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प्रशस्ति-संग्रह
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इस 'सरस्वतीकल्प' के अन्तिम पद्य से इसके रचयिता मलयकीर्ति ज्ञात होते हैं । साथ हो साथ इसी पद्य से यह भी विदित होता है कि यह मलयकीर्ति प्रायः विजयकीर्तिगुरु के शिष्य हैं। पर "विजयकीर्तिगुरुकृतमादरात्" इस चतुर्थ चरण का सम्बन्ध किसके साथ है-यह अभी ठीक नहीं समझ पड़ता। बहुत कुछ संभव है कि इस श्लोक की प्रतिलिपि करने में लेखक ने भूल की हो। इसलिये जबतक इसकी शुद्ध प्रति नहीं मिलती तबतक सन्देह-निवृत्ति होती नहीं दीख पड़ती |
अस्तु, 'एपिग्राफिका कर्नाटका' जिद के शिलालेख नं. १०४ में एक विजयकोतिगुरु का उल्लेख मिलता है। मलपकोर्ति के द्वारा प्रतिपादित विजयकीर्तिगुरु यदि यही हों तो उक्त शिलालेख के ही आधार से इनका समय सन् १३५४ अर्थात् १४ वीं शताब्दी सिद्ध होता है। अतः इस सरस्वतीकल्स के रचयिता मलयकोर्ति का समय भी लगभग यही होना चाहिये। अस्तु, अर्हद्दास-रचित भी एक 'सरस्वतीकल्प' सुना जाता है। वह इससे भिन्न होना चाहिये। इस कृति के आदि और अन्त में 'सरस्वतीकल्प' लिखा मिलता है। मन्त्रशास्त्र में कल्प का लक्षण यों बतलाया है-जिन ग्रन्थों में मन्त्र-विधान, यन्त्रविधान, मन्त्र-मन्त्रोद्धार, बलिदान, दीपदान, आह्वान, पूजन, विसर्जन और साधनादि बातों का वर्णन किया गया हो वे ग्रन्थ 'कल्प' कहलाते हैं | प्रधानतया इस प्रस्तुत कृति को एक मंत्र-स्तोत्र ही कहना चाहिये। फिर भी यन्त्रोद्धार, जाप्य एवं होममन्त्र आदि का इसमें उल्लेख पाया जाता है इसी से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता ने कल्पनाम की सार्थकता समझी होगी। मंत्रशास्त्र के जिज्ञासुओं के लिये इसके निम्नलिखित कतिपय श्लोक उपयोगी हैं :
"जाप्यकाले नमःश मन्त्रस्यान्ते नियोजयेत् । तदन्ते होमकाले तु स्वाहा शई नियोजयेत् ॥ सवृन्तकं समादाय प्रसून ज्ञानमुद्रया । मन्त्रमुच्चार्य सन्मन्त्री मुञ्चेदुन्छवासरचनात् ॥ महिषाक्षगुग्गुलेन प्रविनिर्मितवणकमात्रवटिकानां | मधुरत्रययुक्तानां तोपर्वागीश्वरी वरदा ॥ दिकालमुद्रासनपलवानां भदं परिज्ञाय जपेत् स मन्त्री ।
न चान्यथा सिध्यति तस्य मन्त्रः कुर्वन् सदा तिष्ठतु जाप्यहोमम् ॥ * देखें-मद्रास व मैपूर पान के प्राचीन जैन स्मारक' पृष्ठ ३" ___ मन्सशाखा के विषय में विशेष बात जानने के इच्छुक विद्वान् भास्कर माग :, किरण ३ में प्रकाशिन 'जैनमन्त्र-शान' शीर्षक लेख देखें ।
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