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' भट्टाकलंक का समय
मानने के समर्थक हेतुओं का संक्षिप्त रूप निम्न प्रकार है - १-आठवीं शताब्दी के मध्यकाल के विद्वान् सिद्धसेनगणि अकलंक के सिद्धिविनिश्चय
ग्रंथ का उल्लेख करते हैं। २-सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान् जिनदास महत्तर अपनी निशीथचूर्णि में
सिद्धि-विनिश्चय का उल्लेख प्रमावक ग्रन्थों में करते हैं। ३-अकलंक-चरित में लिखा है कि वि० सं० ७०० (६४३ ई०) में अकलंकयति का
बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ। ४-डाकर पाठक का कथन है कि कुमारिल अकलंक के बाद तक जीवित रहे, और
कुमारिल का समय सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है। ५-अकलंक ने अपने ग्रन्थों में धर्मकीर्ति का खण्डन किया है, किंतु रोजबार्तिक में
उन्होंने धर्मकीति के प्रत्यक्ष की परिभाषा का उल्लेख न करके दिङ्नाग-कृत परिभाषा का खण्डन किया है। अतः ऐसा जान पड़ता है कि राजबार्तिक की रचना उम्होंने अपने प्रारंभिक काल में की है और उस समय धर्मकीर्तिके वे ग्रन्थ-जिनका अकलंक ने अपने अन्य प्रकरणों में खंडन किया हैप्रकाश में नहीं आये थे। धर्मकीर्ति का कार्यकाल ६३५ से ६५० तक निर्णीत किया गया है अतः उस समय अकलङ्क को युवा होना चाहिये।
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