'तत्वार्थसूत्र के व्याख्याकार और व्याख्वाएं" शीर्षक लेख, अनेकांत वर्ष १, पृ०५८० । ६ 'सन्मति-प्रकरण' (गुजराती) को प्रस्तावना, पृष्ठ ३५-३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] भट्टाकलंक का समय १७३ - - के साथ-साथ अकलंक के सिद्धि-विनिश्चः, अन्य का भा उल्लख किया है और उसे दशन और ज्ञान के प्रभावक शास्त्रों में गिनाया है। इस उल्लेख से अकलंक को सातवीं शताब्दी के मध्यकाल का विद्वान मानने में कोई शंका अवशेष नहीं रह जाती। तथा अकलंक के ग्रन्थों पर से भी हमारे उक्त मत का समर्थन होता है। विद्वान् पोठकों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि धर्मकीर्ति ने अपने पूर्वज दिङ्नाग के प्रत्यक्ष के लक्षण में 'अभ्रान्त' पद को स्थान दिया था। दिङ्नाग ने प्रत्यक्ष का लक्षण केवल 'कल्पनापोढ़' रक्खा था किंतु धर्मकीनि ने कल्पनापोढ़ और अभ्रांत रक्खा । अकलंक ने अपने राजवातिक में दिङ्नाग के लक्षण का खण्डन किया है और उस प्रकरण में जो दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं, उनमें से एक दिङ्नाग के 'प्रमाण-समुच्चय' की है और दूसरी वसुबन्धु के अभिधर्मकोश की। इसके अतिरिक्त उसी प्रकरण में कल्पना का लक्षण करते हुए उसके पाँच भेद किये हैं। रशियन प्रो० चिरविस्टकी' (stcherbatsky) लिखते हैं कि दिङ्नाग ने कल्पना के पाँच भेद किये थे-जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया और परिभाषा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अकलंकदेव ने राजवार्तिक को रचना अपने प्रारम्भिक जीवन में की थी, उस समय तक या तो धर्मकोति ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ प्रमाण-वातिक, प्रमाण-विनिश्चय आदि की रचना नहीं को थी या वे प्रकाश में नहीं आये थे। किन्तु उस समय भी अकलंक धर्मकीति से परिचित थे, क्योंकि उन्होंने राजवातिक पृष्ट १९ पर 'बुद्धिपूर्वा क्रियां दृष्ट्वा' आदि एक कारिका उद्धृत की है। कहा जाता है कि धर्मकीति के 'सन्तानान्तरसिद्धि' नामक प्रकरण की यह पहली कारिका है। इनिहासज्ञों ने धर्मकीनि का कार्यकाल ६३५ ई० से ६५० तक निर्णीत , दमणगाही - दसणणा गप्पभावगाणि सत्याणि सिद्धिवाणच्छयसंमदिमादि रोगहतो असंथरमाणे जं अकस्पियं पडिसेवति जमाते तस्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः । २ प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नाम नात्यादियोजना । असाधारणहेतुत्वादःस्तद् अपदिश्यते ॥:॥ ३ सवितर्कविचात हि पञ्च विज्ञानधातवः । निरूपणानुस्मरणविकल्पनविकल्पकाः ॥२॥ अभिधर्मकोश में 'विकल्पादविकल्पकाः' पाठ है। ४ बुद्धिस्ट लॉजिक, २य भाग, पृष्ठ २७२ पर फुटनोट नं० । __ न्यायवार्तिकतात्पर्यटोकाकार के उल्लेख से भी यह पता चलता है कि दिङ्नाग ने कल्पना के . पाँच भेद किये थे। यथा-"संप्रति दिग्नागस्य लक्षणमुपन्यस्वति । दूषयितुं कल्पनास्वरूपं पृच्छति अय केयमिति । लक्षणवादिन उत्तरं नामेति । यहच्छाशब्देषु हि नाम्ना विशिष्टोऽर्थ उच्यते वित्येति । जातिशब्देषु जात्या गौरयमिति । गुणशब्देषु गुणेन शुक्ल इति । क्रियाशब्देषु क्रियया पाचक इति अभ्यशब्देषु दन्येण वण्डो विषाणीति । सेयं कल्पना।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ भास्कर [ भाग ४ किया है। और प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू नत्सांग के द्वारा अपने गुरु-भाई धर्मकीति का उल्लेख न किये जाने से यह भी स्पष्ट है कि उस समय वह विद्यार्थी थे। म नत्सांग ई० ६३५ तक नालन्दा में रहा और उसी वर्ष आचार्य धर्मपाल ने नालंदा विद्यापीठ के अध्यक्ष-पद से अवकाश ग्रहण किया। अतः धर्मकीर्ति की प्रमाणवार्तिक जैसी उत्कृष्ट रचनाएँ ई० ६३५ के बाद ही रची गई जान पड़ती हैं। यही वजह है कि अकलंक के न्यायविनिश्चय में जो धर्मकीर्ति के प्रमाण-विनिश्चय का स्मरण कराता है-हम धर्मकीति के प्रत्यक्ष के लक्षण का खण्डन पाते हैं। यदि अकलंक को आठवीं शताब्दी का विद्वान् माना जाय तो उक्त समस्या पर हृदयस्पर्शी प्रकाश नहीं डाला जा सकता। अतः अकलंक को दंतिदुर्ग या कृष्णराज प्रथम का समकालीन मानने की पुरानी मान्यता को छोड़ कर उन्हें सातवीं शताब्दी के मध्यकाल का विद्वान मानना चाहिये। निष्कर्ष स्व. डा० विद्याभूषण, प्रेमी जी, तथा स्व० डा० पाठक-कथोपवर्णित शुभतुंग या साहस. तंग नाम के आधार पर राष्ट्रकूटवंशीय राजा कृष्णराज प्रथम को शुभतुंग और दंतिदुर्ग को साहसतंग ठहरा कर अकलंक को आठवीं शताब्दी के मध्यकाल का विद्वान् मानते हैं। बाबू कामता प्रसाद जी डा० पाठक के दंतिदुर्ग को साहसतंग ठहराने को बात के पक्ष में हैं। किंतु हमारी दृष्टि से दोनों मतों में कोई विशेष अन्तर नहीं है क्योंकि दोनों ही मत अकलंक को आठवीं शताब्दी का विद्वान ठहराते हैं। डाकर विद्याभूषण ने तो कृष्णराज को शुमतुंग मानने के सिवा अपने पक्ष के समर्थन में कोई हेतु नहीं दिया। डाकर पाठक का जोर दो ही हेतुओं पर है-एक कुमारिल का अकलंक के बाद तक जीवित रहना और दूसरा प्रभाचन्द्र का अकलंक का साक्षात् शिष्य होना। प्रथम हेतु के अनुसार डा० पाठक की यह मान्यता कि अकलंक पर कुमारिल ने आक्रमण किया है-अकलंक को सातवीं शताब्दी का विद्वान् मानने का ही समर्थन करती है यह हम ऊपर भले प्रकार सिद्ध कर आये हैं। दूसरा हेतु भी विष्ठानों के द्वारा खण्डित किया जा चुका है। बाबू कामता प्रसाद जी ने अपने पक्ष के समर्थन में जिन हेतुओं का सङ्कलन किया था उनकी निस्सारता ऊपर सिद्ध कर दी गई है और कई नये प्रमाण देकर यह साबित कर दिया है कि अकलंक सातवीं शताब्दी के मध्यकाल के विद्वान् थे। अतः डाकर विद्याभूषण और पाठक की दुहाई देना बेकार है। अकलंक को सातवीं शताब्दी के मध्यकाल का विद्वान् * हमारे सहयोगी पं० महेन्द्रकुमार जो से उनके मिस मि० तारकम ने जो निव्वतीय भाषा जानते हैं तथा उस पर से कई बौद्ध ग्रंथों का अवलोकन कर चुके हैं-यह बात कही थी। .' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' भट्टाकलंक का समय मानने के समर्थक हेतुओं का संक्षिप्त रूप निम्न प्रकार है - १-आठवीं शताब्दी के मध्यकाल के विद्वान् सिद्धसेनगणि अकलंक के सिद्धिविनिश्चय ग्रंथ का उल्लेख करते हैं। २-सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान् जिनदास महत्तर अपनी निशीथचूर्णि में सिद्धि-विनिश्चय का उल्लेख प्रमावक ग्रन्थों में करते हैं। ३-अकलंक-चरित में लिखा है कि वि० सं० ७०० (६४३ ई०) में अकलंकयति का बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ। ४-डाकर पाठक का कथन है कि कुमारिल अकलंक के बाद तक जीवित रहे, और कुमारिल का समय सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है। ५-अकलंक ने अपने ग्रन्थों में धर्मकीर्ति का खण्डन किया है, किंतु रोजबार्तिक में उन्होंने धर्मकीति के प्रत्यक्ष की परिभाषा का उल्लेख न करके दिङ्नाग-कृत परिभाषा का खण्डन किया है। अतः ऐसा जान पड़ता है कि राजबार्तिक की रचना उम्होंने अपने प्रारंभिक काल में की है और उस समय धर्मकीर्तिके वे ग्रन्थ-जिनका अकलंक ने अपने अन्य प्रकरणों में खंडन किया हैप्रकाश में नहीं आये थे। धर्मकीर्ति का कार्यकाल ६३५ से ६५० तक निर्णीत किया गया है अतः उस समय अकलङ्क को युवा होना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्राचीन गुटका (सं०-श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन ) श्री दि० जैन बड़े मन्दिर मैनपुरी के शास्त्र-भाण्डार को देखने का सौभाग्य हमें कुछ वर्षों पहले प्राप्त हुआ था। उसके कतिपय ग्रन्थरत्नों का परिचय हमने पहले 'वीर' द्वारा पाठकों को कराया था। उनमें महाकवि पुष्पदत्त-कृत यशोधर-चरित्र (अपभ्रंश अपूर्ण) कल्पसूत्र सचित्र ( श्वे० ) आदि ग्रन्थ दर्शनीय हैं। इन्हों में एक गुटका भी उल्लेखनीय है। यह करीब ३०० वर्ष का लिखा हुआ है। जैसे कि उसकी निम्नलिखित प्रशस्ति से प्रकट है:___ "मथ सम्बत्सरे श्रीनृप-विक्रमादित्य-राले। संवतु १६८० जेष्ट मासे शुक्ल पक्ष परवणी नवमी भोम दिने श्रीनरदी जहाँगोरवादिसाहिराज्यवर्तमाने श्रीकाष्ठासंगे माथुरान्वे पुकरगणे भट्टारक श्रीतुणचन्द्रदेवान् । तत्व भदारक श्रीसकलचन्द्रः । तत्प? मंडलाचा माहेन्द्रसेण तत्सिष पंडित भगवतीदालु । तेन इदं संचिका-मध्ये लिपकृताः॥ लिषापित योनीदासु शुभमस्तु ।" इसमें पहले हो श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत ‘पटपाहुढ' टीका-सहित लिखी गई हैं। उपरान्त 'परमात्मप्रकाश' लिखकर 'योगसार' के दोहे लिखे गये हैं, जिनमें आदि-अन्त के ये हैं:"णिम्मल ज्झाण परिडिया, कम्म-कलंक उद्देवि | अप्पालद्धउ जेण परु, ते परमप्प नवेवि ॥१ संसारहं भयभीपण, जोगचन्द मुणिएण। अप्पासंबोहण कयह, दोहा कव्वमिसेण ॥ इति ।" इसके बाद देवसेन-कृत 'तत्वसार' लिखा गया है, जिसकी प्रारम्भिक और अन्तिम गाथाएँ इस प्रकार हैं: "माणग्नि-घट्टकम्मे णिम्मल सुविसुद्ध लद्ध-सद्भावे । णमि ऊण परमसिद्ध, सुतव्वसारं पोछामि ॥ सो ऊण सव्वसारं, रइयं मुणिणाह देवसेणेण । जो सट्टिी भावद, सो पावर सासयं सोक्खं ॥ ७४॥" फिर द्रव्य-संग्रह लिख कर 'सामायिक समस्त भक्ति तीन-सहित' लिखा है। शायद यह बम्बई के मुनि अनन्तकीति-ग्रन्थमाला-द्वारा प्रकाशित सामायिक ग्रन्थ ही है। उपरान्त 'दाढसी गाथायें' ३८ दी हैं। आदि-अन्त यथावत् समझिये: "टूटंति पलालहरं, माणुसजम्मस्म पाणियं दिन्न । जीवा जे हिणणाया, णाऊण ण रक्खिया जेहिं ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिर) एक प्राचीन गुटका विपलिंदय पंचेदिय, समणा अमणाय पजपजन्ता । थावर-चायर-सुहुमा, मणवयकापण रक्खिव्वा ॥२॥ छतीसग्गाहाए, जो पठइ सुणइ भत्तिभारणं । सो णरु जाणइ वंधो, मोक्खो पुणुणाणमउ होदे ॥ ३७॥ जो जाणइ अरहन्तो, चस्स गुणत्थपजयत्वेहि । सो जाणदि अप्पाणं, मोहोखुभुजाइ तस्स लयं ॥ ३८ ॥" आगे भट्टारक सकलकीर्ति-विरचित 'सद्भापितावली" लिखकर 'टंडाणा रास' लिखा गया है, जिसके नमूने इस प्रकार हैं: "तूं स्याणा तूं स्थाणा जियड़े तूं माणा वे। दसणुणाणुचरणुअपणु गुण क्यों तजि हुवा अयाणा वे ॥१॥ मोहमिथ्यात पडिउ नित, पखसि चहुंगति-मांहि यंमाणा वे। नरकगतिहि दुषछेदणु, भेदणु ताडण ताप सहाणा वे ॥२॥ धर्मसुकल धरि ध्यानु अनूपम, लहि निजु केयल नाणा वे। जपति दास भगवती पावहु, सासउ सुहुनिव्वाणा वे ॥४॥ इन्हीं कवि भगवतीदास जी की और कई रचनायें इसी गुटके में आगे दी हुई हैं। यह कवि और मैया भगवती दासजी एक हैं, यह नहीं कहा जा सकता और जो प्रशस्ति इस गुटके के लिपि-संबन्ध में दी हुई है, उससे इनका समय वि० सं० १६८० और निवास स्थान सहजादिपुर नगर मालूम होता है। सनरहवीं शताब्दी की हिन्दी-पद्यरचना में इनकी कवितायें भी उल्लिखित की जा सकती हैं। इनके नमूने यथाक्रम आगे देखते चलिये । “वनजार" शीर्षक रचना भी इन्हा को रची हुई है। जिसके नमूने ये हैं: "चतुर वनजारे हो नमणु करहु निणराइ, सारद-पद सिर भ्याइ, ए मेरे नाइक हो ॥१॥ चतुर वनजारे हो कायानगर ममारि, चेतनु वनजारा रहह मेरे नाइक हो । सुमति-कुमति दो नारि, तिहि समनेहु अधिक गहइ मेरे नाइक हो ॥२॥ चतुर बनजारे हो तेरह म्रिगनैनी तिय दोई, इक गोरी इक सांबली मेरे नाइक हो। तेरी गोरड काज सुलोह, सांवल हह लडवावली मेरे नाइक हो ॥ ३ ॥ चतुर वनजारिन हो गुरु मुनि माहिदसैन दरसानि तिहं सुषु पाइए मेरी सुन्दरि हो । दूरि किया तिनि मैंनु तासु चरनि लिबलाइए मेरे नाइक हो। चतुर बनजारे हो सिहरुजादिनगार-ममारि । दास भगवती यौं कहा मेरे नाइक हो। जे गावहि नर-नारि सिवपुरि सासउसुष लहई मेरे नारक गे ॥ ३ ॥" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 भास्कर "वीर जिनेसुर नमनु करिवि । सारद सिर न्याऊ । पन्द्रह तिथि जगि वरत- सारु तिस रासा गांऊ ॥ १ ॥ जंबूदीवहं भरत, चंपापुर जाणी । धाड़ी वहु त्रिपु अङ्गदेसि पदमावति राणी ॥ २ ॥ गुरु मुर्णिमा हिंदसेण चरण नमि रासा कीया । दास भगवती अगरवालि जिणपद मनु दीया ॥ २१ ॥ पढ़हिं गुणहिं सुणि मग धरहिं, तिन्ह पाउ पणासह रिउ सोउ लुहु कष्टु हरद्द धरि संप्पर वास ॥ २२ ॥” तीसरी रचना “दसलाक्षणी रासा" है और वह यह है : - " तणरुह नाभिनरिंद नमौं, सारद पण मेसउ । दहलक्खा जगिधम्मसारु सिंह रासु भोसउ ॥ १ ॥ जंबूदीवह भरहषेति, मागध छै देखो। रायग्रही पुरियहु सुजाणु सेणिउजु नरेसो ॥ २ ॥ अष्टकरम हरिण मोषि गये, तजि चहुंगति दुक्खो । नंतचतुष्टय सोलहि अविनसुर सुक्खो । अवर कोइ नरुनारि इहो, व्रतु मणवच - काइरसी । राजरिद्धि सुहुसिध लहि भवसायरु तरसी ॥ ३३ ॥ गुरु मुणिमाहिदंसैंणु नामु मुणिचन्दु भणीजइ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat t इसके बाद इसमें 'तत्वाथ -सूत्र' जी लिपिबद्ध किये हुए हैं । और फिर भगवतीदास जी . की रचनायें मिलती हैं । सबसे पहले 'आदितत सा' लिखा हुआ है । नमूने यों देखिये:"आदि जिनेसुर नमसकरी, सारद पण स्यों । विव्रत कथा विधारि घाइ, लहु रासु करेसउ ॥ १ ॥ वानारसि परपालु निवो मतिसागर साहो । धरि गुण हुन्दरि सातपूत छह किया विवाहो ॥ २ ॥ गुरु मुणिचन्द पसाइ किया यहु रासु विचारी । दास भगौती भइ सुमुहु भवियण मिण धारि ॥ १६ ॥ पढ़हिं गुणहिं सुणि सद्दहर, रवित्रत चितु लावंद | राजरिद्धि नर अमर - सुखु सिवरमणों पावहिं ॥ २० ॥” दूसरी रचना 'पखवाडे का रास' है और उसके नमूने ये हैं: भाग है , www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्राचीन गुटका तिहुं पसाइ इहु रासु किया, दुहु-दुगति-निवारण । पढ़र्हि गुणहिं सुणि सद्दहहि, तिन्ह सिवसुहु करणु ॥ ३४ ॥" चौथी रचना “ग्यारह अनुप्रेक्षा है, इसके नमूने भी यों देखिये: "अवधू जाणिए होधू किछ देषिय नाहि, कि रुचि मानि पहो, विहुडई जो षिणमाहि । षिणमाहि जाहि विलास-मन्दिर, बंधुसुत-वित अति घणा । जल-रेह-देह-सनेहु तिय-दामिनि दमक जिउ जोवनां ॥ जिस हति जात न वार लागइ, बुलबला लि पेषिए । अवधू परिक्ष कहो जिअ सिउ-धून किछ जगि देषिए ॥१॥ भवि भवि भाविए हो रत्नत्रय-गुण-शानु । अप्पा माइए हो धम्म सुकल धरि ध्यानु ॥ मनि ध्यानु जिनवर होउ भवि । भवि गुरु दिगंव्वरु पाइए । सन्यास-मरना अप्प-सरणा सील सिउ लिव लाइए ॥ छंडहु सदा मनि-राग-दोसहुं, देउ जिणवरु झाइए । कवि कहि भगवती दास सिव-सुषु ऐहु भवि २ भाविए ।॥ १२॥" पांचवीं रचना "षीचडी रासा" है और वह इस प्रकार प्रारम्भ होता है: "पंच परम गुरु वंदिवि सारद नमणु केरि। पिचड़ी रासु पयामिनि सुणहु भाउ धरि ॥१॥ जिण विणु जपु नवि सोहहत पुन बिवं भविनां । तव विणु मुणि नवि सोहइ, पंकजु अम्भ विनां ॥२॥ समकित विणु वरतु न सोहइ, संजमु धम्म विनां । दया विण धम्म न सोहइ, उदिमु कर्म विनां ॥ ३ ॥ सकलचन्द भट्टारक उत्तम घिमांधरो। तासु पट्टि वयमंडिय मुणि मुणिचन्दवरो॥ तासु पसाए रासा पिचड़ी उत्तियऊ ।। होइ भूरि सुहु-संघह भणइ भगौतियऊ ॥ ४०॥" छठी रचना "अनन्तचतुर्दसी चौपाई" है और वह इस प्रकार है: "प्रथम नमो जिणवर आदीसु। बड्डमाण जिण न्याऊ सीसु ॥ पुणु पुपुयणविवि सारद माइ । गोरम गणहर लागौं पार ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 भास्कर -- जंबूदीउप सिद्धउ लोइ, भरहर्षित्तु दाहिणि दिसि होइ । मगध देसु देसनि-परधानु, गांनभमंडिल सोभद्द भानु ॥ २ ॥ पुव्व पुराणि भणि मुणि आसि, ते सुणि भणिअ भगवती दास । पढ़हि गुणहिजै भवियण लोइ, मुकति-सिरी-फलु पावहिं सोइ ॥ ५० ॥" सातवीं रचना “सुगंधदसमी - कथा" है और उसके नमूने इस प्रकार हैं:"नेमि जिनिंद नमों धरि भाउ, सुमति-सुगति दाता सिवराउ । पुग्नु पणमो सारद सिर न्याइ, रिसि-गुर - गनहर लागौ पांइ ॥ तासु पसाए यह चौपही, दास भगौती लहु-मति कही । पढ़हि गुणहिं जे भवियण लोय, मुकतिसिरी-फल पावहिं सोय ॥ जे नरु सुहिं मणिधरि सुभाउ, भव-भव भूरि पास पाउ ॥ ५१ ॥ " ८ वीं और ९ वीं रचनायें श्रीआदिनाथ और शांतिनाथ जी की बिनती हैं। उनके नमूने भी देखिये : "आदि जिनेसुर देव, नाभिराय -कुल- कमलरबे | तुव त्रिभुवन-कृत सेव, चूरिय कर्म-कलंक सवे ॥ सठि पइडि बिपाइ, केवल सामु उपायतने । धर्माधर्म दिखाइ, वोहिय जीव अवोहघने ॥ १ ॥ X X X गुरु मंखि मांहिदसेणु, रयणत्तय - गुणि- मंडियो । तजि मणिणि अणु, कामु कसाय विडियो ॥ पदपंकज नमि तासु, वीनतड़ी जिणनाह करी । भगत भगवतीदास, शिसुणहु भवियण भाउ धरी ॥ ९ ॥" X X X णाणधरो । अणंगहरो ॥ "परम निरंजणु सोइ, सांति जिणेसरु अवर न त्रिभुवन कोइ, सिंह सम देउ लोहु-कोहु मदु इंडि मोहु-मया तिण पंचमहम्बय-मंडि, उत्तमत्रिमतणि मणि धरिया ॥ १ ॥” परहरिया । X X X "गुरु मुणि माहिंदसैपु तासु चरणजुग वन्दि करी । पाइउ जिण-मगु-रेणु, दास भगौती भाउ धरी ॥ वीनतड़ी यहु लाये, पढ़हिं गुणहिं जे भवियजणा । धामि तिनह धणु होइ, पुणु सिव- सासर- सुक्खधर ॥ १० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ४ www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Form:] एक प्राचीन गुटका ब्रह्म- अगनि परजालि कर इंधन-काम जराउ । कइ वनिता - संग धरि रहो, कई तप-भसम चढाउ || " १० वीं रचना "समाधी रास" है, जिसके आदि-द- अन्न के छन्द यों हैं: - "जिए चौबीसो नमणु करेसउ' वीजद सारद - पथ परामेस्यो ! साधु समाधी -रासु भणेस दुक्ख-कलेस जलंजलि देस ॥ x X गुरु मुणिचन्द-च -चरण चितु लावा, दास भगवती रासा गावा | अवर भविकु जो पढ़इ पढ़ावर, सो मणवंत्रिय संप्पर पावर ॥" ११ वीं रचना "आदितवार कथा" है, उसकी भी बानगी देख लीजिये: X X "सयल जिण हंयय पणविधि सरसय जमलु करे । रवित्र वरिय पयासमि निसु राहु भाउ धरै ॥ १ ॥ जंबूदी उप सिद्धउ, भरपितु जहां | वाणारसि नयरिपुपु निउ पइपालु तहां ॥२॥ X X सकलचंदु भट्टारगु सम्यग णाण-धरो | तासु पट्टिवयमंडिय मुणि मुणिचन्दवरो | तासु चरण नमि भविय हुहुमय उत्तिय । होउ कुसल वोसंघ भगह भगोतियऊ ॥ ४५ ॥ १२ वीं रचना “चुनड़ी मुकमिणी" की है, जिसके नमूने मी देखिये. - त्रिपे, मनवयकामति सुद्धि हो । "आदि जिनेस सारद-पय पणमंड सदा, उपजह निरमल बुद्धि हो ॥ मेरी मुकति-रमणि की चूनड़ी, तुम जिनवर देहु रंगाइ हो । त्रिम वह सिय- पिय- सुन्दरी, अरुन अनूपग लाल हो ॥ मेरी भवितारण खूनड़ो ॥ १ ॥ समकित वस्तु विसाहिले, ज्ञानसलिल संगि मेइ हो । मल पचीस उतारिये, दिढ़ मनुं साजि देइ हो ॥ मेरी कति रमणी की चूनड़ी तुम जिनवर देहु रंगाइ हो । मेरी भवजल-तारण चूबड़ी ॥ २ ॥ X X. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat X 959 www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्कर मुकति-रमणि रंगि सो रमर, बसु-गुण-मंडित सोइ हो । नंतचतुष्टय सुषु घणां, जम्मणु मरणु न होइ हो ॥ मेरी मुकति० ॥ गुरु मुनि माहिदसैनु हुइ, पदपंकज नमि तासु हों। सहरि सुहाबइ बूडिए, भनत भगौतीदासु हो ॥ मेरी मुकति०॥ राजबलि जहांगीर कह फिरिय जगति तिस आण हो । ससिरसवसुविंदा धरहु संवतु गुणहु सुजान हो॥" १३ वी रचना "योगी रासा" है और वह इस प्रकार है: "परम निरंजनु, भवदुह-भंजनु जिनु-जोगी जग-नाथो । आदि जगद गुरु मुकति-रमणि यरु ताहि नवाऊ माथो ॥१॥ बोध दियायर गणहर हुएते नमि पणमौं पाया । साहु-सिरोमणि लोहावारजु जिनि जिणमग्गो बताया ॥२॥ पेषहु हो तुम पेषहु भाई, जोगी जगमर्हि सोई। घट-घट-अन्तरि बसइ चिदानन्दु अलषु न लषद कोई ॥३॥ भव-वन भूलि रह्यौ भ्रमिरावलु, सिवपुर-सुधि विसराई । परम प्रतिदिय सिवसुषु तजि करि विषयनि रहिउ लुभाई ॥ ४॥" "नंतचतुष्टय-गुण-गण राजहिं तिन्ह को हउ बलिहारी । मनि धरि ध्यानु जपहु शिवनाइक, जिउ उतरहु भवपारी ॥ ३७॥ "जोगीरासौ सुणहु भविकजणं, जिउ तूटहिं कर्मपासो। गुरुमुणि माहिदसेन-चरण नमि भनत भगवतीदासो ॥ ३८॥" १४ वी रचना "अनथमी' शीर्षक इस प्रकार है। "नवे पिण सामिय वीर जिणिद, तिलोय पयासण-बोह-दिणिंह । पयत्थंह भाषणणेय पयार, गणिंद नमामि भवोवहितार ॥१॥ सुरिंद नरिह समुच्चिय जाणि, सयपणमामि जिणेसर-चाणि, पयासमि गुणु अणथमिय सुलोइ । सुणेहु तु सावयणिश्चल होर ॥२॥ मुर्णिदु जनिंदु महिंदजिसँनु जिणि उरणि दुर्द्धर दुर्जय मैंनु । गमों पर-संकज मणावर तासु, सुपंडित भगा भगवतीदाख ॥ २६ ॥" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्राचीन गुटको १५ वीं रचना 'मनकरहा रासु' है और उसके नमूने इस प्रकार हैं: - ३ 1 "मन करहा जगवनिमहिं भ्रम्यों, चरत विषद् - बन राइ रे | चहुंगति चहुंदिस सो फिर भवतरवर - फल बाई रे ॥ मन० ॥ १ ॥ भरे लख चौरासी महिं रुल्या, करहलु पंचपयारी रे। सुरनर - पसु - जोणिहिं फिरिऊ, नरय गयो बहुवार रे ॥ मन० ॥ ३ ॥ जरे नित्य इतरंजु निगोदहीं, सात-सात लष मांही रे | वसु-दस जम्मण-मरण तहां, समझ समझ जुलहाई रे ॥ मन० ॥ ३ ॥ X X X अरे जब जियss सिवपुरु लह्यो, जम्मणु-मरणु न होइ रे । नंतचतुष्टय सुषु घणणं, बसुगुण-मंडित सोई रे ॥ मन० ॥ २४ ॥ गुरु मुनि मादिसैनु हद्द, पद-पङ्कज नमि तासो रे | सहरि भइ सहिजादपुर, भनत भगौती दासो रे ॥ मन० ॥ २५ ॥” १६ वीं रचना 'वीरजिन्दि - गीत' शीर्षक है. जिसके आदि - अन्त के छन्द इस प्रकार हैं: "वीर जिनिंद - समोसर णि जो विपुलाचल गिरि थानि । मेघकुमारि वैर गिओजी, सुनि गुरु गऩहरवानि ॥ मनोहर धरमि महाव्रत यारु, यह संसारो असारु री माई, धरमि महाव्रतभारु ॥ ११ ॥ नवजोवन तू बालिकोजी, अति दुई र जाऊ जोग । बसु रमणी गयगामिणी जो, बहुबिह भुगवद्दु भोगु ॥ - कुमरजी संजुमु दुरद्धरभारु ॥ २ ॥ गुरु मुनिमदिन नमि जी, भनत भगवती दासु । जे नर-नारी गावहिं जी, तेतो उहि कर्मपासु ॥ परम गुरु धनि संयम धारु ॥२२॥ | " १८३ १७ वीं रचना “रोहिणीत रासु" है और उसका आदि अन्त इस प्रकार है:"पणविवि वीर-वरण गुरुगण गणहरु, अरु सारद सिर न्याऊ । रोहरिणा - विधिरासु अनुपम, मणवत्रि रुचिकर गांऊ' | भविक जण ॥ तासु पसाइकियो मह लहुमति, गेहणिव्रतविधि रासो | अगरवाल अरगल पुर पहणि भनत भगौतीदासो ॥ ४२ ॥" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्कर । भांग १८ वी रचना 'ढमाल राजमती-नेमीसर' का है और उसके नमूने ये हैं : "पंच परम गुरु वंदिवि करि सारद जयकारु । गुरुपद-पंकज पणमौं, सुमति-सुगति-दातारु ॥ सोरठि देसु भला सब देसनिमइ परधानु | महिमंडलि इ राजति जिउ नभ-मंडलु भानु ॥१॥ तहिं नवरी द्वारावति वन-उपवन-आराम । इन्द्रपुरी सुविसेषति हेमरत नई धाम ॥ कंवल-अछादिति बावरि, सीतर बारि रसाल। कूप घने जलपूरित पदमसहित ,सरताल ॥२॥ x x कोटि जतन कोई करिहौ जीवनु सो नित नाहिं। तनु-धनु-जीवनु बिनसह कीरति रहइ जगमांहि ॥६॥ मुनि माहेन्द्रसैन गुरु तिह जुगचरन पसार | भाषत दास भगवती, थानि वपिस्थलि आइ ॥ ६१ ॥ नर-नारी जे गावहिं सुणहि, चतुरदे कानु। भोगवि सुरनर सुहफल पांवहि सिवपुर थानु ॥ ६२॥" १९ वो रचना 'सज्ञानी ढमाल' है और वह इस प्रकार लिखा गया है: "यहु सहानी जीउ जणि अवाणु हुवा हो। धुव दीनों विसराइ राच्यौ तन अधु वाहो ॥ ऐकु तजि विसुषं रेनु, निसि-दिन ऐकु किया हो। ऐक बिना जगमाहि, बहु दुष ऐकि दियो हो ॥१॥ जगमहिं जीवनु सुपना. मन-मनमथु परहरिपे।। लोहु-कोहु-मद-माया, तजि भवसायरु तरिणे ॥ मुणि माहेन्द्रसेणि इह निसि प्रणामा तासो । थानि कपिस्थलि नीकइ भनति भगौती दासो ॥२॥" इस तरह ये रचनायें कवि भगवतीदास जी अग्रवाल की हैं। इनमें आपने जो अपने बारेमें उल्लेख किया है उससे प्रकट है कि देश-विदेश में विहार करते धर्मसाधनमें लीन थे। आप सहजादिपुर के निवासी थे और संकिसा तथा कपिस्थल में भी आकर रहे थे। अन्तिम दोनों ग्राम जिला फरुखाबाद के संकिसा और कैथिया नामक गाँव हैं। सहजाविपुर भी वहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन ] एक प्राचीन गुटका ५८५ कहों होगा। इन रचनाओंसे हिन्दी-साहित्य की प्रगति और हिन्दी के उत्पत्ति-क्रम पर प्रकाश पड़ता है। ये रचनायें अपभ्रंश-माषा और १८ वीं-१९ वीं शताब्दी के बीच की लड़ी हैं। इनसे स्पष्ट है कि किस प्रकार अपभ्रंश से पलटते-पलटते हिन्दी की आविर्भूति हुई । सचमुच जैन-साहित्यभाषा और इतिहास-सम्बधी नवीन प्रकाश उपस्थित करने से अमूल्य प्रतीत होता है। आगे इस गुटके में 'सोलहकारणवत रास' इस प्रकार दिया हुआ है: "वीर जिणेसर वसास करी गोयम पणमेसउ । मोलहकारण चरत-सार तहि रासु कंग्सउ ॥ जंबूदीवह भारतपेत मगध छइ देस । राजगृह छ। नगर हेमप्रभ राजधनेस ॥ १ ॥ एक चित्तु जो व्रत कर नम अहवा नारी । तीर्थकर-पाद सो लहइ जो समकित धारी ॥ सकलकीरति मुनि रासु कियउ ए सोलहकारण | पदहिं गुणहिं जे संख लहि तिह सिवसुह कारण ॥" . इसके बाद 'जीवसुलक्षण' लिखा हुआ है, जो इस प्रकार है: “जीव सुलक्षणा हो, जिणवर भासिउ एम | परिग्रहा पाहुणा हो विहाड़इ सुरधरमु-जेम ।। विहंडतु सुर घणु जेम परिगहु, कहा तिस सिउ रचइ | नित ब्रह्मलोक विचारि हीयड़ा दुष्ट कम्महं वंच॥ पिय पुत्त-बंधुवसयलु अवधू रूप रंगण देषणा । संवेग-सुरति संभालि थिरुमति, सुणउ जीव सुलक्षणा ॥ हंसा दुर्लभी हो, मुकति-सरोवर तीरि, । इन्दिय चाहिया हो पीवत विषयहनीर ॥ अति विषयनीर पियास लागी, विरह व्यापति आकुल्यो । बारह अनुप्रता-सुरति छड़िय, एम भूलौ बावलो॥ अब होउ ऐतउ कहउ तेतउ, सुम्भद्धवंसहं-जन्मण । सन्यास-मरणउ अप्प-सरणउ परम रयणन गुणु ॥" उपरांत केवली और यंत्र देकर गुटका समान किया गया है। इस तरह इस गुटके का परिचय है। इति 3० सं०४-६-२३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनज्योतिष और वैद्यक-यन्ध अनुपूर्ति (ले०-श्रीयुत बाबू अगरचन्द नाहटा) भास्कर के गत अङ्क में "जैनज्योतिष और वैद्यकग्रन्थ' शीर्षक मेरा लेख छपा है, उसमें श्वेताम्बर-वैद्यक-ग्रन्थ कोई प्रकाशित नहीं हुआ लिखो गया था, पर अभी हर्षकीर्ति-कृत योग-चिंतामणि ग्रंथ गुजराती अनुवाद-सहित प्रकाशित देखने में आया है एवं पं० मगवान दास जो (जयपुर) से कई एतद्विषयक अन्य जैनग्रंथों का पता लगा है, अतः नीचे उनकी सूची दी जाती है : ज्योतिष-स्वप्न सामुद्रिक-ग्रन्थ १ भुवनदीपक टीका (रत्नदीपक) ... खरतर रत्नधीर-कृत सं० १८०६ । २ तिथिसारणी .... पार्वचंद्रगच्छीय बाघ जी मुनि १७८३ । ३ प्रश्नव्याकरण (जयप्राभृत) ४ गार्ग्य संहिता ... गर्गमुनि (मूल प्रति अपूर्ण, मद्रास ओरियण्टल लायब्ररी) ५ हस्तकाण्ड ... पार्वचंद्र ६ शकुनावली .... सिद्धसेन (बड़ौदा) ७ स्वप्नचिन्तामणि ... दुर्लभराज (हमारे संग्रह में मी है) ८ स्वप्रप्रदीप ... वर्द्धमान सूरि (हीरालाल हंसराज-द्वारा मुद्रित) ९ शकुनरत्नावली ... , (बड़ौदा) १० सामुद्रिक-लक्षण ... लक्ष्मीविजय , ११ सामुद्रिक ... अजयराज , १२ , ... रामविजय , १३ रमलशास्त्र ... भोजसागर , १४ रमलसार ... विजयदान सूरि , १५ सामुद्रिकमाषा ... खर० रामचंद्र सं० १७२२ मेहरा में हिन्दी में रचित (बीकानेर मा०) १६ न्योतिः-प्रकाश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किर १ ज्योतिष- सारोद्धार चौ० २ लीलावती चौ० १ महादेवी - दीपिका २ जातक दीपिका ३ जातकपद्धति ४ विवाह-पटल अर्थ आयसद्भाव प्रकरण १ २ अर्धकांड ३ रिट्ठसमुच्चय ४ जिनसंहिता ५ गणितसार सटिप्पण १ कालक-संहिता २ भद्रबाहु संहिता प्रा० ३ चातुर्मासिक कलंक १ वैद्यकसार-संग्रह २ वैद्यमनोत्सव ३ कोकशास्त्र चौ० ४ रसामृतश्री जैनज्योतिष और वैद्यक प्रन्थ जैनेतर ग्रन्थों पर जैन टीकाएँ गणित आनंदमुनि १७३१ धनराज खर० हर्षरत्न सं० १७६५ जिनेश्वरसूरि (जैन ज्ञान-मंदिर, बड़ौदा ) ... खर० विद्याहेम सं० १८३७ दि० ज्योतिष - ग्रन्थ मलिषेण दुर्गदेव मुनि • दुर्गददेव सं० १०८९ एकसंधि भट्टारक 010 ... ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अनुपलब्ध ... खर० लाभवद्ध न १७३६ ... • भद्रबाहु ४ तिथिकुलक ५ मेघमाला - विजयहीर सूरि श्वेतांबर वैद्यकहर्ष कीर्त्ति -ग्रन्थ अंचल नयनसुख ... महावीराचार्य ज्योतिष-ग्रन्थ कालकाचार्य ... बुदाचार्य माणिक्यदेव दि० वैद्यक १ हितोपदेश (गु० अनुवाद - सहित मुद्रित ) जैनेतर वैद्यक ग्रन्थ पर जैन टीका १८० १ योगशतक टीका, मूल वररुचि टीका समंतभद्र (जैनेतर ?) नोट-गत अंक में प्रकाशित लेख में पृष्ठ ११४ लाईन तीसरो से ६ प्रन्थों का नाम 'जैनेतर ग्रंथों पर जैन टीकाए" शीर्षक के नीचे आना चाहिये । सन्निपात कलिका टा कर्त्ता हेमनिधान सं० १७०३ और कविप्रमोद सं० १७६६ होना चाहिये । शास्त्री जी के सूचित ग्रन्थों में १ ज्योतिषसार २ योगचिंतामणि श्वे० ग्रंथ हैं । अष्टांगहृदय का कर्त्ता जैनेतर है। www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ farer fore " नैषधीय चरित" में जैन धर्म का उल्लेख [ १ ] संस्कृत साहित्य में 'नैषधीयचरित' का भी अपना खास स्थान है । उसकी गणना कालिदास, मट्टि, भारवि और माघ के महाकाव्यों से भी उच्च कोटि में की जाती है । कहते हैं। कि यह श्रीहर्ष की रचना है और उसका समय ईस्वी बारहवीं शताब्दो का अन्तिम चरण है । इस महाकाव्य में नल-दमयन्ती की कथा सरस रीति से वर्णित है । कवि ने जैनधर्म-विषयक उल्लेख देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके समय में जैनधर्म का प्राबल्य अधिक था । " नैषधीयचरित" के प्रथम सर्ग में इन्होंने लिखा है : - "चमूचरास्तस्य नृपस्य सादिनो जिनोक्तिषु श्राद्धतयैव सैन्धवाः 1 विहारदेशं तमवाप्य मण्डलीमकारयन्भूरितुरंगमानपि ॥ ७१ ॥ ' अर्थात् — “जिनेन्द्र भगवान के वचनों में श्रद्धा न रखनेवाले सिन्धुदेश के रहनेवाले जैन लोग विहारस्थल में बहुत से जैनों को बलयाकार बिठाते हैं अर्थात् मध्य में मुनीश्वर बैठते हैं और उनके चारो ओर जैनी बैठते हैं । सो जिस तरह वे नल के सैन्यलोक मो अपने घोड़ों को बलायाकार घुमाते हैं ।" बलयाकार बिठाते हैं उसी तरह इस उल्लेख से दो बातें स्पष्ट हैं (१) जैनों के उपदेश की प्राचीन रीति तब भी प्रचलित थी ( २ ) और तब सिन्धुदेश में जैनधर्म का अच्छा प्रचार था । सिन्धुदेश के इतिहास 'चचनामा' में सातवीं शताब्दी ई० में श्रमणों को सिन्धुदेश का राज्याधिकारी लिखा है । उसमें यह भी लिखा है कि जब मुहम्मद कासिम ने सिन्धुदेश पर आक्रमण किया तो श्रमणों ने उससे सन्धि करनी चाही। उन्होंने कहा कि हमारा धर्म शांतिमय है- उसमें हिंसा करना, लड़ना और खून बहाना मना है । उन्होंने यह भी कहा कि हमारे शास्त्रों में यह पहले ही ज्योतिष के आधार पर कह दिया गया है कि अब हिंदुस्तान में ( म्लेच्छों ) मुसलमानों का राज्य होगा | सिंधु देश के इन श्रमणों के इस कथन से उनका जैनी होना संभव है, क्योंकि उपरांत जैनियों ने अहिंसा के स्वरूप को ऐसे ही विकृत रूप समझे बैठे मिल जाते हैं । जैन ग्रंथों में यह भी घोषित किया गया है कि पंचमकाल में भारत में म्लेच्छों का राज्य होगा । उधर ११वीं - १२वीं शताब्दियों में वहाँ जैनधर्म का प्राबल्य मिलता ही है। परंतु इतिहास - * Keith; “ Classical Sanskrit Literature" ( Heritage of India Series) p.p. 58-59. t. Elliot; History of India ( London 1867), p. 147, 4. Ibid, pp. 158-161. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरख ३] विविध विषव लेखक इन श्रमण लोगों को बौद्ध प्रकट करते हैं। अत एव यह आवश्यक है कि तत्कालीन साहित्य 'चचनामा' आदि का सूक्ष्म अध्ययन किया जाय और देखा जाय कि उनमें श्रमण शब्द किन लोगों के लिये व्यवहन हुआ है। विज्ञप्रि-त्रिवेणी' आदि जैन ग्रंथों से भी सिंधुदेश में जैनधर्म का प्रावल्य स्पष्ट है। उपर्युक्त उल्लेख के अतिरिक्त "नैषधीयचरित" के सर्ग ९ श्लोक ७१ और सग १३ श्लोको ३६ में भी जैनधर्म का सामान्य उल्लेख है। 