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भास्कर
[भाग ४
मन्त्र या देव-देवियों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होते हैं। इसीसे ऐसे कलुषित साधकों को वे सिद्ध होते भी कम। यह तो लोकोपकारक विद्या है। अत एव स्त्री-वश्यादि प्रकरणों. में परस्त्रोवश्यादि को मन्त्रशास्त्र में सर्वथा निन्द्य ठहराया है। यह है भी ठीक-अन्यथा इन दुर्व्यवहारों के साधक का स्वदार-संतोषादि व्रत किसी प्रकार कायम नहीं रह सकता। साथ ही साथ अधिकतर कमजोर दिलवाले सोधक साधनकार्य में प्रवृत्त होते हुए किसी कारणवश घबड़ा कर या भयभीत होकर कष्टसाध्य समझ उसे बीच ही में छोड़ देते हैं। ऐसे ज्वलंत दृष्टांत एक नहीं अनेकों उपस्थित किये जा सकते हैं। इस प्रकार के कार्य से साधक अपनी अभीष्ट-सिद्धि प्राप्त करना तो दूर रहा–प्रत्युत क्लेश उठाता है। यह स्वाभाविक बात है कि कोई भी देव-देवी साधक को इच्छानुवर्तिनी होने के पूर्व उनकी खरी परीक्षा लेती हैं। साथ ही साथ इनके मन में यह विचार भी उठना स्वाभाविक है कि यह साधक किस उद्देश से हमें सिद्ध करना चाहता है। कहीं इन्हें यह पता लग गया कि साधक का हृदय स्वार्थ-वासना से दूषित है तो फिर कहना ही क्या ? एक बात और है; जिस प्रकार लोक में एक सामान्य व्यक्ति को वश करना साधारण बात है और एक विशिष्ट व्यक्ति को वश करना एक विशिष्ट बात है, उसी प्रकार साधारण देव-देवियों को सिद्ध करना बहुत आसान है-पर विशिष्ट देव-देवियों को वशवर्ती बनाना सहज बात नहीं है। उसके लिये विशिष्ट शक्ति, धैर्य एवं अध्यवसाय की आवश्यकता होती है। वे बहुत परिश्रम से सिद्ध होती हैं। हो, सिद्ध होने पर न सामान्य कारणों से उनका सम्बन्ध-विच्छेद ही हो सकता है
और न वे साधक को एसा कोई मार्मिक आघात हो पहुंचा सकती हैं। परन्तु किन्हीं साधारण देव-देवियों पर कोई विश्वास नहीं किया जा सकता। आज वे साधक से सन्तुष्ट हैं—कल ही ज़रा सी त्रुटि पर उनसे असन्तुष्ट हो सकती हैं। बल्कि इस असंतुष्टि से वे अपने उपासक की अत्यधिक क्षति भी पहुंचा सकती हैं। इसके भी पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं।
कुछ शताब्दियों के पूर्व भारतवर्ष में हिन्दू, जैन एवं बौद्ध प्रत्येक धर्म में इस मन्त्रशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् अधिकतर उपलब्ध होते थे और वे एक से एक विशिष्ट चमत्कार को दिखला कर लोगों को चकित कर देते थे। बल्कि उस जमाने में इस मन्त्रशास्त्र के द्वारा प्रदर्शित इन चमत्कारों से बहुत से भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी भी प्रभावित हो अपने धर्म में दीक्षित होते थे। उस समय जिस धर्म में इस मन्त्रशास्त्र का बोल-बाला नहीं वह धर्म निर्जीव सा समझा जाता था। उन दिनों मन्त्रशास्त्र का एकाधिपत्य इसी से ज्ञात होता है कि शौचादि (मलमूत्र-परित्याग) से लेकर बड़े से बड़े यागादि कृत्य की नकेल इस शास्त्र के सदा हस्तगत रहती थी। यही कारण है कि निवृत्ति-माग-प्रधान जैन धर्म भी इससे नहीं बच सका। साधारण
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