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एक प्राचीन गुटका
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कहों होगा। इन रचनाओंसे हिन्दी-साहित्य की प्रगति और हिन्दी के उत्पत्ति-क्रम पर प्रकाश पड़ता है। ये रचनायें अपभ्रंश-माषा और १८ वीं-१९ वीं शताब्दी के बीच की लड़ी हैं। इनसे स्पष्ट है कि किस प्रकार अपभ्रंश से पलटते-पलटते हिन्दी की आविर्भूति हुई । सचमुच जैन-साहित्यभाषा और इतिहास-सम्बधी नवीन प्रकाश उपस्थित करने से अमूल्य प्रतीत होता है। आगे इस गुटके में 'सोलहकारणवत रास' इस प्रकार दिया हुआ है:
"वीर जिणेसर वसास करी गोयम पणमेसउ । मोलहकारण चरत-सार तहि रासु कंग्सउ ॥ जंबूदीवह भारतपेत मगध छइ देस । राजगृह छ। नगर हेमप्रभ राजधनेस ॥ १ ॥
एक चित्तु जो व्रत कर नम अहवा नारी । तीर्थकर-पाद सो लहइ जो समकित धारी ॥ सकलकीरति मुनि रासु कियउ ए सोलहकारण |
पदहिं गुणहिं जे संख लहि तिह सिवसुह कारण ॥" . इसके बाद 'जीवसुलक्षण' लिखा हुआ है, जो इस प्रकार है:
“जीव सुलक्षणा हो, जिणवर भासिउ एम | परिग्रहा पाहुणा हो विहाड़इ सुरधरमु-जेम ।। विहंडतु सुर घणु जेम परिगहु, कहा तिस सिउ रचइ | नित ब्रह्मलोक विचारि हीयड़ा दुष्ट कम्महं वंच॥ पिय पुत्त-बंधुवसयलु अवधू रूप रंगण देषणा ।
संवेग-सुरति संभालि थिरुमति, सुणउ जीव सुलक्षणा ॥ हंसा दुर्लभी हो, मुकति-सरोवर तीरि, । इन्दिय चाहिया हो पीवत विषयहनीर ॥ अति विषयनीर पियास लागी, विरह व्यापति आकुल्यो । बारह अनुप्रता-सुरति छड़िय, एम भूलौ बावलो॥ अब होउ ऐतउ कहउ तेतउ, सुम्भद्धवंसहं-जन्मण ।
सन्यास-मरणउ अप्प-सरणउ परम रयणन गुणु ॥" उपरांत केवली और यंत्र देकर गुटका समान किया गया है। इस तरह इस गुटके का परिचय है। इति 3० सं०४-६-२३
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