'प्रशंसितुं संसदुपान्तरं जिनम्, श्रिया जयन्तं जगतीश्वरं जिनम् । गिरः प्रतस्तार पुरावदेवता, दिनान्तसन्ध्यासमयस्य देवता ॥' (नेपध स्गं १२, श्लो०८७ ) नैषध के इस इलोक में जैनधर्म का स्पष्ट उल्लेख है। --का प्रम "जैन ऐन्टीक्वेरी” के लेख (सितम्बर १९३७) [२] १ प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने जैनधर्म में योग का स्थान क्या है ? यह बताया है। इस लेख का सार हिंदी भाषा में 'रायचन्द्र-ग्रंथमाला', बम्बई में प्रकाशित 'परमात्म-प्रकाश की भूमिका में दिया गया है। २ डॉ. सुकुमार रजन दास, एम०ए०, पी०एच०डी० ने जैनज्योतिष पर लिखते हुए बताया है कि वह ज्योतिष वेदांग के समान है। जैन ज्योतिष में युग पांच वर्षों का माना गया है और उसका प्रारंभ अमिजित नक्षत्र से होता है। इस युग में ६० सौर्यमास, ६१ ऋतुमास, ६२ चान्द्रमास,६७ नक्षत्रमास होते हैं। एक युग में चन्द्र की अभिजित नक्षत्र से ७ बार मेंट होती है और सूर्य का समागम सिफ पाँच दफा होता है। जैनज्योतिष में महीनों के नाम निम्न प्रकार है :प्रचलित नाम जैनग्रंथ प्रचलित नाम जैन नाम १-श्रावण अभिनंदु ७-माघ शिशिर २-माद्रपद सुप्रतिष्ठ ८-फाल्गुण हैमवाम् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० भास्कर श्रेयान् [ भाग ४ प्रचलित नाम जैनग्रंथ प्रचलित नाम जैन ग्रंथ ३-अश्वयुज विजय ९-चैत्र वसन्त ४-कार्तिक प्रीतिवर्द्धन १०-वैसाख कुसुमसंभव ५-मार्गशोर्ष ११-ज्येष्ठ निदाघ ६-पौष्य शिव १२-आषाढ़ वनविरोधी संवत्सर चार प्रकार के हैं (१) नक्षत्र-संवत्सर, ३२७+3 दिन; (२) युग-संवत्सर पाँच वर्ष; (३) प्रमाण-संवत्सर, (४) शनि-संवत्सर। तिथियाँ दिन और रात की अलग हैं। ___ ऋतुयें पॉच हैं-(१) वर्षा (२) शिशिर (३) हेम (४) वसन्त और (५) गरमी। ऋतुओं का प्रारंभ आषाढ़ मास से होता है। युगसंवत्सर का प्रारंभ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से होता है। कौटिल्य के समय में वर्षे का प्रारंभ आषाढ़ के अंत से होता था। ३ "जैन क्रोनोलोजी' शीर्षक लेख में जैन संघ की पौराणिक समयानुवर्ती घटनायें अङ्कित हैं। ४ प्रो० शेषगिरि राव ने जैनों के धार्मिक आदर्श पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है । वह आदर्श अर्हत् पद को प्राप्त करना है; जिसे आप वैदिक आदर्श 'ब्रह्मसिद्धि' और बौद्धों के आदर्श "निर्वाण-सिद्धि" के अनुकूल समझते हैं। आप की मान्यता है कि जब इन सम्प्रदायों को वेद-वाह्य कहा जाता है तब उनके इस मौलिक सादृश्य को नज़र अन्दाज कर दिया जाता है। .. इस समय इन प्राचीन धर्मों का अध्ययन समन्वय दृष्टि से करना आवश्यक है। वेदों में होम शब्द पशुओ के होमने के लिये प्रयुक्त हुआ है- उसके माने आत्मक्षेत्र में कुछ और हो हो जाते हैं। जैनस्तोत्र 'अहमादिभक्तिः' में उसे अहंकार को नाश करनेवाला कहा है। इस स्तोत्र का अंतिम वाक्य 'ब्रह्म विदन्ति परम् ये' हमें औपनिषदिक उक्ति 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' की याद दिलाता है। जैनस्तोत्र 'आचार्यभक्ति' में मुक्ति-सौख्य का उल्लेख है। म० बुद्ध का धर्मान्वेषण इसी मुक्ति-सौख्य के लिये था और उन्होंने उसे 'निर्वाण' कहा। कई जैनस्तोत्रों के उद्धरणों से यह बात सिद्ध है। अन्त में प्रो० साहब लिखते हैं कि प्राचीन जैनधर्म वीरतापूर्ण योगमार्ग को मोक्षसुख पाने के लिये आवश्यक ठहराता है। क्या भरतखंड के वैदिक सनातनी देखेंगे कि जिस 'संयमयोग' का विधान जैनस्तोत्र 'वीरस्तुति' में है, ठीक वही शिक्षा 'भगवद्गीता' के प्रारंभिक छै अध्यायों में है ? ५ जर्मनी के प्रो० हेल्मुथ फान नासेनप्प ने तांत्रिक बौद्धमतानुयायियों के "आर्याम - श्री-मूलकल्प” नामक ग्रंथ के दूसरे परिव्रत में म० ऋषभदेव का उल्लेख हुआ बताया है। उम मण्डल में लिखा है कि :-.: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] विविध विषय "कपिल मुनि म ऋषिवरो, निर्ग्रन्थ-तीर्थङ्कर ऋषभः निर्ग्रन्थरूपी ।” एक मण्डल की माग्यरचना में जिन महापुरुषों ने भाग लिया था उनका वर्णन करते हुए बौद्ध ऋषमदेव जैसे महापुरुष को भुला ही कैसे सकते थे ? उक्त ग्रंथ का चीनी भाषा में अनुवाद सन् ९८०-१००० ई० में हुआ था। ग्यारहवीं शताब्दी में वह तिब्बत की भाषा में अनुवादित किया गया था। ५ जेकोस्लोवेकिया के प्रोफेसर अोटो स्टीन ने स्वर्गीय डा० विन्टरनीज का परिचय दया है। विन्टरनीज का जन्म २३ दिसम्बर १८६३ को आस्ट्रिया के होर्न नामक स्थान पर हुआ था। इन्होंने प्रोफेसर बुल्हर के निकट जैनधर्म की शिक्षा पाई थी। "जैनसाहित्य, का अच्छा परिचय आपने अपने "भारतीय साहित्य के इतिहास" में दिया है। खेद है कि तारीख ९ जनवरी, १२३७ को आप का स्वर्गवास हो गया। -कामता प्रसाद SIR Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये. www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्तो मढवीप पंवसन्तभागुण छरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुप्रायदा सोलसजोयणसहस्सबाहल्ला वाणउदिसहस्साहिय पंचराहं लक्खाणमेगूणवंचासभागबाहल्लं जगपदरं होदि ॥३१०॥ = ५९२ ० ० ० ४९ सत्तमभागूणसत्तरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा अजोयणसहस्स सतमपुढवीप बाहल्ला चउदालसहस्साहिय तिराणं लक्खाणमेगूणपंचासभागबाहल्लं जगपदरं होदि ॥३१९॥ ३४४००० पाणि सव्वमेलिदे पत्तियं होदि । अट्ठमपुढवीप सत्तरज्जुप्रायदा एक्करज्जुरुंदा अजोयणबाहल्ला सत्तमभागाहियेयज्जोयणबाल्लं जगपदरं होदि ॥ ३१२ ॥ ४९ ८ = ४३६४०५६ ४९ पदेहि दोहि खेत्ताणं विदफलं संमेलिय सयललोयंमि अवणिदे' अवसेसं सुद्धायासपमाणं होदि तस्स ठेवणा केवलणाणतिणेसं चोप्सीसादिसयभूदिसं पराणं । णाभेयजिणं तिहुवणणमंसणिज्जं णमंसामि ॥ [ ३१३]॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat एवमाइरियपरम्परागयतिलोय पण्णत्तीए सामण्णजगसख्त्रणिरूपणपण्णत्ती रणाम पढमो महाधियारो सम्मत्तो ||१|| ३३ Confusion of Nos. in all the Mss. 2 अवलोदे (?) www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयंपएणत्ती अजियजिणं जियमयणं दुरितहरं आजवं जवातीदं । पणमिय णिरूवमाणं णारयलोयं णिरूवेमो ॥१॥ णिद्धइणिवासखिदिपरमाणं आउदयओहिपरिमाणं । गुणठाणादीणं चयसंखाउप्पजमाणजीवाणं ॥२॥ जम्मणमरणाणंतरकालपमाणादि एकसमयम्मि। उप्पजणमरणाण य परिमाणं तह य आगमणं ॥३॥ णिरयगदिआउबंधणपरिणामा तह य जम्मभूमीप्रो। णाणादुक्खसरूवं दसणगहणं सहेदुजोणीओ ॥४॥ एवं पण्णरसविहा यहियारा वरिणदा समासेण । तित्थयरवयणणिग्गयणारयपण्णत्तिणामाए ॥५॥ लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा । तेरसरज्जुछेहा किंचूणा होदि तसनाली ॥६॥ मणपमाणं दंडा कोडितियं एकवीसलक्खाणं ।। पासहिं च सहस्सा दुसया इगिदाल दुतिभाया ॥५॥ ३२ १६२२४१२ ३ अथवा उववादमारणंतियपरिणदतसलोयपूरणेण गदो । केवलिणो अवलंबिय सबजगो होदि तसनाली ॥८॥ खरपंकाप्पबहुला भागा रयणप्पहा य पुढवीणं । बहलत्तणं सहस्सा सोल चउसीदि सीदी य ॥९॥ १६००० | ८४००० | ८०००० खरभागो णादवो सोलसभेदेहिं संजुदो णियमा । चित्तादीयो खिदिनो तेसिं चित्ता बहुवियप्पा ॥१०॥ णाणविहवण्णाभो महीउ तह सिलातलाओववादा। बालुवसकरसीसयरुप्पसुवण्णाण वदरं च ॥११॥... भयदंबतउरसासयमणिसिलाहिंगुलाणि हरिदालं। माणपवालगोमजगाणि रुजगंकलंभपदराणि ॥१२॥ तह अंबवालुकाओ पलिहं जलकंतसूरकताणि । चंदप्पहवेरुलियंगेरुवचंदस्सलोहिदकाणि ॥१३॥ रिमा (6); 2 A गुणटा पाठाणादीणं; 3 AB सब; 4 B बहू, 5 सुक्षणाणि (१)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपरणतो बंबय'बगमोअसारग्गपहुदीणि विविहवण्णाणि । जा' होति ति पत्तेणं चित्तेप्ति य वरिणदो एसो ॥१४॥ पदावं बहलतं एकसहस्सं हवंति जोयणया । तीए हेढा कमसो चोइस रएणय खिदमही ॥१५॥ तयणमा वेरुलियं लोहिययंक असारगल्लं च ।। गोमजयं पवालं जोदिरसं+ अंजणं णाम ॥१६॥ अंजणमूलं अंकं फलिह चंदणं च वश्चगयं । बहुला सेलं इय एदाई पत्तेक इगिसहस्सवहलाई ॥१७॥ ताण खिदीणं हेट्ठा पासाणं णाम रयणसोलसम । जोयणासहस्सबहलं वेत्तासणसण्णिहो संठाउ ॥१८॥ पंकाजिरो दिसदि एवं पंकबहुलभागो वि । अपबहुलो विभाग सलिलसरुवस्सवो होदि (?) ॥१९॥ एवं बहुविहरयणंपयारभरिदो विगजदे जम्हा । रयणप्पहो ति' तम्हा भणिदाणिउहि गुणणामा ॥२०॥ सकरवालुवपंका धूमतमा तमतमं च समचरियं | जेतं (१) अवसेसाओ छप्पुढवीउ गुणणामा ॥२१॥ बत्तीसहावीसं चउवीसं वीस सोलसह च | हेहिमछप्पुटवीणं बहलतं जोयणं सहस्सा ॥२२॥ ३२००० । २८००० । २४०००। २०००० । १६००० । ८००० विगुणियछश्चउसट्ठीसद्विदुविसटिअट्ठचउवण्णा । पहलत्तणं सहस्सा हेहिमपोढवीयछाणं पि॥२३॥ १३२००० । १२८००० । १२०००० | १९८०००। १९६००० । १०८०००। पाठान्तरम् सत्त चिय भूमीउ णवदिसभापण घणोवही विलग्गा | भमभूमी वसदिसभागेलु घणोवहि' छिवदि ॥२४॥ पुन्वावरदिभाए वेत्तासणसंणिहाउ संठाओ। उत्तरदक्खिणदीहा अणादिणिहणा य पुढवीओ ॥२५॥ 15 वग; 2 A B जाहोति तिए नेण ; 3 मसारगल्लं (?); 4 S जोदिस्स; 5कत्यग (?); 6 सेलसमं (१); 7 रणपह त्ति (?); 5 s विलया; 95 वणोवहिं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ तिलोयपएणत्ती चुलसीदीलक्खाणं णिरयविला होति सव्वपुढवीसुं। पुदविं पडिपत्तक्क ताणं पमाणं परूवेमो ॥२६॥ ८४०००००। तीसं पणवीसं-च य पण्णरसं दस तिगिण होति लक्खाणि | पणरहिदेक लक्खं पंच य रयणेइ पुढवीणं ॥२७॥ ३०००००० | २५००००० | १५००००० | १००००००। ३०००००।८८८८५ । ५। सत्तमखिदिबहुमज्झे बिलाण सेसेसु अप्पबहुलत्तं । उवरि हेतु जोयणसहस्समुज्झीय हवंति पडालकमे (१) ॥२८॥ पढमादिबितिचउक्के पंचमपुढवीए तिचउक्कभागतं । अदिउणहा णिरयांबला तट्ठियजीवाण तिव्वदाघकग ॥२९॥ पंचमि खिदिप तुरिमे भागे छट्ठीय सत्तमे महीए । अदिसीदा णिरयबिला तहिदजीवाण घोरसीदयरा ॥३०॥ बासीदि लक्खाणं उगहबिला पंचवीसदिसहस्सा। पणहत्तरं सहस्सा अदिसीदि बिलाणि इगिलक्खं ॥३१॥ ८२२५०००। १७५००० । मेरुसमलोहपिंडं सीदं उण्हे बिलंमि पक्खित्तं । ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे मयणखंडं व ॥३२॥ मेरुसमलोहपिंडं उहं सीदे बिलम्हि पक्खितं । ण लहदि तलं पदेसं विलीयदे लवणखंडं व ॥३३॥ अजगजमहिसतुरंगमखरोट्टमजारअहिणरादीणं । कुधिदाणं गंधेहिं णियरबिला' ते अणंतगुणा ॥३४॥ कक्खकवच्छुरीदो(?) खइरिंगाला तिक्खसूईप । कुंजरचिंकारादो णिरयबिला दारुण तमसहावा ॥३५॥ इंदयसेढीबद्धा पदण्णया य हवंति वियप्पा। ते सव्वे णिरयबिला दारुणदुक्खाण संजणणा ॥३६॥ तेरसएक्कारसणवसरापंचतिएक ईदया होति । रयणप्पहपहुदीसु पुढवीसु प्राणुपुवीए ॥३०॥ १३ | ११ । ९ । ७।५।३।१ [ AS स्ययोह; 2 बिनाणि; 3 पडल (?); 45 पुढवीय; 5 षट्ठीए (१); 6 अविसीद (१), 7 गिरबविला (2); 8 चिकारादो (१)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती पदमम्हि इदयमिह य दिसासु उणवण्णसेढिबद्धा य | प्रडदा विदिसासु विदियादिसु एकपरिहीणा ॥ ३८ ॥ ४९ ४९ ४८ ४५ ४८ ४९ Ye ४९ एक्कततेरसादी सत्तसु ठाणेसु मिलिदपरिसंखा । उण्वराणा पढमादो इंदयपडिणामयं होंति ॥ ३९ ॥ सीमंतगो य पढमं गिरयो रोग य मंतऊभंता । संभंतयसंभंत' विभंता तथ तसिदा य ॥४०॥ वक्कंतयवक्ता विक्कंतो होंति पढमपुढत्रीए । थगो तणगो मणगो वणगो दाघो य संघादो ॥ ४१ ॥ जिम्बाजि-बगलोला लोलयथण लोलुगाभिधारणा य । पदे बित्रियखिदीप एक्कारस इंदया होंति ॥ ४२ ॥ ११ तेत्तो' सीदो तवरणो तावणणामा शिवाघपज लिदो । उज्ज लिदो संजलिदो संपज्जलिदो य तदिपुढवीए ॥ ४३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ९ प्रारो मारो तारो तच्चो तमगो तहेव वादेय । खडखडणामा तुरिमंखोणीए इंदया तस्स ॥ ४४ ॥ ७ तमभमझसयं 'वाविलतिमिसो दुच्चुपहा द्वीप | हिमवद्दलललका सत्तमभवणीप भवधिठाणो न्ति (१) ॥ ४५ ॥ ५ । ३ । १ । पदमिदयपढमसेढिबद्धाणं 1 धम्मादीपुढवीणं णामाणि वेिमो पुव्वादिपदाहिको (१) कमेण ॥४६॥ I ABS 40 ; 2 A सम्भंत, S सज्यंत ; 3 तत्तो (?) ; 45 तथ्यो; 5 AB पाविज्ञ । www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणत्ती पंखापिवासणामा महकंखा यदिपिवासणामा य ।। आदिमसेढीबद्धा चत्तारो होंति सीमंते ॥४॥ पढमो अणिश्चणामो बिदिओ विजो तहा महाणिजो। महविजो य चउत्थो पुवादिसु होति घणगम्हि ॥४८॥ दुक्खा य वेदणामा महदुक्खा तुरिमया अ महावेदा।। तत्तिदियस्स पदे पुवादिसु होति चत्तारो ॥४९।। आरिदए णिसहो पढमौ बिदिओ वि अंजणणिरोधो। तत्तिउप अदिणिसत्तो महणिरोधो चउत्थो त्ति ॥५०॥ तमकिंडए णिरुद्धो विमद्दणो यदिणिधुणामो' य। तुरिमो महाविमद्दणणोमा पुवादिसु दिसासु ॥५१॥ हिमा दयम्हि होंति हु णीला पंका य तह य महणीणा । महपंका पुवादिसु सेढीबद्धा इमे चउरा ॥५२॥ कालो रोरवणामो महकालो पुवपहुदिदिभाए । महरोरउ' चउत्थो अवधीठाणस्स चिंतेदि ॥५३॥ अवसेसईदयाणं पुवादिदिसासु सेढिबद्धाणं । णत्ताई णामाई पढमाणं बिदियपहुदिसेढीणं ॥५४॥ दिसविदिसाणं मिलिदा अट्ठासीदजुदा य तिषिण सया। सीमंतएण जुत्ता उणणवदो समधिया होंति ॥५५॥ ३८८ । ३८९ । उणणवदी तिगिण सया पढमाए पढम पंथले होति । विदियादिसु होते माघवियाए पुढं पंच ॥५६॥ ३८९ । अट्ठाणं पि दिसाणं एक्कक्क हीयदे जहाकमसो। एक्केकहीयमाणे परं जिय होति परिहाणे (?) ॥५॥ इढिदियप्पमाणं रूऊणं अताडिया णियमा। उणणवदितिसएसुं अवणिय सेसो हवंति य प्पडला ॥५८॥ अथवा इत्थे पदरविहीणो उणवण्णा अताडिया णियमा । सा पंचरूवजुत्ता इच्छिदसेढिदया होति ॥५९॥ I बदिणिव (१); 2 महरोरवो ?) 3 पत्थले (?) 4 AB संरजि; 5 दूऊणं (१), 6 Bइन्छ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणती उद्दिढ पंचूणं भजिदं अ?हिं सोधए लद्ध। ऊणावण्णाहितो सेसा तत्थिदया होंति ॥६०॥ आदीओ' णिहिट्ठा णियणियचरिमिदयस्स परिमाणं | सव्वत्युत्तरम? णियणियपदराणि गच्छाणि (?) ॥६॥ नेणवदिजुत्तदुसया पणजुद्दुसग सयं च तेत्तीसं । सत्तत्तरि सगतीसं तेरस रयणप्पहादि आदीओ ॥३२॥ २९३ । २०५ । १३३ । ७७ । ३७ | १३ | तेरसपकारसणवसगपंचतियाणि होति गच्छाणि । सम्वदृ त्तरमंतं' रयणपहाए-पहुदिपुढवीसु ॥६३॥ १३ । ११ । ९ । ७।५। ५ । सबदुहर ॥७॥ चयहदमिक्कूणपदं स्वणित्थाए गुणिदवयजुत्तं | गुणिदं-बदणेण जुदं पददलगुणिदं हवेदि संकलिदं ॥४॥ पक्कोणमण्णदयमट्ठियवमिगजमूलसंजुत्तं । अद्वगुणं पंचजुदं पुढविंदवताडिदमि पुढविघणं ॥६५॥ पुढमा इंदयसेढी वउदालसयाणि होति तेतीसं।। छस्सयदुसहस्साणिं पणणउदी बिदियपुटवीए ॥६६॥ ४४३३ । २६९५। तियपुढवीए इंदयसेढी बउदससयाणि पणसोदो | सत्तुत्तराणि सत्त य सयाणि ते होंति तुरिमाए ॥१७॥ १४८५ / ७७। पणसही दोगिणसया इंदयसेटीए पंचमखिदोए । तेसट्ठी चरिमाए पंचाए होति णायब्वा ॥६॥ २६५ । ६३ । ५। पंचादीमचर्य उणवण्णा होदि गच्छपरिमाणं | सवाणं पुढवीणं सेढीबद्धिदयाण इदमं ॥६९॥ ... चयहदमिहादियपदमेकादिय इगुणिदषयहीणं । दुगुणिववदणेण जुदं पददलगुणिमि होदि संकलिदं ॥७॥ I s आदीड, 2 5 सबटु तरमंत। 5 18 अच, 4 5-महट्ठः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अथवा तालं दलिदं गुणिदं अट्ठे हि पंचरूवजुदं । उणवण्णाए पहदं सव्वघणं होइ पुढवीणं ॥ ७१ ॥ इदयसेढीबद्धा णवयसहस्साणि इस्सयाणं पि । तेवरणं अघिया सव्वासु वि होंति खोणीसु ॥७२॥ ९६५३ यिरिणयच रिमिंदपयमेक्काणं होदि आदिपरिमाणं | यिणियपदरा गच्छा पचया सव्वत्थ अलद्धव ॥७३॥ बाग उदित्तदुसया दुसयं चउ सयजुदाण बत्तीसं | छावत्तरि छत्तीसं बारस रयणप्पहादि आदीउ ||७४|| २९२ | २०४ | १३२ | ७६ | ३६ | १२ | तेरसपक्कारसणवसगपंचतियाणि होंति गच्छाणि | सेढिघणे सव्वपुढवीणं ॥ ७५ ॥ सव्वत्युत्तर मट्ठ पदवग्गं चयपहिदं दुगुणिदगच्छेण गुणिदमुवजुतं । चट्ट' हदपदविहीणं दलिदं जाणिज संकलिदं ॥७६॥ चयपदमित्थूण पदं तिलोय पण्णत्ती जुदं १३३ | ८ | रूणिच्छाए गुणिदचयं ९ 2 safe, afg? IS पदव; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ८ दुगुणिदेवादिसुगमं चारि सहस्साणि य चउस्सया वीस होंति पढमाए । सेढिगदा बिदिया दुसहस्सा छसयाण चुलसीदी ॥७७॥ ४४२० । २६८४ | चोहसया छाहतरि तदियाए तह य सन्त सया | तुरिमाप सहिजुदं दुसताणि पंचमिए होदि खायव्वं ॥७ ॥ १४७६ | ७०० । २६० । www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ प्रशस्ति-संग्रह पं० के. भुजबली शास्त्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति-संग्रह -.---... -- . . -. मधुगिरि तालुक में अङ्गाडि नामक स्थान से प्रादुर्भूत हुआ था । इसीका प्राचीन नाम शशकपुर रहा। यहाँ पर सळ नाम के सामन्त ने व्याघ्र से एक जैन मुनि की रक्षा करने के कारण पोयिसळ (होयिसळ) नाम प्राप्त किया। विद्वानों का कहना है कि प्रारंभ में यह वंश पहाड़ी था, पीछे विनयादित्य के उत्तराधिकारी बल्लाळ ने अपनी राजधानी शशकपुर से वेलूर में हटाली। द्वारसमुद्र (हळेबीडु) में भी उनकी राजधानी थी। इस वंश के विष्णुवर्द्धन के समय में होयिसळ नशों का प्रभाव वहुत ही बढ़ गया था। इसी समय गंगवाडि का पुराना राज्य भी सब उनके अधीन हो गया था और उन्होंने कई प्रदेशों . को विजय-द्वारा हस्तगत कर लिया था। प्रारंभ में विष्णुवर्द्धन जेन रहा, किन्तु पीछे काव हो गया था। पर फिर भी इनकी तथा इनके परिवार-चग की जनधम से सदा मची सहानुभूति रही। होयिसळ राज्य पहले चालुक्य साम्रा य के अन्तगत था. बाद नरसिंह के पुत्र बीरबल्लाळ के समय में यह राञ स्वतन्त्र हो गया। यह वंश सदा से जैनियों का प्रधान पृष्ठ-पोपक रहा । उल्लिखित राज्य की राजधानी ग्रन्थकर्ता ब्रह्मसूरि जी ने 'लव-त्रयपुरी' लिखा है। परन्तु ऐतिहासिक प्रमाणों से इस वंश की राजधानी सिर्फ तीन स्थानों में ही सिद्ध होती है जिनके नाम क्रमशः (१) शशकपुर (२) बेलुरु (३) और द्वारसमुद्र या हळेबीडु हैं। पता नहीं कि सूरि जी द्वारा निर्दिष्ट नवयपुरी कहाँ थी और कब इस राज्य के अन्तभुक्त हुई । संभव है कि द्वारासमुद्र को ही इन्होंने छत्रबयपुरी लिखा हो। क्योंकि एक जमाने में यह द्वार-समुद्र जैनियों का केन्द्र सा बन गया था। बलि कहा जाता है कि उन दिनों वहाँ साढ़े सात सौ भव्य जिनमन्दिर थे और वैष्णव धर्म स्वीकार करने के बाद विष्णुवर्धन ने ही इन भव्य मन्दिरों को तहस-नहस कर दिया। वहाँ के जिनमन्दिरों के ध्वंसावशेष से भी यह पता चलता है कि उल्लिखित घटना वास्तविक है। अब हळेबीडु में केवल आदिनाथ, शान्तिनाथ एवं पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर के तीन ही मनोज्ञ मन्दिर रह गये हैं, जो भारतीय शिल्पकला के आदर्शभूत बने हुए हैं। कविवर उस्तिमल जी के सुपुत्र निर्दिष्ट पार्श्वपण्डित के चन्द्रप, चन्द्रनाथ और वैजय्य नामक तीन पुत्र थे। इनमें चन्द्रनाथ और इनके परिवार पीछे हेमाचल (होन्नूरु) में जा बसे। अवशिष्ट दो भाई भी अन्यान्य स्थानों में जाकर बस गये। चन्द्रए के पुत्र विजयेन्द्र हुए और इन्हीं के सुपुत्र इस त्रैवर्णिकाचार अन्य के प्रणेता पण्डित ब्रह्मसूरि जी हैं। सूरि जी ने पूर्वोक्त प्रतिष्ठाग्रन्थात अपनी वंश-प्रशस्ति में अपने पूर्वजों का निवासस्थान गण्ड्य देशान्तर्गत गुडिपत्तन द्वीप' बतलाया है। वर्तमान तंजोर जिलान्तर्गत 'दीपनगुडि का ही यह प्राचीन गुडिपत्तन द्वीप होना बहुत कुछ सम्भव है। मालूम होता है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति-संग्रह लेखक की कृपा से ही 'दीपन' का 'द्वीप' लिखा गया है। क्योंकि वहाँ पर द्वीप का होना किसी तरह से सिद्ध नहीं होता । इस स्थान में जैनियों का प्रभाव अच्छा रहा है । ८२ जैन समाज के कुछ विद्वान इस ग्रन्थ को प्रामाणिक मानने के लिये सहमत नहीं हैं । क्योंकि उनका कहना है कि जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल श्राद्ध, तर्पण, गो-दान आदि कई बातें इस में विधिरूप में पायी जाती हैं। उन विद्वानों का कहना है कि ब्रह्मसूरि जी के मूल पूर्वज हिन्दू धर्मावलम्बी थे - इससे इनके रचे ग्रन्थ पर हिन्दुत्व की छाप पड़ गयी है । कुछ विद्वान् इस आक्षेप का उत्तर यह देते हैं- प्रत्येक धर्म पर देश, काल आदि का विना प्रभाव पड़े नहीं रह सकता, इसलिये इस अनिवार्य नियमानुसार बहुत कुछ सम्भव है कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज में अपनी सत्ता कायम रखने और हिन्दुओं से सहानुभूति प्राप्त करने के लिये तात्कालिक कुछ जैनग्रन्थ-कर्त्ताओं को कुछ आचार ग्रन्थों में आपद्धर्म के रूप में उनका उद्देश जैनधर्मके अनुकूल बता कर स्थान देना पड़ा होगा | (२५) ग्रन्थ नं० २ लम्बाई ८|इञ्च प्रारम्भिक भाग – ख रत्नमञ्जूषा कर्त्ता - X विषय - छन्द भाषा - संस्कृत चौडाई ६ ||| इञ्च पत्रसंख्या ६५ यो भूतभव्यभवदर्थयथार्थवेदी देवासुरेन्द्रमुकुटार्चितपादपद्मः | विद्यानदीप्रभवपर्वत एक एव तं क्षीणकल्मषगणं प्रणमामि वीरम् ॥ मायाका – मायाका serer सर्वगुरुविकस्य आकार: संज्ञा भवति ककारो वा स्वरोन्त्यस्तदन्तस्य व्यञ्जनं चेतिवचनात् । सूचिमुखिया इत्याकारस्य भद्रविराज्यिकिरे इति ककारस्य । अत्रैव माया इति गुरुद्वयस्य यकारः संज्ञा भवति व्यञ्जनञ्च तदन्तस्येति वचनादेवायिष्टनिति । पुनश्च अत्रैव मा इति गुर्वत्तरस्प प्रकार: संज्ञा भवति । व्यञ्जनं च Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति-संग्रह तदन्तस्येति वचनादेव । म इति अक्षरे एकस्मिन्नप्याद्यन्तवद्भावात् । संयोगे नपिमिति । अवाह - नत्वाकारादयस्तेषामेवाक्षराणां संज्ञा यथा वृद्धिरादैजिति वृद्धिसंज्ञा तेषामेवाक्षराणां इति न तद्रूपसंज्ञाकरणे प्रयोजनाभावात्तन्मात्राणाम् । यान्यत्र तेषु निकेष्वक्षराण्युपदिष्टधनि तेयां संज्ञाकरणानि प्रयोजनमितितन्मात्राणां सर्वासां संज्ञास्ताः प्रत्यवगन्तव्याः | अथवा शालिनि मालयेदित्यत्र केदवचनं ज्ञापकमन्येषां इति तन्मात्राणां संज्ञा इति । यदि तेषामेव संज्ञा मायाका इति वेदवचनमनर्थकं भवति तस्मात्तः मात्राकरणमेव । X X X मध्य भाग (पृष्ठ : ६ पंक्ति ३० ) उपेन्द्रवज्रा रे - पदि शंरे इति व्यामो भवति भवति उपेन्द्रवज्रा नाम | उपेयुपाण्डवेषु स्थितेष्वपि ख्यातपराक्रमेषु । अन्तिम भाग :― पुराभिमन्युं यदि वेजयेनां जयद्रथो रक्षति कङ्कमन्यः ॥ इन्द्रमाला द्वयम् - यदीन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्र सहैकस्मिन् श्लोके भवतः । भवति इन्द्रमाला नाम | अम्लानमाला सुरसुन्दरीभिः वृतेन्द्रमाला व्यवते दिवश्चेत् । कालेन नार्या व भुक्तमाला मर्त्या वयं किं जलवुदाभाः ॥ दोधकं लुषे-यदि लुषे इति न्यासो भवति भवति दोधकं नाम । कालविधाविव नाटकवृत्तं दर्शयितुं भुवि सर्वजनेभ्यः | अम्वररंगमसौ गिरिकूटात् सूर्यनटः प्रविशन्निव भाति ॥ रथोद्धता तिलाँ-यदि तिलाविति न्यासो भवति, भवति रथोद्धता नाम | सर्वभावविधितत्त्वदर्शिनः सर्वसत्त्वहितधर्मदेशिनः । अर्हतोऽहमघराशिनाशिनः संस्तुवे विभुवनप्रकाशिनः ॥ स्वागता तिले- यदि तिले इति न्यासो भवति, भवति स्वागता नाम । :: धर्मतीर्थकर मुख्य नमस्ते नाथ नष्टभत्रबीज नमस्ते । बद्धसर्वजनवृत्त नमस्ते हेमनाभजिनमान नमस्ते ॥ X X X X एकट्या दिलाकियांक समसंख्यानेषु कोष्ठान्तरेद्विगुणान विरचयेत्तांश्चोर्ध्वमेकोनकान् | इत्यन्तावधिमैरुरेव महितः स्याद्वर्धमानाह्वयः छन्दः स्वेकलगादिवृत्तजननस्थानं त्विह ज्ञायते ॥९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ८३ X www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ प्रशस्ति-संग्रह एकद्वयादिलगक्रियाप्तगणनामानप्रमाणालयैमेरुक्ष्माधरवद्विरच्य खटिकोत्कीर्णैरथाद्यालये । वृत्तंन्यस्य तदादिम द्विगुणयंस्तस्याप्यधः स्थापये देकोनेन तदोपरि पगिलिखेदेवं हि मेरुक्रिया ॥१०॥ खण्डमेरुप्रस्तारो यथा सैकामैकगणोज्ज्वलामभिमतच्छन्दोऽतरागारिकामेकां श्रीणिमुपतिपन्नधरतोऽप्येकैकहीनाश्च ताः । ऊर्ध्व द्विद्विगृहांकमेलनमधोधः स्थानकेष्वालिखे देकच्छन्दसि खण्डमेरुरमलः पुंनागचन्द्रोदितः ॥११॥ एतत्पयोक्तक्रमेण प्रस्तारे कृते विवक्षितछन्दसः लगक्रियया सह ततः पूर्वस्थितसकलछन्दसा लगक्रियाः सर्वाः समायान्तीत्यर्थः ॥ (इन के नीचे प्रस्तार के तीन कोष्ठक भी हैं) दिगम्बर जैन-साहित्य-भाण्डार में छन्दोग्रन्थ-सम्बन्धी अजितसेन के छन्दःशास्त्र, वृत्तवाद एवं छन्दःप्रकाश, आशाधर के वृत्तप्रकाश, चन्द्रकीति के छन्दकोष (प्राकृत) एवं वाग्भट के प्राकृतपिङ्गल सूत्र ये ही नाम मिलते हैं। परन्तु इन में अभीतक कोई प्रन्थ मुद्रित नहीं हुआ है। अब रही प्रस्तुत पुस्तक 'रत्न-मंजूषा' की बात'। पं० नाथूराम जी प्रेमी के द्वारा संग्रहीत “दिगम्बर जैनग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ" इस ग्रन्थतालिका में इसके कर्ता हेमचन्द्र कवि बतलाये गये हैं | परन्तु इस छन्दोग्रन्थ के अन्तिम भाग के अन्तिम श्लोकान्तर्गत 'पुन्नागवन्द्रोदितः' इस वाक्य से तो ज्ञात होता है कि पुंनागचन्द्र या नागचन्द्र ही इसके प्रणेता हैं। प्रेमी जी के कथनानुसार अगर इस 'रत्नमंजूषा' के रचयिता हेमचन्द्र कवि होते तो 'पुनागचन्द्रोदितः' के स्थान पर बड़ी आसानी से 'श्रीहेमचन्द्रोदितः' लिख देते। क्योंकि ऐसा करने से छन्दोभंग का उन्हें जरा भी भय नहीं रह जाता था। साधनाभाव से इस समय इसके कर्ता के बारे में कुछ भी प्रकाश नहीं डाला जा सका। यदि थोड़ी देर के लिये अर्थात् प्रेमी जी ने किस आधार पर इस का कर्ता हेमचन्द्र कवि लिखा है-यह बात जब तक स्पष्ट नहीं होती तब तक के लिये नागचन्द्र को ही इसका प्रणेता माना जाय तो महाकवि धनंजय-कृत विषापहार-स्तोत्र के संस्कृत टीकाकार कवि नागचन्द्र * की ओर मेरी दृष्टि कुछ कुछ आकृष्ट हो जाती है। पर यह एक अनुमान क्ष देखें-'प्रशस्ति-संग्रह' पृष्ट ३७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति-संग्रह ८५ मात्र है। जब तक इस सम्बन्ध में कोई सबल प्रमाण नहीं मिलता है तबतक इसे कोई मानने को तैयार क्योंकर हो सकता है ? अब रहा इस छन्दोग्रन्थ का विषय । यह ग्रन्थ छोटे छोटे आठ अध्यायों में विभक्त है। इस प्रति की मैसुर राजकीय 'प्राच्यपुस्तकागार' से मैंने ही कन्नड लिपि से नागराक्षर में प्रतिलिपि कराई थी। इसके अष्टम अध्याय का कुछ अंश लुप्त सा ज्ञात होता है। इस लुप्तांश के बाद ही तीन पृष्ठों में मेरुसम्बन्धी प्रस्तार के पद्यबद्ध लक्षण सकोष्ठक दिये गये हैं। कवि ने इस ग्रन्थ में प्रायः प्रत्येक छन्द पर अच्छा प्रकाश डाला है। इसके छन्दोलक्षण पिंगलसूत्र के समान सूत्रमय है जो नितांत स्वतन्त्र है। छन्दों के दिये गये दृष्टांतों में यत्र-तत्र जैनत्व की छाप सुस्पष्ट प्रतिभासित होती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस के कर्ता काव्यशास्त्र के एक उद्भट मर्मज्ञ थे। इसकी अन्यान्य प्रतियाँ जहाँ तहाँ से अन्वेषण एवं मिलान कर इस रत्नभूत 'रत्नमंजूषा' के प्रकाशन से दिगम्बर जैनसाहित्य के एक अङ्ग की पूर्ति हो जायगी। अन्यान्य पुस्तक प्रकाशन संस्थाओं और जैन परीक्षालयों को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये। क्योंकि आजतक सभी जैन परीक्षालयों के पाठ्य ग्रन्थों में जैनेतर छन्दोग्रन्थ ही समाविट होते आ रहे हैं। (२६) ग्रन्थ नं० २३७ सरस्वतीकल्प कर्ता-मलयकीर्ति विषय-मंत्रशास्त्र भाषा-संस्कृत चौड़ाई है इञ्च लम्बाई ६॥ इन्च पत्रसंख्या ७ प्रारम्भिक भाग बारहगं गिजा सणनिलया चरितबहरा । चउदसपुब्बाहरणा ठावे दयाय सुददेवी ॥ आचारशिरसं सूत्रकृतवक्रां (सरस्वती ) सकण्ठिकाम् | स्थानेन समयोद्घ ( स्थानांगसमयांत्रिं तां) व्याख्याप्राप्तिदोलताम्॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति-संग्रह वाग्देवतां ज्ञातृकथोपासकाध्ययनस्तनीम् । अन्तकृद्दशसन्नाभिमनुत्तरदशांगताम् ॥ सुनितम्बां सुजघनां प्रश्नव्याकरणाश्रिताम् । विपाकसूत्रकृवयचरणां चरणाम्बराम् ॥ सम्यक्त्वतिलका पूर्वचतुर्दशविभूषणाम् । तावत्प्रकीर्णकोद्गीर्णचारुपत्राङ्करश्रियम् ॥ मध्य भाग (पूर्व पृष्ठ ३, पंक्ति ७) स्थाद्वादकल्पतरुमूलविराजमानां रत्नत्रयाम्बुजसरोवरराजहंसीम् । अङ्गप्रकीर्णकचतुर्दशपूर्वकायामाम्नायवाङ्मयवधूमहमाह्वयामि ॥ शारदाभिमुखीकरणम् अविरलशब्दमहौघा प्रक्षालितसकलभूतलकलङ्का । मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीं मन्त्ररूपे विबुधजननुते देवि देवेन्द्रवन्ये चञ्चञ्चन्द्रावदाते क्षपितकलिमले हारनीहारगौरे । भीमे भीमाट्टहासे भवभयहरणे भैरवि भीरु धीरे ह्रां ह्रीं ह्र कारनादे मम मनसि सदा शारदे तिष्ठ देवि ॥ अन्तिम भाग परमहंसहिमाचलनिर्गता सकलपातकपंकविवर्जिता । अमितबोधपयःपरिपूरिता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥ परममुक्तिनिवाससमुज्वलं कमलयाकृतवासमनुत्तमम् । वहति या वदनाम्बुरुहं सदा दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥ सकलवाङ्मयमूर्तिधरा परा सकलसत्त्वहितैकपरायणा | ........ नारदतुम्बुरुसेविता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥ मलयचन्दनचन्द्ररजःकणा प्रकरशुभ्रदुकूलपदावृता | विशदहंसकहारविभूषिता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती॥ मलयकीतिकृतामितिसंस्तुति (पठति यो) सततं मतिमानरः । विजयकीर्तिगुरुकृतमादात् स मतिकल्पलताफलमश्नुते ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति-संग्रह ८७ इस 'सरस्वतीकल्प' के अन्तिम पद्य से इसके रचयिता मलयकीर्ति ज्ञात होते हैं । साथ हो साथ इसी पद्य से यह भी विदित होता है कि यह मलयकीर्ति प्रायः विजयकीर्तिगुरु के शिष्य हैं। पर "विजयकीर्तिगुरुकृतमादरात्" इस चतुर्थ चरण का सम्बन्ध किसके साथ है-यह अभी ठीक नहीं समझ पड़ता। बहुत कुछ संभव है कि इस श्लोक की प्रतिलिपि करने में लेखक ने भूल की हो। इसलिये जबतक इसकी शुद्ध प्रति नहीं मिलती तबतक सन्देह-निवृत्ति होती नहीं दीख पड़ती | अस्तु, 'एपिग्राफिका कर्नाटका' जिद के शिलालेख नं. १०४ में एक विजयकोतिगुरु का उल्लेख मिलता है। मलपकोर्ति के द्वारा प्रतिपादित विजयकीर्तिगुरु यदि यही हों तो उक्त शिलालेख के ही आधार से इनका समय सन् १३५४ अर्थात् १४ वीं शताब्दी सिद्ध होता है। अतः इस सरस्वतीकल्स के रचयिता मलयकोर्ति का समय भी लगभग यही होना चाहिये। अस्तु, अर्हद्दास-रचित भी एक 'सरस्वतीकल्प' सुना जाता है। वह इससे भिन्न होना चाहिये। इस कृति के आदि और अन्त में 'सरस्वतीकल्प' लिखा मिलता है। मन्त्रशास्त्र में कल्प का लक्षण यों बतलाया है-जिन ग्रन्थों में मन्त्र-विधान, यन्त्रविधान, मन्त्र-मन्त्रोद्धार, बलिदान, दीपदान, आह्वान, पूजन, विसर्जन और साधनादि बातों का वर्णन किया गया हो वे ग्रन्थ 'कल्प' कहलाते हैं | प्रधानतया इस प्रस्तुत कृति को एक मंत्र-स्तोत्र ही कहना चाहिये। फिर भी यन्त्रोद्धार, जाप्य एवं होममन्त्र आदि का इसमें उल्लेख पाया जाता है इसी से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता ने कल्पनाम की सार्थकता समझी होगी। मंत्रशास्त्र के जिज्ञासुओं के लिये इसके निम्नलिखित कतिपय श्लोक उपयोगी हैं : "जाप्यकाले नमःश मन्त्रस्यान्ते नियोजयेत् । तदन्ते होमकाले तु स्वाहा शई नियोजयेत् ॥ सवृन्तकं समादाय प्रसून ज्ञानमुद्रया । मन्त्रमुच्चार्य सन्मन्त्री मुञ्चेदुन्छवासरचनात् ॥ महिषाक्षगुग्गुलेन प्रविनिर्मितवणकमात्रवटिकानां | मधुरत्रययुक्तानां तोपर्वागीश्वरी वरदा ॥ दिकालमुद्रासनपलवानां भदं परिज्ञाय जपेत् स मन्त्री । न चान्यथा सिध्यति तस्य मन्त्रः कुर्वन् सदा तिष्ठतु जाप्यहोमम् ॥ * देखें-मद्रास व मैपूर पान के प्राचीन जैन स्मारक' पृष्ठ ३" ___ मन्सशाखा के विषय में विशेष बात जानने के इच्छुक विद्वान् भास्कर माग :, किरण ३ में प्रकाशिन 'जैनमन्त्र-शान' शीर्षक लेख देखें । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति-संग्रह द्वादशसहस्रजाप्यैर्दशाङ्गहोमेन सिद्धिमुपयाति । मन्त्री गुरुप्रसादात् ज्ञातव्यस्त्रिभुवने सारः॥ अकारोऽनन्तवीर्यात्मा रेफो विश्वावलोकदक् । हकारः परमो बोधो बिंदुः स्यादुत्तमं सुखम् ॥ नादो विश्वात्मकः प्रोक्तो बिन्दुः स्यादुत्तमं पदम् । कलापीयूषनिःस्यन्दीत्याहुरेवं जिनोत्तमाः॥" इसकी रचना साधारणतया अच्छी है। (२७) ग्रन्थ नं०२४१ वज्रपंजराधना-विधान कर्ता- ४ विषय-आराधना भाषा-संस्कृत चौडाई ६ इञ्च लम्बाई ॥ इञ्च पत्रसंख्या है प्रारम्भिक भाग - चन्द्रपुराम्बुधिवन्द्रं चन्द्रार्क चन्द्रकान्तसंकाशम् | चन्द्रप्रभजिनमंचे कुन्देन्दुस्फारकीर्तिकान्तोशान्तम् ॥ ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभ जिनदेवागच्छतीर्थोपनीतैर्घनसारशीतैः पातप्रपाद्यः घुसणायु पेतः । चन्द्रप्रभाभास्करदिव्यदेहं महामि चन्द्रप्रभतीर्थनाथम् ॥ ... ओं ह्रीं चन्द्रप्रभजिनदेवाय जलं निर्वपामोतिस्वाहा ! .. सुगन्धसारैर्धनगन्धसारैः सिताभ्रभारैः सितधामगौरैः । चन्द्रप्रभाभास्करदिव्यदेहं महामि चन्द्रप्रभतीर्थनाथम् ॥ गन्धम् शाल्यक्षतरक्षतमोक्षलक्ष्मीकटाक्षविक्षेपवलक्षकक्षैः ॥ चन्द्रप्रभाभास्करदिव्यदेहं महामि चन्द्रप्रभतीर्थनाथम् ॥ अक्षतान् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्य-सार पं. सत्यन्धर जैन, मायुर्वेदाचार्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्य-सार इसका काली मिर्च तथा महुए के फूल के साथ सेवन करने से तेरह प्रकार का सभिपात दूर हो जाता है। इस गोली को एक मास तक लगातार सेवन करने से सब प्रकार की व्याधि शांत हो जाती है। यह श्रीपूज्यपाद स्वामी की कही हुई प्रभावती बटी है। ११६-ज्वरादौ लघुज्वरां-कुशः रसगंधकताम्राणां प्रत्येकं चैकभागकम् । खल्वे सूर्याग्निभागांशं हयारिं धूर्तवीजयोः ॥१॥ मातुलुंगरसेनैव मर्दयेद्वासर-त्रयम् । कासमर्दकतोयेन सिद्धोऽयं जायते रसः ॥२॥ निवमजाई करसेः बल्लो देयः त्रिदोषजित् । ज्वरे दभ्योदनं पथ्यं शाकः स्यात्तण्डुलीयकः ॥३॥ सर्वज्वरविषन्नोऽयं चानुपानविशेषतः । लघुघरांकुशो नाम पूज्यपादेन भाषितः ॥ ४॥ टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, तामे की भस्म, ये तीनों एक एक भाग, शुद्ध कनेर की जड़ १२ भाग एवं शुद्ध धतूरे के बीज ३ भाग इन सब को एकत्रित कर विजोरा नीबू और कसोंदन के रस में ३ दिन तक मईन कर एक एक रत्ती की गोली बांध लेवे, फिर नीम को निबोड़ी की गिरी तथा अदरख के साथ तीन गोली देवे तो त्रिदोषज ज्वर भी शान्त होवे । इस रस के ऊपर दही भात का भोजन करना तथा चौलाई का शाक खाना चाहिये। यह लघु ज्वरांकुश अनुपान-भेद से सब ज्वरों को नाश करनेवाला श्रीपूज्यपाद स्वामी ने कहा है। ११७-अनेकरोगे त्रिलोक-चूड़ामणि-रसः पारदं टंकणं तुत्यं विषं लांगलिकं तथा । पुत्रजीवस्य मजा च गंधकं गुंजपनकम् ॥१॥ देवदाल्या रसैमर्यः त्रिपादीरसमर्दितः। विष्णुकांतानागदंतीधसूरनागकेशरैः ॥२॥ मर्दनं दिनमेकं तु बटबीजप्रमाणकम् । जंबीररसतो लेह्य पानलेपननस्यके ॥३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्य - सार जनं सर्वकार्ये वा ज्वरज्वालाशताकुले | ब्रह्मराक्षसभूतादिशाकिनीडाकिनीगण ॥४॥ कालवज्रमहादेवीमदमातंगकेशरिवृषभादि सुसंस्थाप्य श्रीदेवीश्वरसूरिणम् ॥५॥ पूजनं चाशु कृत्वा च यथायोग्यं प्रकल्पयेत् । कथितोऽयं त्रिलोकस्य चूड़ामणिमहारसः ॥६॥ पार्श्वनाथस्य मंत्रेण स्तंभोभवति तत्क्षणम् । पूज्यपादेन कथितः सर्वमृत्युविनाशनः ॥७॥ टीका - शुद्ध पारा, सुहागे की भस्म, , तूतिया की भस्म, शुद्ध विष, लांगली (कलिहारी) की जड़, जियापोता की रींगी, शुद्ध आँवलासार गंधक तथा गुंजावृत्त के पत्ते इन सब को बराबर-बराबर लेकर पहले पारे, गंधक की कज्जली बनावे; पीछे और सब दवाइयाँ अलग अलग कूट- कपड़-छन करके मिलावे तथा देवदाली, हंसराज, हुलहुल नागदौन, धतूरा, नागकेशर इन सबके स्वरस से अथवा क्वाथ से एक-एक दिन अलग घोंटे और बर के बीज-समान गोली बनाकर जंभीरी के रस के साथ सेवन करावे । मूर्द्धावस्था में नास भी देवे, आवश्यकता आने पर या सन्निपात की दशा में अञ्जन भी लगावे । इसका सेवन करने से कठिन से कठिन ज्वर भी शांत होता है । इसका जब सेवन करे तब ब्रह्मराक्षस, डाकिनी, शाकिनी इत्यादि व्यन्तर रूपी मातंग के लिये सिंह सदृश श्रीजिनेन्द्र देव की स्थापना करके पूजन करे तो शीघ्र ही लाभ होता है श्रौर श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के मंत्र से तो उसी क्षण रोग का स्तम्भन होता है । यह तीन लोक का शिरोमणि त्रिलोक चूड़ामणि रस पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ अपमृत्यु का नाश करनेवाला है। P ११८ - सर्वज्वरे ज्वरांकुशरसः पारदं गंधकं ताप्यं टंकणं कटुकलयम् । चित्रकं निंबबीजानि यवक्षारं च तालकम् ॥१॥ एरंडवीजसिधूत्थं हारीतक्यं समांशकम् । शुद्धस्य वत्सनाभस्य पंचभागं च निक्षिपेत् ॥२॥ जैपालं द्विगुणं चैव निर्गुण्ड्याः मदयेद्द्द्द्रवैः । दशव्रीहिसमो देयः सर्वज्वरगजांकुशः ||३|| पृथिव्या चाजमोदेन पिष्टश्च सहितं जलैः । ज्वराविष्वपि रोगेषु सर्वेषु हितकृद्भवेत् ||४|| Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्य-सार अनुपानविशेषेण सर्वरोगेषु योजयेत् । पथ्या शुंठी गुंडं चानु चार्शरोगे प्रयोजयेत् ॥७॥ तीरानमाज्यं भुंजीत शिघु तोयेन पाययेत् । आर्द्रकस्य रसेनापि यथादोषविशेषिते ॥६॥ शीतज्वर सन्निपाते तुलसीरससंयुतः। उरिचेन सहितश्चासौ सर्वज्वरविषापहः ॥७॥ टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, सोने की भस्म, सुहागा, सोंठ-मिर्च, पीपल, चित्रक, नीम के बीज, जवाखार, तवकिया हरताल की भस्म, अण्डी के बीज, सेंधा नमक, वड़ी हर्र का छिलका ये सब बराबर-बराबर लेवे और शुद्ध वच्छनाग, पाँच भाग, शुद्ध जमालगोटा २ भाग, इन सब को एकत्रित कर के नेगड़ के स्वरस में घोटे एवं दसदस चावल के बराबर बड़ी इलायची तथा अजमोदा के पानी के साथ देवे तो सब प्रकार के ज्वर शांत होवे। यदि बवासीर रोग में देना हो तो हर्र, सोंठ, गुड़ का अनुपान देवे और दूध-भात का भोजन करावे। शीतज्वर में मुनक्का के काढ़े से तथा अदरख के के साथ, सनिपात में तुलसी के रस के साथ एवं विषमज्वर में काली मिर्च के साथ देवे । यह रस सर्व ज्वरों को नाश करता है। ११६-प्रमेहे बंगेश्वररसः सूतं च बंगभस्मं च नाकुलीबीजमभ्रकम् । शिलाजतु लोहभस्म कनकं कतकवीजकम् ॥१॥ गुडूचीत्रिफलाक्कार्थः मर्दयेद्गुटिका दिनं । बंगेश्वररसो नाम चानुपानं प्रकल्पयेत् ॥२॥ कपित्थफलद्राक्षा च खर्जूरीयष्टिकेन च । नष्टेन्द्रियं च दाहं पित्तज्वरपथश्रमम् ॥३॥ मेहाना मजदोषाणां नाशको नात्र संशयः । सर्वप्रमेहविध्वंसी पूज्यपादेन भाषितः ॥५॥ टोका-शुद्ध पारे की भस्म, बंगभस्म, रासना के बीज, अभ्रक भस्म, शुद्ध शिलाजीत, लौह भस्म, सोने की भस्म, कतक के बीज, निर्मली इन सब का एकत्रित कर के गुर्व तया निकला के काढ़े से दिन भर मर्दन करे तो यह बंगेश्वर रस तैयार हो जाता है। इसको सेवन कराने के लिये वैद्यगण अनुपान की कल्पना करें अथवा कवीट, मुनक्का, खजूद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ वैद्य-सार मुलहठी इन सब के अनुपान से उसको सेवन करावे । इसके सेवन कराने से इन्द्रिय की कमजोरी, दाह, पित्तज्वर, मार्ग में चलने की थकावट, सर्व प्रकार के प्रमेह, मजा, धातु के दोष इन सब को नाश करनेवाला है, इसमें कुछ संदेह नहीं है। यह सब प्रकार के प्रमेहों को दूर करनेवाला श्रीपूज्यपाद स्वामी ने कहा है। १२०-सर्वज्वरे मृत्युञ्जयरसः रसगंधकौहि जयपालः तालकश्च मनःशिला । ताम्रश्च माक्षिकः शुंठीमुसलीरसमर्दितः ॥१॥ कुक्कुटे च पुटे सम्यक् पक्तव्यः मृदुवह्निना | स्वांगशीतलमुद्धृत्य गुंजामात्रप्रमाणकम् ॥२॥ शुद्धशर्करया खादेत् शीततोयानुपानतः । पथ्ये क्षीरं प्रयोक्तव्यं दधि वापि यथारुचि ॥३॥ संततादिज्वरोऽयमनुपानविशेषतः। मृत्युञ्जयरसश्चासौ पूज्यपादेन भाषितः ॥४॥ टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, शुद्ध जमालगोटा, हरताल भस्म, शुद्ध मेनशिल, तामे की भस्म, शुद्ध सोनामक्खी , सोंठ इन सब को मुसली के रस से मर्दन करे तथा कुक्कुट पट में पाक करे और ठंढ़ा होने पर निकाल कर एक-एक रत्ती के प्रमाण से मिसरी की चासनीके साथ शीतल जलके अनुपान से सेवन कराधे। पथ्य में दूध देवे तथा रोगी को अरुचि होवे तो दधि भी खिलावे (?)।यह संततादि ज्वरों को नाश करनेवाला मृत्युञ्जय रस पूज्यपाद स्वामीने कहा है। मतान्तर ताप्यतालकनेपाल-वत्सनामं मनःशिला। ताम्रगन्धकसूताश्च मुसलीरसमर्दिताः॥ मृत्युश्चय इति ख्यातः कुकृटीपुटपाचितः । वल्लद्वयम् प्रमंजीत यथेष्टं दधि मोजनम् ॥ नवज्वरं सन्निपातं हन्यादेष महारसः ॥ १९ तरहका मृत्युञ्जय रस है यह १४ के पाठ से मिलता है । एक चीज का फर्क है, इस में सोंठ है उसमें सिंगिया लिखा है। इस ग्रन्थ के रस रसरत्न-समुच्चय, रससुधाकर, रसपारिजात से अधिक मिलते हैं। रसरत्नसमुच्चय बौद्धों का बनाया हुआ ग्रन्थ प्रसिद्ध है; मुमकिन है यह उसी समयका हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्य-सार ८५ १२१-शीतज्वरे शीतभंजरमः पारदं रसकं तालं शिला तुत्थं च टंकणम् । गन्धकं च समं पिष्टवा कारवेल्ल्या रसैदिनम् ॥१॥ शिव मूलरसैः पिटवा निर्गुण्डी स्वरसेन च । ताम्रपत्रे प्रलिप्वा च भाण्डे पत्रमधोमुखम् ॥२॥ कृत्वा रुन्या मुखं तस्य वालुकाभिः प्रपूरयेत् । पश्चादग्निना तुल्या ताम्रपत्रस्य रक्तता ॥ ३ ॥ एवं पुटनयं दद्यात् स्वांगशीतलमुद्धरेत् । ताम्रपत्रं समुद्धृत्य चूर्णयेन्मरिचं समम् ॥ ४॥ शीतभंजरसो नाम पर्णखंडरसेन च | शीतज्वरविषयोऽयं पूज्यपादेन भाषितः ॥ ५॥ टोका-शुद्ध पारा, शुद्ध खपरिया की भस्म, हरताल की भस्म, शुद्ध शिला, शुद्ध तूतिया की भस्म, टंकण भस्म, शुद्ध गन्धक इन सबको बराबर-बराबर लेकर खरल में एकत्रित करके करेले के पत्तों के रस से एक दिन भर घोंटे तथा एक दिन 'मुनगा के स्वरस से घोंटे, एक दिन नेगड़ के रस से घोंटे और शुद्ध पतले तामे के पत्रों पर लेप करके एक हंडी में रख कर नीचे को मुख करके उसका मुख बन्द करके बाकी की जगह बालू से पूर्ण कर नीचे से अग्नि जलावे, जब वह तामे का पत्र लाल वर्ण हो जाय तब निकाल लेवे। इस प्रकार तीन पुट देवे, जब ठीक पाक हो जाय तामे के पत्रों को निकाल कर सब चूर्ण बना कर रख लेवे और काली मिर्च बरावर मिला कर पान के रस के साथ यथा योग्य मात्रा से यह शीतज्वर रूपी विष को नाश करनेवाला शीतभंज रस पूज्यपाद स्वामी ने कहा है। १२२-श्वासादौ अमृतसंजीवनो रसः सूतश्च गन्धको लौहो विषश्चित्रकपत्रकौ । विंडंग रेणुका मुस्ता चैला प्रन्थिककेशरौं । त्रिकटुत्रिफला चैव शुल्वभस्म तथैव च ॥ एतानि समभागानि ,द्विगुणं गुड़मेव च । तोलप्रमाणवटिकाः प्रातःकाले व भक्षयेत् ।। श्वासे कासे क्षये मेहे शूलपांडुगुदाकुरे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्द वैद्य-सार चतुरशीतिवातेषु योजयेन्नात्र संशयः ॥ अमृतसंजीवनो नाम पूज्यपादेन भाषितः ॥ ४ ॥ टीका - शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म, शुद्ध विष, चित्रक, तेजपत्र, वायविडंग, रेणुका बीज, नागर मोथा, छोटी इलायची, पीपरामूल, नागकेशर, सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, ता की भस्म, इन सबका बराबर-बराबर लेकर सबके दुगुना पुराना गुड़ लेकर गोली बनावे तथा प्रातःकाल में अनुपान - विशेष से सेवन करे तो श्वास, खांसी, राजयक्ष्मा, प्रमेह, शूलोदर, पांडु रोग, बवासीर तथा ८४ प्रकार के वायु रोग शांत होते हैं । यह अमृतसंजीवन रस भी पूज्यपाद स्वामी ने कहा है । १२३ - विबंधे नाराचरसः अष्टौ निस्तुपदं तिबीजशुद्ध भागलयं नागरं । द्वे गंधे मरिचं च टंकणरसौ भागेकमेकं पृथक् ॥ गुञ्जमानमिदं विरेचनकरं देयं च शीतांबुना । गुल्मलीहमहोदरादिशमनो नाराचनामा रसः ॥ १ ॥ टीका - आठ भाग शुद्ध जाम लगा टाके बीज तीन भाग सोंठ, दो भाग शुद्ध गन्धक, काली मिर्च, सुहागा, शुद्ध पारा एक-एक भाग खरल में डाल कर खूब घोंटे तथा एक-एक रती की मात्रा से शीतल जलके अनुपान से सेवन करावे तो इस से गुल्म, प्लीहा और उदररोग शांत होता है | १२४ - शीतज्वरे शीतमातंगसिंहरसः रसविषशिखि तुत्थं खर्परं चैकभागम् | अनलद्विकसमानभागमेतत्क्रमेण ॥ कनकदलरसेन पीतगुंजैकमात्रः । परिमितगुटिकः स्यात् शीतमातंगसिंहः ॥ १ ॥ टीका - शुद्ध पारा, शुद्ध विषनाग तूतिया की भस्म, खपरिया भस्म एक-एक भाग, चित्रक दो भाग इन सब को एकत्रित करके धतूरेके रस से घोंटे तथा एक-एक रती प्रमाण सेवन करे तो इससे शीतज्वर दूर होवे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्य-सार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ८७ १२५ - ज्वरादौ प्राणेश्वररसः भस्म सुतं यदा कृत्वा माक्षिकं चाभ्रसत्त्वकम् | शुल्वभस्मापि संयोज्य भागसंख्याक्रमेण च || तालमूलीरसं दत्त्वा शुद्धगंधकमिश्रितम् | मर्दयेत् खल्वमध्ये च नितरां यामयोद्वे यम् ॥ निक्षिप्य काचकूप्यां च मुद्रया कृपिकां तथा । खटिकामृदं समादाय लेपयेत् सप्तवारकम् ॥ विपरीतं परिस्थाप्य पुरयेत् वालुकामयम् | यंत्र प्रज्वालयेद्यामं चतुरो वह्निना पुनः ॥ सिध्यते रसराजेन्द्रो वलिपूजाभिरर्चयेत् । अनुपानं तदा देयं मरिचं नागरं तथा ॥ विचारं पंचलवणं रामठं चित्रमूलकम् | अजमोदं जीरकं चैव शतपुष्पाचतुष्टयम् ॥ चूर्णयित्वा तथा सर्व भक्षयेच्चानुवासरं । रसराजेन्द्रनामायं विख्यातो प्राणिशांतिकृत् ॥ अयं प्राणोश्वरो नाम प्राणिनां शांतिकारकः । प्राणनिर्गमकालेऽपि रक्षकः प्राणिनां तथा । भक्षयेत् पखण्डेन कष्णेनापि वारिणा ॥ ज्वरं त्रिदोषजे घोरे सन्निपाते च दारुणो । लोहायां गुल्मवाते च शूले च परिणामजे ॥ मन्दाग्नौ ग्रहणीरोगे ज्वरे चैवातिसारके | अयं प्राणोश्वरो नाम भवेन्मृत्युविवर्जितः । सर्वरोगविषघ्नोऽयं पूज्यपादेन भाषितः ॥ टोका --- पारे की भस्म १ भाग, सोना मक्खी को भस्म २ भाग, अभ्रक की भस्म ३ तामे की भस्म ४ भाग, ये सब लेकर मुसली के स्वरस में घोंटे तथा उसमें १ भाग शुद्ध गन्धक मिलावे, खलमें ६ घण्टे तक बराबर घोंटे, सुखा कर कांचकी शोशी में रख कर मुद्रा देकर बन्द करे । उसके ऊपर खड़िया मिट्टी से सात कपड़मिट्टी करें और सुखावे, फिर सुखा कर उसके चारों तरफ बालुका से पूरण करे, १२ घण्टे बराबर आंच जलावे, तब रसों में राजा यह प्राणोश्वर रस सिद्ध हो जाता है । जब सिद्ध हो जाय तब देवतापूजन वगैरह धार्मिक क्रिया करे । इस औषधि के सेवन करनेके बाद नीचे लिखा चूर्या अनुपानरूप शेषन करं । भाग, www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ वैद्य-सार - अनुपान काली मिर्च, सोंठ, सजीखार, जवाखार, सुहागा, पांचो नमक, हींग, चित्रक, अजमोदा, जीरा सफेद एक-एक भाग तथा सौंफ ४ भाग सब को चूर्ण करके प्रतिदिन सेवन करे। इस रस का दूसरा नाम रस राजेन्द्र है। यह प्राणियों को शांति करनेवाला प्रसिद्ध है। वास्तव में इस का दूसरा नाम प्राणोश्वर रस है। प्राणों के निकलने के समय भी यह प्राणों का रक्षक है। इसको पानके रसके साथ गर्म जल के साथ सेवन करे तो यह त्रिदोषज ज्वर, कठिन से कठिन सन्निपात, प्लीहा, गुल्म रोग, बात रोग, परिणाम-जन्य शूल, मन्दाग्नि, ग्रहणी और वरातिसार में लाभदायक है। रोगरूपी विष का नाश करनेवाला और मृत्यु को जीतनेवाला यह प्राणोश्वररस पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ है १२६-जलोदरे शूलगजांकुशरसः निष्कत्रयं शुद्धसूतं द्विनिष्कं शुद्धटंकणम् । गंधकं पंचभागं च चैकनिष्कश्च तिन्दुकः॥१॥ चतुनिष्कश्च जैपालः तस्य द्विगुणताम्रकम् । सर्वतुल्य-तिलक्षारः वृत्ताम्लं तारमेव च ॥२॥ तद्वत्पलाशभस्मं च परिणष्कं सैंधवोषणम् ।। यवत्तारविड्लवणानि वर्चलसामुद्रके तथा ॥३॥ पिप्पलीत्रयनिष्कं वै चार्कदुग्धेन मर्दयेत् । निष्कमात्रप्रयोगेण जलोदरहरश्च सः ॥४॥ शूलगजांकुशरसः पूज्यपादेन भाषितः। टीका-८ माशा शुद्ध पारा, ६ माशा शुद्ध सुहागा, १॥ तोला शुद्धगन्धक, ३ माशा शुद्ध कुचला, १ तोला शुद्ध जमालगोटा, २ तोला तामें की भस्म, ५ तोला तिली का तार, . ५ तोला तिन्तड़ीक का क्षार, ५ तोला पलास का क्षार, १॥ तोला सेंधा नमक, ॥ तोला काली मिर्च, १॥ तोला जवाखार, १॥ तोला विड नमक, १॥ तोला काला नमक, १॥ तोला समुद्र नमक, ६ मासा पीपल इन सब को कूट कपड़छन करके अकौवा के दूध में घोंट कर - तीन-तीन रत्ती के प्रमाण से गोली बनाकर अनुपानविशेष से देवे तो जलोदर दूर होवे । यह शुलगजांकुश रस पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE JAINA ANTIQUARY An Anglo-Hindi quarterly Journal, Vol. III. ] DECEMBER, 1937. [ No. III. Editors: Prof. HIRALAL JAIN, M.A., LL.B., P.E.S., Professor of Sanskrit, King Edward College, Amraoti, C. P. Prof. A. N. UPADHYE, M.A., Professor of Prakrata, Rajaram College, Kolhapur, S.M.C. B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S., Aliganj, Distt. Etah, U.P. Pt. K. BHUJABALI SHASTRI, Librarian, The Central Jaina Oriental Library, Arrah. Published at THE CENTRAL JAINA ORIENTAL LIBRARY, ARRAH, BIHAR, INDIA, Annual Subscription : Foroigo Rs. 4-8. Inland Rs. 4. Single Copy 1-4, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om. THE JAINA ANTIQUARY. "श्रीमत्परमगम्भीरस्यावादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ Vol. III. Decr. ARRAH (INDIA) No. JNI 1937. PODANAPURA AND BY KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S. Takşašilā was a Aourishing city of ancient India and it has been identified with the ruins near Shahdheri in the Rawalpindi district of the Punjab province. Likewise Podanapura was an important town of India with a very remote antiquity ; but so far it has not been pointed out with a certainty that where it had its location. The learned editor of the Bhavisayatta Kaha" in his introduction, however, endeaioured to locate Podanapura in the Punjab province, rather he identified it with Takşasila." But taking into consideration the available information about Podanapura his view is hardly tenable. In the following lines I shall collect and give the available information about Podanapura, endeavouring to point its most probable locality. 1. Ancient Geography of India, Notes p. 681. 2. Gackwad Oriental Series No. XX. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA ANTIQUARY. [ Vol. III In the history of the Jainas, Podanapura holds a prominent place and the earliest mention of it in the Jaina literature, is found in the "Padmacarit" of Ravisena, where it has been described as Pautana, the capital of Vahubali, who was the son of Rṣabhadeva, the first Jaina Tîrthankara and who having fought successfully with his elder brother Bharata Cakravarti, renounced the world and became a naked saint, only to be first to attain liberation in this cycle of time.1 This very story has been narrated also, by the authors of Harivamsapurāņa and Mahāpurāna. They style it as Podana. In the Mahāpurāṇa it is said that the messenger who was sent by Bharat to Bahubali's capital Podanapur saw it filled with rice and sugarcane fields and the remarkable thing is that he reached Podanapura from Ayodhya in a limited time. And it is stated in Harivamsapurāņa that the messenger started from Ayodhya to west in order to reach Podanapura.* 58 Besides Podanapura's prominent mention in connection with Vahubali, we hear of it in the life story of Parsvanatha, the 23rd Tirthankara. The scene of the very first prebirth of the pious soul of Lord Parsva is laid up in Podanapura of the time of one Rājā Aravinda. Aravinda's priest was Viswabhūti, who had two sons Kamatha and Marubhuti. The latter's soul becomes the great Jain saint in an after birth. The story is so fascinating that it has been narrated by many a Jain poet. The renowned author of the Pārsvabhyudaya," I mean Sri Jinasena, intervenes the most of the famous Meghadūta' of Kālidās in his Kāvya. He had pointed there that. Kamatha, the brother of Marubhuti, having been banished from Podanapura, joined an Asrama of Tāpasas at the Ramgiri hill, which was situated on a bank of a river. " 5 Śri Vādirājsûri in his "Pārsvacarit " has also described Podanapura, as the capital of Suramyadeśa, famous for its Saîi 1. Padmacarit, Parva IV, sls. 67-77. 