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हुए
लेन सा० और रैकस सा० लोगों में बहुत ही प्रसिद्ध थे । रैकस (Raikes) सा० ने सन् 'रकसगंज' बसाया था और उसके बाद लेन सा० ने 'लेन – टेंक' सन् १८७२ ई० में मैनपुरी में वैश्यों की संख्या ७४३३ थी, जिनमें ये जैनी अग्रवाल, खंडेलवाल, बुढ़ेलवाल आदि उपजातियों में बँटे
१८४८ - १८५० ई० में (तालाब) बनाया था । अधिकांश जैनी थे । *
थे !
भास्कर
माग ४
विक्रमीय १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध - भाग में वहाँ बुढ़ेले जैनियों की प्रधानता थी । उनमें मी 'रुइया' वंश के महानुभाव प्रमुख और राज्यमान्य थे I उस समय वहाँ चौहानवंशी राजा दलेलसिंह जी का राज्य था; किंतु मालूम ऐसा होता है कि दिल्ली के हया-वंश मुसलमान बादशाहों के वह करद थे, क्योंकि तात्कालीन कवि कमलनयनजी ने मैनपुरी को आगरा सूबा, सरकार कन्नोज, चकला इटावा, परगना भीमगाम (भोगाँव) में अवस्थित लिखा है । यह शासन व्यवस्था मुग़ल-सरकार की थी, यह बात 'आइने अकबरी' कं देखने से स्पष्ट होती है । उल्लिखित कवि कमलनयन जी हमें बताते हैं कि मैंनपुरी के जनियों में तब साहु नंदराम जी प्रमुख थे। केवल जैनियों के ही नहीं, बल्कि वह पुरवासियों, के सिरमौर थे । उन्हें वह काश्यपगोत्री नगरावार कहते हैं | वर्तमान 'रुइया - वंश' के ज्ञात आदिपुरुष श्रीशिवसुखराय जी थे, जिनके पुत्र कुंदनदास और पौत्र नंदराम थे । नंदरामजी ने रुई का व्यापार आरंभ किया था, जिस की वृद्धि उनके पुत्र साहु धनसिंह जी ने की थी । इस व्यापारिक सफलता के कारण ही साहु नंदराम का वंश था । साहु नंदराम की संतति में साहु उतफ़तराय जो थे,
'रुइया' नाम से प्रसिद्ध हुआ
जो लेखक (का० प्रसाद) के
See:Statistical, Descriptive and Historical Accounts of the N. W. P. of India by E. T. Atkinson, Vol. IV. pp. 474-720.
ተ
" आगरे के सूबे में चकत्ता इटावा बसै, जाक सिरकार कन्नौज एक अनिये । तिसही इटाए के पहने में भीमप्राम, तिसमें मैनपुरी जहां राजे रजवानी पैसृपति दलेल सिंघ जाने कोई नांहि विंगदेहि, सदा दान दीन दुखी पहिचानिये ।" — जसवन्तु नगर के जैन मंदिर में विराजमान हस्तलिखित "जिनदत्त चरित्र" में देखों
" जाति बुढ़ ले वंश जदु । मैंमपुरी सुख वासु ॥ 'नगरावार कहावते, कासिप गोत सु तासु ॥ नन्द राम इक साहू वहीं, पुरवासिन सिरमौर ।"
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- देखा वरांग चरित्र उपरोक्त मन्दिर में ।
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