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किरण ३ ]
जैनमन्त्र-शास्त्र गृहस्थों की बात कौन कहे बड़े बड़े तपोनिष्ठ मुनि भी अपने मार्ग के प्रतिकूल होने पर मी इससे मुक्त नहीं हो सके। क्योंकि उन्होंने समझा था कि इस युग में इसकी अवहेलना करने से फिर पीछे धर्म को रक्षा करना कष्टसाध्य हो जायगा।
वास्तव में मन्त्रशास्त्र योग का एक अंग है। इसे 'मन्त्रयोग' भी कहते हैं। जैन परिभाषा में यह पदस्थ-ध्यान के अन्तर्गत है। सुप्राचीन काल में यह केवल आध्यात्मिक सीमा के अन्तमक्त था। किन्तु भारतवर्ष में एक ऐसा भी समय आया. जब कि इस शास्त्र की खास तौर से वृद्धि हुई। उस समय इसकी अनेक शाखा-प्रशाखायें निकलों और ये
आध्यात्मिक-विकाश को सोमा का उल्लङ्घन कर प्रायः लौकिक कार्यों को सिद्धि का प्रधान साधन बन गयों। यही तांत्रिकयुग' के नाम से प्रख्यात है। जैसा मैं ऊपर लिख चुका हूं इस युग में मंत्र, तंत्र एवं यंत्रों का पर्याय आविष्कार तथा प्रचार हुआ और इस विषय के अनेकों ग्रंथों की रचना हुई। उस समय "कितने ही अध्यात्मनिष्ठ जैन साधु इस लोकप्रवाह में अपने का नहीं रोक सके। इसलिये उन्होंने भो समयानुकूल अपने मंत्रशास्त्र को संस्कारित किया, अनेक अतिशय-चमत्कार दिखलाये, अपने मंत्रबल से जनता को मुग्ध कर उसे अपनी ओर आकर्षित किया और लोगों पर यह भलीभाँति प्रमाणित कर दिया कि उनका मंत्रबाद किसी से कम नहीं है-प्रत्युत वढ़ा चढ़ा है। साथ ही, उन्होंने कितने ही मंत्रशास्त्रों की मी सृष्टि कर डाली, जिन सब का मूल 'विद्यानुवाद' नाम का १० वाँ 'पूर्व बतलाया जाता है”। ___ अस्तु, मन्त्रशास्त्र का विषय बहुन हो गहन एवं गंभीर है। इसीलिये उसे झट-पट समझ लेना यह आसान काम नहीं है। शास्त्रों में जो इसका विवेचन मिलता है, वह अत्यधिक सुन्दरः बुद्धिगम्य एवं मननीय है। जैन-साहित्य में जालिनीमत, विद्यानुशासन, मालिनीकल्प, भैरवपद्मावती-कल्प, भारतीकल्प, नमस्कारमन्त्रकल्प, कामचाण्डालिनी-कल्प, प्रतिष्ठाकल्प, चक्रेश्वरी-कल्प, सूरिमन्त्रकल्प, श्रीविद्याकल्प, ब्रह्मविद्याकल्प, रोगापहारिणी-कल्प, वद्ध मानकल्प, सरस्वतीकल्प, गणधरवलयकल्प. श्रीदेवताकल्प, वाग्वादिनीकल्प और घण्टाकर्णकल्प आदि मंत्रशास्त्र के अनेक मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त पद्मावतीस्तोत्र, जालिनीस्तोत्र, पार्श्वनाथ-स्तोत्र, कुष्माण्डिनी-स्तोत्र, सरस्वती-स्तोत्र और ब्रह्मदेव-स्तोत्र
आदि कई मंत्रस्तोत्र भी पाये जाते हैं। प्रनिष्ठा एवं भिन्न-भिन्न आराधना-सम्बन्धी ग्रंथों में मो इस विषय को काफी चर्चा की गयी है। जैनाचार्यों ने मन्त्र-व्याकरण एवं मन्त्रकोष या बीजकोष की भी रचना की है। बल्कि सुनने में आता है कि प्रातःस्मरणीय आचार्य समन्तभद्र ने भी एक मन्त्र-व्याकरण का प्रणयन किया था। उपलब्ध दिगंबर साहित्य में मन्त्र
* देखें अनेकान्त' पृष्ट ४२.
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