2. Harivansa purāņa sarga XI. 3. Mahāpurana (Indore ed) Parva XXXV. 4. Harivansa, Surga XI SI. 79. 5. Bloomfield's Life and Stories of Parcvanatha & qieàtner Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III ] PODANAPURA AND TAKŞASILĂ. 59 rice and had in its vicinity a mountain named Bhûtâcala. Sri Gunabhadrācărya in his “Uttarapurāņa", and Bhāvadevasūri in his " Pārsvacarit" also, describe this story and mention Podanapura as Paudana and Potana respectively.3" Kavi Dhanapala in his “ Bhavisayattakaha" also, mentions Podanapura. As the king of Kuru country refused to give his daughter in marriage to the King of Podanapura, the latter attacked him and a battle was fought. The allies of Kurus were Pancāla, Maccha and Kacchavas (Pancala-maccha-Kacchehivohi). The allies of the oppo site king of Podanapura were Sindhupati, Lambakaņņa and a few others, 3 In the "Uttarapuraņa" of Guņabhadrâcārya Podanapura has been described again and again as the capital of Suramya country which was situated in the southern part of Bharat or Bhāratavarşa.* Besides Pārsvanātha, as we have already seen, Podanapura has been connected there with the stories of Nārāyaṇa Triprasta and various other kings. One of the kings of Podanapura by name Pirañachandra had for his queen the princess of the king of Sāketa.' Another king of Podanapura was Vasusena, whose queen Nandā being a beautiful lady was taken away treachorously by his friend Canda, the king of Malaya.. In the Rámāyaṇa period the king of Podanapura was Traņapingala," while in the times of Mahabharata one Indravarmā ruled there, who was a descendant of Vahubali. King Simharatha of Podanapura had enemity with Jarasindha of Rājagraha.° Lastly when Mahavira, the last Jaina 1. प्रथम सर्ग श्लोक ३७-३८, ४८ and सर्ग द्वितीय श्लोक ६५ 2. staranja na feù HETTI ___ सुरम्यो विषयस्तत्र विस्तीर्ण पोदनं पुरं ॥ 3x. for fagassari ali 3. G. O. S. XX. 4. Uttarapurăra Parva 57. 5. Uttarapurāņa (Indore ed.) 59, 208 4. 6. Ibid, 60, 50--57. 8. Ibid, 67. 223–5. 7. Ibid, 72, 201. 9. Ibid, 70. 353–361. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 JAINA ANTIQUARY. | Vol. III Tîrthankara graced this country by his noble and pious presence, king Vidyudrāj ruled over Podanapura. His son Vidyutprabha was well-versed in the notorious art of theft and had his headquarters at Rājagraha. Even the later Jain authors such as Sakalakîrti in his “ Adipurâna " and Doddhiya in his " Bhujabalicarit" mention Podanapura as the capital of Vāhubali. The latter states that Bhujabali (Váhu. bali) the brother of Bharata was the ruler of Podanapura. Owing to some misunderstanding there was a battle between the two brothers, in which Bharata was defeated. Bhujabali however renounced the kingdom and became an ascetic. Bharata had a golden statue of Bhujabali made and set up there, which once became infested with Kukkuta Sarpas. A Jain teacher, named Jinasena, who visited southern Madhura, gave an account of the image at Podanapura to Kālaladevî, mother of Chamundarāya, who vowed that she would not taste milk until she saw Gommata. Being informed of this by his wife Ajitādevi, Chamundarāya set out with his mother on his journey to Podanapura. While staying at Śravanabelgola he came to know about the Kukkuța Sarpas. Hence he dropped his journey and set a colossal of Vahubali there. S The Jaina Kanarese literature also possess many a work such as Aditpurāņa, Bharatesa-vaibhava, Bhujabaliśataka, Gommațeśvaracharit, Rājāvalikathe and Sthalapurāņa, which give the story of Vāhubali with its all details and name Podanapura as his capital, where emperor Bharata erected a colossal of his brother when he became a great ascetic. 4 Inscription No. 234 of about 1180 at Śravanabelgola which is in the form of a short Kannada poem in praise of Gommața states that Bhujabali was the ruler of Podanapura, who retiring from the world performed penances and became a Kevali. Vāhubali or Bhujabali attained such eminence by his 1. Ibid. 76, 51-55 2. प्राहिणोदुत्तमं दूतं नीतिशास्त्रविशारदम् । स ततो दिवसैः कैञ्चिद्गत्वा तत्पोदनं पुरम् ॥१६॥ 3. Narasimhachara Srava!a Belgola pp. 10–11: 4. Ibid, p. 10. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III PODANAPURA AND TAKŞAŠILA. 61 victory over Karma, that Bharata erected at Podanapura an image in his form, 525 bow lengths in height, which bacame infested of cockatrices. Chamundaraya tried to visit it.' Thus it is clear from the above accounts that :1. Podanapura styled variously as Potana, Podana, Paudana and Podanpura, was a very ancient city, which occupied a prominent place in the traditional history of the Jainās. 2. That it was situated in the country named Suramyadesa in the southern part of Bhāratavarsha. 3. That rulers of Podanapura were connected with the house of Sāketa (Ayodhyā), being the descendants of Váhu bali, who was the son of Rşabhadeva of Ayodhya. 4. That these rulers of Podanapura had friendly or adverse relations with the kings of Ayodhya, Sindhu, Simhapura, Rājagraha Kuru, Malaya, etc. 5. That in its vicinity were the mountains of Bhütācala, Ramagiri and the country around was very fertile, well irrigated by the waters of various rivers, which produced Sali rice and sugarcane. The forest round Podanapura had the trees of Sandal and camphor peculiar to it, which are even lo-day the special trees of southern India. 6. And that at Podanapura there was a colossal of Vāhubali, which once became infested with the cockatrices and was mostly visited by the people of the extreme South India up to a very late period, so much so that Chamundraya with his mother in the 10th century set out for its pilgrimage ; but could not reach owing to its being inaccessible at the time. Thus it is clear that Podanapura was regarded a Tirtha by the Jainas of South India since it became sanctified with the extreme Tapasya and attainment of omniscience at the spot by Sri Vahubali. 1. Ec. II pp. 97-99. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 JAINA ANTIQUARY. [ Vol. III Turning to the non-Jain literature, we find Podanapura mentioned in the Buddhist Jātakas as the capital of Assakadeśa and the Suttanipata says that the Assaka country was beside the Godāvāri river and lay between the Sakya mountains, Western Ghauts and the Dandakarnya. The great Sanskrit lexicon Vrahdabhidhāna points that Paundya was the capital of King Ashamaka and the Ashamaka country is said to be in the south or south-west of India in Rāmāyaṇa (Kiṣkandhā-kanda).' But the question here arises that whether Podanapur of the Jains books is identical with the Potana and Paundya of the non-Jain literature? I would give its reply in affermative, since I find mentioned the country of Ashamaka in the Mahapurana as AshamakaRamyaka'. It means that either Ashamaka country was also known as Ramyaka or Suramya or it became split into two territories during the later period. The Jain Harivamsapurāņa, while giving the names of those countries of southern part of India, which the sons of Rṣabhadeva renounced owing to the aggression of their elder brother Bharat, names the country of Ashamaka among them.3 The Varahamihira has also counted the Ashamaka people with those living in south India and just after the Andhras. Rājasekhar in his "Kavyamimansa" placed also the Ashamaka country in south in very clear words. Sākaṭayana, who was very well acquainted with south India, hed also named the Ashamakas after the Salvas (i.e., Andhras).6 Kautilya peculiarised the country of Ashamaka for its diamonds and named it with the Rastrikas." In the region beyond the Vindhyas, which was in fact the Dakṣiņāpatha of the ancient India, we find Golcunda, the famous place for diamonds in the district of Aurangabad. Hence Ashamaka country seems to lie somewhere in the modern Berar and Nizam territories. 1. Jain Gazette XXII, 211. 2. Parva 16 Sb. 152. 3. Sarga xi sls. 70--71. 4. Ch. xvi sl. xi. 5. G. O. S. Vol. I Ch. xvii p. 92. 6. II, 4, 101. 7. अधि २ प्रकरण २९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III ] PODANAPURA AND TAKSASILĀ, The Suramya or Ramyaka country of the Jainas also seems in the light of above narrations to come into the same territory of Dakṣiṇāpatha. Moreover the Greek Geographer Ptolemy (140 A.C.) in his map of ancient India locates a country named Ramnai, which also falls in the modern Central Provinces and Berar with some division of the Nizam's dominions. It is most probable that Ramnai of Ptolemy represents the Suramya or Ramyaka of the Jain books. Therefore Podanapura being the capital of Ashamaka or Ramyaka should be find also, somewhere in the country named above. To make the point clear still further, let us see the whereabouts of the surrounding places of Podonapura as named in above Jaina narrations. Mountains of Bhūtācala and Rāmgiri are mentioned as we have already seen in connection with a prebirth of Lord Pārśva ; Vădirāja says that Kamatha went to join an āśrama or mountain Bhatīcala, while Jinasena tells us that Kamatha went to an āśrama of Tāpasas on Rāmagiri hill. It is possible that either the both mountains were identical or they formed two peaks of the saine range. Rāmgiri has been identified with the modern Riimateka in the Nāgpur division.' As to Bhūtācala, it ought to be somewhere in the vicinity of Rāmțeka. My friend Mr. Govind Pai suggests that Bhūtácala should be Betul of the same division, though it is a town at present but has many hills round about. Moreover it is not of much distance from the Ashamaka country as pointed in the map annexed to Prof. R. K. Mookerji's “Fundamental Unity of India." The Matsyapurāņa locates a country of the name of Tāpasas itself on the northern part of Dakşinäpatha,. which gets support from the mention of the same country as Tabassoi by Ptolemy. Therefore it is possible that Kamatha went to Bhutācala or Rāmagiri in the Tāpasa country to observe the penances there. Be as it may, it is clear from every 1. The Geog. Dictionary of ancient & Mod. India, BFAAT: 248. उपादित्याचार्य mentioned रामगिरि in त्रिकलिंग which is modern C. P. 2. Panini Office ed. SBH. xvii ch. cxiv. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 JAINA ANTIQUARY. I Vol. III view points that Podanapura and its surrounding mountains were situated in the northern part of Dakṣiṇāpatha. The Uttarapurāņa has a mention of Malaya mountains, with the Kubjaka Sallaki forest as well, where Marubhuti of Podanapura having died, was born as an elephant.? Cunningham locates this mountain in the Drávid country. Yuang Chwang put it 3000 li south from Kānchi. He “takes us from somewhere near Madura south-west of Tinnevelly district, where he refers to the Sandal producing Malaya mountain, then he speaks of Potalika (Podimalai hill.)3 The Jaina author further connect a river Vegavati with the story of Marubhùti, which too could be find in the Dravid country.* The Malayadeśa, whose king eloped with the consort of the king of Podanapura as mentioned above, was also in the south India.5 The princess of Podanapūra was given in marriage to the king of Simhapūra and it may be found just in the neighbourhood of Podanapura being situated in the southern part of Orissa.6 Khāravela's queen was a princess of Simhapur.? Hence it is obvious from the above facts that the Jaina and other authors locate Podanapura and its environments in the southern part of India and its location on the bank of Godavari, according to Buddhist evidence is justified. However we cannot take Podanapura to the extreme south of India, since in that case it would not be tenable to find the kings of Podanapura niaking friendship or waging war with the kings of Kurus, Sindhus and Košalas; as they did in fact. Moreover we find Chāmundaraya hastening to the northern border of south India to have a glimpse of Váhubali's colossal at Podanapura. Had Podanapura been in extreme south Chāmunda Raya had no need to travel over to northern border of South India ? 1. Augastirearà farya Aryal etc. 2. Geog. of ancient India, New ed, p. 627. 3. Ibid Notes p. 741. 4. Ibid p. 739. 5. Ibid. 6. Some Contributions of South India to Indian Culture p. 33. 7. Ibid. & J. B. O. R. S. iv 378. My friend Mr. Govind Pai identifies Podanapura with Bodhan in the Nizam Territories; to whom I am indebted for many useful suggestions in writing this article. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III) PODANAPURA AND TAKSAŠILA. Now since the locality of Podanapura is being held by the Jaina as well as non-Jaina evidence to be in the northern border of South India, it is apparently useless to talk of it in the extreme NorthWest of India. That part of India never abound with Śāli rice, Sandal trees and cockatrices. On the more it was never heard that there was a Jaina colossal in that part of India. South India has a great claim over Vāhubali, as he was their first king, who was lucky to be first to gain Liberation in this cycle of India ; therefore they set his more than one colossal and adored him more than the Jainas of northern India. But in the introduction of the Bhavisayatta-Kana, we find the following remarks to the contrary “Dr. Jacobi, on the strength of references in the Paumacariya of Vimalasuri, identifies it with Takassaila, but becomes doubtful when he finds our author referring to the army of Poyanavai as Sakeyanarindasinnu xiv 13,9 and Sakkeyajoha xiv 19,2. This Sakey or Sakkeya he identifies with Saketa or Ayodhya. Now it is quite true that Sakeya is the correct Prakrit for Saketa and that Sakkeya is an alternative form for the same. But there is another possible phonological equivalent of Sakey. Both these can also be Prakrit for Sakeya. Historically there is nothing against this identification. Saka kings have ruled over Taksasila. If this be correct, then there is nothing to come in the way of Podanapura being identified with Takşasila. The very close relations that appear to exist between the Sindhus and the Poyanas can be understood on the strength of a close geographical proximity, and not if they were apart as Sindh and Ayodhya."