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१७४ भास्कर
[ भाग ४ किया है। और प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू नत्सांग के द्वारा अपने गुरु-भाई धर्मकीति का उल्लेख न किये जाने से यह भी स्पष्ट है कि उस समय वह विद्यार्थी थे। म नत्सांग ई० ६३५ तक नालन्दा में रहा और उसी वर्ष आचार्य धर्मपाल ने नालंदा विद्यापीठ के अध्यक्ष-पद से अवकाश ग्रहण किया। अतः धर्मकीर्ति की प्रमाणवार्तिक जैसी उत्कृष्ट रचनाएँ ई० ६३५ के बाद ही रची गई जान पड़ती हैं। यही वजह है कि अकलंक के न्यायविनिश्चय में जो धर्मकीर्ति के प्रमाण-विनिश्चय का स्मरण कराता है-हम धर्मकीति के प्रत्यक्ष के लक्षण का खण्डन पाते हैं। यदि अकलंक को आठवीं शताब्दी का विद्वान् माना जाय तो उक्त समस्या पर हृदयस्पर्शी प्रकाश नहीं डाला जा सकता। अतः अकलंक को दंतिदुर्ग या कृष्णराज प्रथम का समकालीन मानने की पुरानी मान्यता को छोड़ कर उन्हें सातवीं शताब्दी के मध्यकाल का विद्वान मानना चाहिये।
निष्कर्ष स्व. डा० विद्याभूषण, प्रेमी जी, तथा स्व० डा० पाठक-कथोपवर्णित शुभतुंग या साहस. तंग नाम के आधार पर राष्ट्रकूटवंशीय राजा कृष्णराज प्रथम को शुभतुंग और दंतिदुर्ग को साहसतंग ठहरा कर अकलंक को आठवीं शताब्दी के मध्यकाल का विद्वान् मानते हैं। बाबू कामता प्रसाद जी डा० पाठक के दंतिदुर्ग को साहसतंग ठहराने को बात के पक्ष में हैं। किंतु हमारी दृष्टि से दोनों मतों में कोई विशेष अन्तर नहीं है क्योंकि दोनों ही मत अकलंक को आठवीं शताब्दी का विद्वान ठहराते हैं। डाकर विद्याभूषण ने तो कृष्णराज को शुमतुंग मानने के सिवा अपने पक्ष के समर्थन में कोई हेतु नहीं दिया। डाकर पाठक का जोर दो ही हेतुओं पर है-एक कुमारिल का अकलंक के बाद तक जीवित रहना और दूसरा प्रभाचन्द्र का अकलंक का साक्षात् शिष्य होना। प्रथम हेतु के अनुसार डा० पाठक की यह मान्यता कि अकलंक पर कुमारिल ने आक्रमण किया है-अकलंक को सातवीं शताब्दी का विद्वान् मानने का ही समर्थन करती है यह हम ऊपर भले प्रकार सिद्ध कर आये हैं। दूसरा हेतु भी विष्ठानों के द्वारा खण्डित किया जा चुका है।
बाबू कामता प्रसाद जी ने अपने पक्ष के समर्थन में जिन हेतुओं का सङ्कलन किया था उनकी निस्सारता ऊपर सिद्ध कर दी गई है और कई नये प्रमाण देकर यह साबित कर दिया है कि अकलंक सातवीं शताब्दी के मध्यकाल के विद्वान् थे। अतः डाकर विद्याभूषण और पाठक की दुहाई देना बेकार है। अकलंक को सातवीं शताब्दी के मध्यकाल का विद्वान्
* हमारे सहयोगी पं० महेन्द्रकुमार जो से उनके मिस मि० तारकम ने जो निव्वतीय भाषा जानते हैं तथा उस पर से कई बौद्ध ग्रंथों का अवलोकन कर चुके हैं-यह बात कही थी। .'
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