? With all deffidence to the learned scholar, I make bold to say that these remarks are not based on sound evidence. The “Paumacariya" is not before me. yet it is clear from the above facts that Podanapura of “Padmapurāņa" with all other Digambara Jaina works was situated in the northern part of South India. Kavi Dhanapāla too seems to locate it likewise, since he styles the army of Podanapura as Sakeyanarindusinnu, which term has puzzled even Dr. Jacobi, but in fact it can be reconciled easily, since we know that the kings of Podanapura were the descendants of Vāhubali, who was a scion and hailed from the house of Sāketa (Ayodhyā). It 1. G. O. S. xx Intrs. pp. 9–10. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA ANTIQUARY. [Vol. III cannot be reconciled with the Sakas of Takşasilā, since it is not evident that any of them professed or patronised Jainism. The remaining locations of Dhanapāla are also to be traced easily, just in the vicinity of Podanapura on Godavari. The close geographical proximity with concern to mutual relations existing between Sindhus and Poyanas, as described by Dhanapāla, comes near more clearly in placing Podanapura on the Bank of Godaveri and not at Takşašilā. For we know that the Sindhu of the Jaina writers was not the valley of great Indus, but it meant country near Vindhyā mountains. The people af Avanti are styled as Sindhus by Dhanapal can be relied upon, for we know that the Jaina authors place Viśālā in Sindhudesal and Kālidāsa called Ujjayani itself as Visāļā. Hence the close relations between the people :of closed connected countriescalled Sindhus and Poyanas is but quite natural. And this fact reconciles other difficulty as well. In the above named Introduction a great difficulty is felt in identifying the Kacchas, which has been dealt with as a very important place at the time of war between Poyanas and Kurus in the above Kahā. Certainly its position was similar to that of Belgium in the last great war. It is attempted in the said Introduction to identify it with Kāśmira, but that r.ot with certainty and accuracy. On the otherhand our location of Podanapura in the northern border of south India easily waves away this difficulty; for the Kacchas meant in the Kahā', seems to be no other people than the Kacchawaha Kșitriyas of Naravara district (Gwalior State) who had a strong and old settlement of theirs at that place. Its position really comes to that of Belgium in the case of war between Kurus and Poyanas. Hence we can say with certainty that Kavi Dhanapāla too placed Podanapura in the southern part of India. Besides places named as Podanur, Potali etc., are still found in South India ; but Taksasila has never been styled or had in its neighbourhood, places of that name. Under the circumstances and available evidence it is justified to say that the Podanapura of the Jaina books was not Taksasila, rather it was a prominent city of ancient Daksinapatha. 1. TRY TU, sfusafa, Pr a ta etc. 2. Healey “ faitai fareitaires Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Knowledge and Conduct in Jaina Scriptures (By Principal Kalipada Mitra, M. A., B. L., Sahitya-kaustubha.) In the Upanishad it is said: नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । ... 0.0 ... enferen graferentizāt antemnfga: I नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ The self cannot be gained by scripture-knowledge (Vedic knowledge), nor by intellect, nor by extensive learning. He who has not cut off his attachment to wicked conduct, who is not tranquil, nor subdued, nor has his mind in peace, can by mere knowledge, reach self. Here knowledge itself, howsoever great, availeth not, but what is of greater importance is conduct, which by causing cessation of wickedness, subjugation of passions, and creation of peace and tranquillity can help self-realisation. In the Jaina scriptures too by far the greatest importance is attached to Samyama (). I am quoting a few sutras by way of illustrating the point. सामाइयमाईयं सुयनाणं जाव बिंदुसाराओ | तस्सवि सारो चरणं सारो चरणस्स निव्वाणं ॥ The knowledge of scriptures (a) begins from sāmāyikam and extends to Bindusara. But caranam surpasses śrutajñānam in value. Indeed caranam is action known as samvara (ngai a :), check or restraint. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat But it may be said that both jina and kriyā are necessary for the attainment of moksa, for the saying is that without knowledge www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA ANTIQUARY [Vol. III action is killed ( becomes ineffectual ) "get iua ferer"; therefore both should be treated as equal; why should preference be given to caranam? The answer is: It is for the following reason. Jñāna only reveals or brings-to-light ( Tru PTI ); caranam, on the other hand, prevents the acquisition (or the inflow) of new karman and brings about the nirjarā (or the using up) of the previously collected karman. Jñana is only limited to the task of lighting up, caraṇam on the other hand purifies (the self ) of its karman-impurities and has therefore the principal qualification, hence it has greater value than jñāna. It is also said : नाणं पयासयं चिय गुत्ति विसुद्धीफलं च जं चरणं । मोक्खो य दुगाहणो चरणं नाणस्स तो सारो।। The commentary says, both jñāna and krijā are the causes of of nirvāṇa, only that the first place (grey) is to be given to krryā, and the second place () to jñāna, in as much as mukti is not attained even while kevalu jñāna is reached i.e., immediately along with it, but mukti is attained after the caraṇam of the last moment of the sailesil stage, hence caraṇam is the primary cause of nirvāņa. It is said : जं सवनाणलंभानंतरमहवा न मुञ्चए सव्वो। मुच्चर य सव्वसंवंरलाभे तो सो पहाणयरो॥ The niryuktikāra says: सुयनाणम्मिवि जीवो वट्टतो सो न पाउणइ मोक्खं । जो तवसंजममइए जोगे न चपर वोढुं जे। The frua possessing (lit. existing in ) even the śrutajñāna cannot reach mokṣa if he cannot practise self-control such as lapas and samyama, i.e., if he cannot practise austerities and possess selfrestraint. Without good kriyā mere knowledge cannot reach you the desired object, even as much as a boat which has a steers man 1. Sailesi is the 72nd stage of Ezertion in Righteousness in lect. 29 of Acáranga Sūtra (S. B. E. Vol. XXII), the 73rd and the last stage being har or freedom from कर्मन्, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III] KNOWLEDGE & CONDUCT IN JAINA SCRIPTURES knowing the way (cannot reach the desired destination ) if there be no wind to lead it in the desired direction. It is said : जह छेयलद्धनिजामोऽवि वाणिय गइच्छिय भूमि । वारण विणा पोषो न चएड् महण्णवं तरि । तह नाण लद्धनिजामओऽवि सिद्धिवसहि न पाउणइ । निउणोऽवि जीवपोओ तवसजममारुयविहीणो । As a boat which possesses a clever helmsman cannot reach the land desired by merchants by crossing the great sea without (favourable) wind, so (the boat of ) the jiva who possesses (the clever helmsman of) śruta-jñāna cannot reach the desired land (Faisवसति ) by crossing the ocean (of भव) without the help (wind) of संयमतपोनियम, self-restraint, austerities and observances. Therefore one should practise self-restraint and austerities without heedlessness (प्रमाद). संसार-सागराओ उच्चुड्ढो मा पुण निबुड्डेजा । चरणगुण विप्पहीणो, बुड्ढा सुबहुंपि जानंतो ॥ Having once emerged out of the ocean of samsāra, do not again merge into it. One who is completely devoid of the qualities of caraṇaḥ sinks again, although he knows much. Here an example is given of a turtle () who with much difficulty emerges out of a great lake rendered dark by the intricate tangle of moss, grass and leaves, who looks upon the full moon, but attracted by the ties of affection for relations, plunges back into the lake. He is the symbol of ignorance. Why should a knower plunge back? Because even vast knowledge is of no avail to the knower who is totally devoid of caranam, for his knowledge, empty as it is of fruit, is but no-knowledge. सुवहुपि सुयमहीयं किं काहे चरणविप्पहीणस्स ? अंधस्स जह पलिता देवसयसहस्सकोडीवि ।। What can immense knowledge of the scriptures do to one who is devoid of caraṇam ? Of what avail are crores of hundreds Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 JAINA ANTIQUARY of thousands of lighted lamps to the blind? पंपि सुमहीयं पगासयं होइ चरणजुत्तस्स । पक्कोऽवि जह पईवो सबक्खुयस्सा पयासेइ ॥ [ Vol. III Even the knowledge of one who has read but a little of the scriptures acts as the revealer if he practises caranam. Even if there be one lamp, it is the revealer to him who has the eye. जहा खरो चंद्णभारवाही भारस्स भागी नहु चंदणस्स | एवं खु नाणी चरणेण होणो, नाणस्स भागी नहुसुग्नतिए || As an ass bearing the burden of sandal wood is the sharer only of the burden and not of the sandal wood, even so, the knower, void of caranam, bears the burden of knowledge, but is not the sharer of good attainment. The commentary explains: The ass only suffers the pain of bearing the heavy load of the sandal wood, and does not enjoy the pleasure of smearing the body with sandal-paste etc. The knower also who is not self-restrained suffers the pain of acquiring knowledge-reading, remembering and thinking-but does not attain the destination of good deva-hood or man-hood. हयं नाणं कियाहीणं हया अन्नाणओ किया । great quaì zedì, aramrut q siya? || Knowledge without action is killed (becomes ineffective), action without knowledge is killed. The lame man, looking on, was burnt, so also, was the blind man, while fleeing. Here a story is told: Once there was a conflagration in a great city; in it lived two helpless men the one was lame, the other blind. The people of the city, frightened by the fire, with eyes rolling in distraction, began to flee from it, but the lame man, knowing full well the way of escape, but deprived of the faculty of movement, could not flee but was consumed by the gradually approaching fire. The blind man also possessed of the faculty of moving, but deprived of the faculty of seeing, and hence not knowing the way of escape, ran towards Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nr. III1 KNOWLEDGE & CONDUCT IN JAINA SCRIPTURES. 71 the fire and fell into a ditch brimful of burning coals and was consumed. The knower without self-restraint is unable to flee from the fire of karman; similarly the other fails without knowledge. It is said (by the Tirthakaras ) that only the conjunction of jiāna and kriyū bears the fruit of mokşa. Not by a single wheel does the chariot move. The blind man and the lame man having come together in the wood, and thus united, entered the city. Here a story is told by way of illustration. There was a forest fire. The blind man, not knowing (seeing ). was fleeing towards it, but being warned by a lame man, “Don't fee in that direction, for the fire is there", asked, "Where should I go?" The lame one said, “I am lame, and cannot move, so in front I can't show the way lying at a distance ; put me on your shoulder so that I may avoid the obstacles of thorns, fire etc., and with ease, lead you to the city." The other agreed and both of them reached the city happily. नाणं पपासयं सोहओ तवो सजमो य गुत्तिकरो। तिणहपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणियो॥ Knowledge is the revealer, tapas (practice of austerities) is the purifier, samyama (self-restraint ) is the protector. In the scriptures of the Jinas it is said that only in the conjunction of the three lies liberation ( mokşa). Here the following imagery is given. There is an empty room, with a door slightly ajar, and many windows, filled with profuse dust and filth driven in by the wind. Now some one wants to reside in the room; he wants to clean it; he shuts the door and all the windows for preventing the entry of dust and filth from outside. He lights a lamp in the middle of the room, and employs a man servant in drawing together the filth etc., in this affair, the lamp does service in revealing the impurity 'such as dust etc., the shutting of the door and the window in preventing the entry of outside dust, and the man servant in purifying by drawing together the dust ( and ejecting it). Here jñāni is that lamp which by its very nature, does service by revealing the impurity which is to be removed. Kriya Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JÁINA ANTIQUARY [ Vol. III again in the shape of tapas and samyama does good ; karman of eight kinds collected in many bhavas is purified by tapas, even as much as filth collected in the house is ejected by the man servant. Samyama is the closing of the doors of asrava ( karman inflow), it guards by restraining the coming in of the filth of new karman, even as much as the shutting of windows prevents the coming in of filth driven in by the wind. It may be objected, that this militates against the arta सम्यग्दर्शनशानचारिस्त्राणिमोक्षमार्गः । as it leaves out samyagdarśana ; but there is no fault here since darśana is included in jñāna. In the Pravacanasāra of Kunda-kunda Acāryya Ed. by B. Faddegon ( Jain Literature Society Series, Vol I Cambridge, 1935), Srutaskandha we read : 37. One does not attain by means of scripture-knowledge, if one does not believe in the categories (arthas ), nor does one believing in the categories, but lacking self-restraint, arrive at niryāņa Amstacandra Suri explains it in his Tattva-dipikā thus—"One does not attain perfection through knowledge produced by scripture, but destitute of faith ; or through faith, combined with that knowledge, but devoid of self-restraint." 41. Considering the groups of enemies and friends as the same, pleasure and pain as the same, praise and blame as the same, clay and gold as the same, the sramaņal is moreover the same in regard to life and death. Commentary-Self-restraint (samyama) is conduct accompained by absolute ( samyag) faith and knowledge. Conduct is duty (dharma); duty is equanimity : equanimity is a self-evolution devoid of infatuation and perturbation. Therefore equanimity is a characteristic of the self-restrainer. 1. The pikerit form samana presents a favourite similarity in sound to sama. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III] KNOWLEDGE & CONDUOT IN JAINA SCRIPTURES 73 So in regard to the two groups, enemies and friends, pleasure and pain, praise and blame, clay and gold, life and death he is the same. Whoso being free from the infatuation, 'this one is strange to me, this one belongs to me; this is joy, this is a torment, this is an elevation to me, this is humiliation has not in regard to any thing the duality of attachment, and aversion, who continually experiences the self as having for nature pure faith and knowledge, who having appropriated enemies and friends, pleasure and pain, praise and blame, clay and gold, life and death indistinguishably, merely as knowables, immovably abides in the self, which has knowledge for self, truly possesses equanimity in every regard. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jaina Chronology. (By Kamta Prasad Jain, M. R. A. S.) Continued from Vol. III, page 41. “THE PRE-HISTORICAL PERIOD EVENTS.” No. Period & Date. Event. 76 Magha Kraşņa Dvadasi. 77 Do. 78 Paușa Kraşņa Caturdasi. After nine caror sāgropamas since Puş. padanta got liberated, Sitalanatha, the tenth Tirthankara, born at Bhadrapura. His father was king Dradaratha and the name of his mother was Sunandā. After enjoying a peaceful worldly life, Śitalanātha renounced the world and set himself to observe severe penances and austerities as a naked Sramaņa. As a saint, he took his first meal at the house of king Punarvasu of Aristapura. At the end of three years, Šitalanatha destroyed the four ghātiya-karmas and became an omniscient teacher. Sitalanātha having preached the Dharma at large came to mount Sammed Sikhara and attained Nirvana from there. King Megharatha of Bhaddalpur in the | Malayadesa accepted the doctrines of Brāhmana Maundaśālayana and started to give gifts of gold, elephant, horse etc. Hence forward the Brāhmaṇas became hostile to Jainism. (Ref. Uttarapunina Parva 56, Slks. 30–86.) Asvina Sukla Aştami. 80 Kartika Šukla Purnimā. -- - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAIN ANTIQUARY. ( Vol. III No. Period & Date. Event 81 Phālguna Kraşna Ekādasi. Śreyāṁsanātha, the eleventh Tirthankara born at Simhapura, when one Sagropama years were elapsed since the Niravāņa of Sri Śitalanātha. His father King Vişņu ruled over Simhapura and his mother was queen Nandā. Do. Do. Having ruled for a long period, Sreyānsanātha installed his son by name Sreyamkara on the throne of Simhapura and adopted the life of a Digambara Muni. Do. Tryodași. Sramaņa Sreyānsa took his first meal from the hands of Prince Nanda of Siddhartapura. Māgha Kțaşna Amāvasyā. Śreyānsanātha having become an omniscient Teacher, began to preach Truth. The teachings of Jainism once again prevailed, since they became eclipsed after Šitalanātha. First Nārāyaṇa Traprasta and Baladeva Vijaya flourished at Podanapura, who defeated the greatest monarch of that time named Ašvagriva. Srivijaya succeeded Tșaprasta, who rescued his sister Tārā, absconded by a Vidyadhara prince. Phālguna Kļaşna | After 54 sagropama years since ŚreyChaturdasi. ānsanātha liberated Himself, Tirthankara Vasupujya flourished. Since three palya years before the birth of Vasupujya Jainism became extinguished. Vāsupujya's parents were king Vasupujya and queen Jayāvati. GE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III] No. Period & Date. 87 Phalguna Krasna Caturdasi. 88 90 89 Bhadrapada Sukla Caturdasi. 91 92 93 Magha Sukla Dvādasi. 94 Magha Sukla Caturdasi. Magha Sukla Chaturthi. Pausa Kraṣṇā Daśami. THE JAINA CHRONOLOGY, Aṣāda Kraṣṇā Aṣṭami. Event. 77 Prince Vasupujya having lived a celibate's life, became disgusted with the world and renounced it. Vāsupujya became an omniscient world Teacher and began to preach at large. Vāsupujya Tirathankara reached Mandaragiri (near modern Bhāgalapura in Behar) and attained Niravāņa from that place. Rājā Brahma ruled at Dvaravati and from his queen Usa the second Nārāyana Dvipraṣṭa was born, who killed his antagonist and a great oppressor of the time named Taraka. His brother was Achala Baladeva. After 30 sagropamas since the liberation of Vasupujya, Tirthankara Vimala was born. His father named Sukratavarma was a Ksatriya ruler of Kampilya and his mother was known Śyāmā. Before Vimala's birth Jainism lost its sway for one Palya years. as queen (Ibid, Parva 59 Sl. 23.) Prince Vimala having enjoyed the worldly life became a naked śramana and observed hard penances. Vimalanatha became a Kevali Jina and preached Jainism in the Aryakhanda. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Vimalanatha attained Nirvana from mt. Sammeda-Sikhara. (Ibid, 59-23) www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA ANTIQUARY. (Vol. III Period & Date. Event. 97 | Jyestha Krasņā Dvādasi. Do. 99 Chaitra Kļaşnā Amavasyā. Meru and Mandara were the renowned apostles of Tirathankara Vimala, who were sons of Rājā Anantavijaya of Mathura. (Ibid, 59-108.) Baladeva Dharma and Nārāyaṇa Svayambhu flourished at Dvārāvati. (Ibid, 59-63). After nine Sāgaropamas and palya Vimala attained Nirvāņa, Anantanātha born at Ajodhyā in the palace of Rājă Simhasena and queen Jayaśyāmā. Anantanātha renounced the world and observed penances for two months. Anantanātha became an omniscient teacher and began to preach the Dharma. Anantanātha attained to Nirvāņa from Sammeda-Sikhara. (Ibid, 60-23). Baladeva Suprabha and Nārāyaṇa Puruşottama flourished. (Ibid, 60-49). After four sāgaropamas since Anantanātha attained Nirvāņa, Jainism became obscure for a period of half palya Dharmanātha, tha fifteenth Tîrathankara born at Ratnapura where his father King Bhānu ruled with queen Suvratā. Dharmanātha adopted the vow of a naked śramaņa and observed penance for a full month. 100 Do. Māgha Šukla Tryodasi. 104 Do. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NO. III ] THE JAINA CHRONOLOGY. No. Period & Date. Event 105 Pauşa śukla Pūrņimā. Jyeștha Sukla Caturthi. 106 108 109 Dharmanātha gained omniscience and preached the Jaina Dharma once again. Dharmanātha attained Nirvāṇa from the mt. Sammeda-Sikhara. (Ibid., 61, 21-23). Baladeva Sudarsana and Nārāyaṇa PurusaSimha flourished. (Ibid, 61-56). Maghawā, the third Cakravarti monarch appeared at Ayodhyā. (Ibid, 61-68). Sanatakumār, the fourth cakravarti monarch and a küma-kumăra flourished at Ayodhyā. (Ibid, 61-104) After three Sāgaropamas less palya since Dharmanātha attained liberation, Tirthankara Sāntinātha born at Hastiņāpura. His father Viswasena was a scion of the famous Kuruvarśa and his mother queen Airā was a a Gāndhāra princess. He was a cakravarti monarch and a Kāmakamāra also. Sântinātha became a naked śramaņa | and observed penances for sixteen years. såntinātha gained omniscience and he preached the Dharma as a world Teacher, śāntinātha attained liberation from Mt. Sammeda-Sikhara. To be Continaed. 110 ! Jyeștha Kraşnı Caturdasi. 111 112 Do. Tryodasi. Pausa Suklā Ekadasl. Jyestha Kļaşna Caturdasi. 113 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE JAINA SIDDHANTA BHĀSKARA. (Gist of Our Hindi Portion : Vou IV, Pt. II) p.p. 71-93. Kamta Prasad Jain has collected available material from the Jaina and non-jaina literature referring to Rājagraha, the ancient capital of Magadha and has given an interesting historical sketch of it. p.p. 84–89. Jainācārya Vijaya Indra Sūri has critically reviewed the Gujarāti publication entitled “Prācina Bhāratavarşa" by Dr. T. L. Shah (Baroda) and has pointed out a few of his deliberate misrepresentation of facts. It is wrong to say that the Gommața colossal at Sravanabelagola is the creation of the Mauryan emperors and Mahāvira, the last Tirthankara attained Nirvāņa from Vidišā (modern Bhilsa). p.p. 90-101. Pt. K. B. Shastri has written on the origin and history of the Jain Prākrata literature: the Apabhramśa variety of which is the source from which Hindi originated. p.p. 103—109. Why the Bāhubali colossal is called Gommața ? by H. Govind Pai. p.p. 110–118. B. Agarchand Nähațā has thrown light on the Jain texts dealing with astronomy and medicine. Lists of available mss. are given. p.p. 119–122. K. P. Jain has pointed out on substantial evidence that the word Śri-Samgha 'donot mean the Svetāmbaras only. The Digambaras has also used this word for their own community. Likewise Tapā and Kharatara Gacchhas, originally belonging to the Svetambara sect, are found also in the Kāpthāsamigha of the Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III THE JAINA SIDDHANTA BHASKARA, SL Digambara sect. Inscriptions on the Digambara images of the 11th century A. D. mention Tapāgaccha, while a Digambara ms. at the Dig: Jaina Temple Mainpuri mentions Kharatara Gaccha. This ms. was written at Dacca in Bengal and bears the date as Śrāvana Kraşņa 8th, 2287 A. Vir. p.p. 125. Mr. Ajita Prasada, M.A., L.L.B., describes the main shrine of the famous Jaina Temple at Dharampurā Delhi, which was built by Lala Harasukharai of Delhi in 1803 A.D. K. P.J. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Select Contributions to Oriental Journals. 1. Indian Culture-Vol. IV, No. 1 ( July, 1937): Origin of the Kadambas-by D. C. Sarcar: Traditionally Mayura was the progenitor of the Kadambas and their family nam had connection with the Kadamba tree. The writer of opinion that the Kadambas were originally Brahman: hailing from north, they served under the sālavahanas a found a kingdom in the Kuntala country afterwards. - 2. Journal of the Andhra Historical Research Society-Vol. X pts. 1-4 (1936-1937): Geneology & Chronology of Western Gangas: From Marasimha to Rakkasa Ganga I-by M. Govinda Pai. 3. Karnataka Historical Review; Vol. IV, Nos. 1-2 (Jany.-Jul; 1937): Karnataka and Mohenjo Daro-by H. Heras: According to the writer's reading of the inscriptions on Mohenjo Daro seals. it is evident that some of them contain refarences t the people of Karnaṭāka. Delhi Sultans as Patrous of Jaina Gurus of Karnataka-by B. A. Saletore. The writer discusses at length and points out that the Jain teachers Simhakirti and Visālakirti were honoured respectively by Muhammad Tughlaq and Sikandar Sar of Delhi. 4. Indian Historical Quarterly-Vol. XIII, No. 3 (Sept. 1937). I Central Asiatic Provinces of the Maurya Empire-by H. C. Seth Maurya Chandragupta & Mayrabhanj Rulers-by B. Misra. Akbar's Religious Policy-by S. R, Sharma, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RULES. 1. The " Jaina Antiquary” (sa-fargla HITEKT) is an Anglo-Hindi quarterly, which is issued annually in four parts, i.e., in June. September, December, and March. 2. The inland subscription is Rs. 4 (including postage and foreign subscription is 6 shillings (including postage) per annum, payable in advance. Specimen copy will be sent on receipt of Rs. 1.4-0. 3. Only the literary and other decent advertisements will be accepted for publication. The rates of charges may be ascertained on application to THE MANAGER, The " Jaina Antiquary” Jain Sidhanta Bhavan, Arrah (India). to whom all remittances should be made. · 4. Any change of address should also be intimated to him promptly. 5. In case of non-receipt of the journal within a fortnight from he approximate date of publication, the office should be informed nt-once. 6. The journal deals with topics relatir.g to Jaina history, fography, art, archæology, iconography, epigraphy, numismawes, religion, literature, philosophy, ethnology, folklore, etc., from the earliest times to the modern period. 7. Contributors are requested to send articles, notes, reviews, etc., type-written, and addressed to, K. P. JAIN, Esq. M. R. A. S., EDITOR, " JAINA ANTIQUARY" Aligunj, Dist. Etah (India). (N.B.-Journals in exchange should also be sent to this address.) 3. The Editors reserve to themselves the right of accepting, cr rejecting the whole or portions of the articles, notes, etc. 9. The rejected contributions are not returned to senders, if postage is not paid. 10. Two copies of every publication meant for review should be sent to the office of the journal at Arrah (India). 1. The following are the editors of the journal, who work honorarily simply with a view to foster and promote the cause of Jainology: PROF. HIRALAL JAIN, M.A., L.L.B. PROF. A. N. UPADHYE, M.A. B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S. Pr. K. BHUTABALI SHASTRI. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शादि CaM DIRE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com