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________________ भास्कर [भांग तन्त्र-औषधियों के द्वारा कार्य सिद्ध करना तंत्रसाधन है। कितने ही तंत्रों में यंत्र, मंत्र का भी उपयोग होता है। मंत्र, यंत्र तथा तंत्र का एक दूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह तंत्र भी मंत्र-शास्त्र का अंग ही है। अब मैं बतलाना चाहता हूं कि यंत्रमंत्रादि से कौन कौन से काम लिये जाते हैं और वे कुल कितने विभागों में विभक्त हैं। (१) स्तम्भन (२) मोहन (३) उच्चाटन (४) वश्याकर्षण (५) जृम्भण (६) विद्वेषण (७) मारण (८) शांतिक (९) पौष्टिक। इस प्रकार मंत्र का प्रयोग प्रायः नौ प्रकार का होता है। स्तम्भन-जिस मंत्र-यंत्रादिक के प्रयोग से सर्प व्याघ्रादि श्वापद, भूत-प्रेतादि व्यन्तर, परचक्र (शत्रुसेना) आदि के आक्रमण का भय दूर होकर वे जहाँ के तहाँ निष्क्रिय से स्तम्भित रह जायँ उसे स्तम्भन कहते हैं। मोहन-जिस प्रयोग के द्वारा साधक किसी को भी मोहित कर ले उसे मोहन कहते हैं। मोहन प्रयोग के प्रधानतया तीन भेद हैं-(१) राजमोहन (२) सभा-मोहन (३) स्त्रीमोहन। उच्चाटन-जिस प्रयोग से किसी का मन अस्थिर, उल्लासरहित एवं निरुत्साह होकर पद-भ्रट एवं स्थान-भ्रष्ट हो जाय उसे उच्चाटन कहते हैं। किन्तु इस प्रयोग-द्वारा कोई प्रेमान्ध व्यक्ति अपने प्रेमपात्र का चित्तोचाटन करे तो इसका दुरुपयोग ही समझा जायगा। भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षसादि पीडाप्रद व्यन्तरों को किसी पीड़िन प्राणी से दूर भगाने के लिये ही इस उच्चाटन प्रयोग की सदुपयोगिता कही जायगी। वश्याकर्षणजिस प्रयोग से इच्छित व्यक्ति या वस्तु साधक के पास स्वयं चला आये-उसका विपरीत मन मी अनुकूल होकर साधक के आश्रय में आ जाय, उसे वश्याकर्षण कहते हैं। इसके द्वारा सर्प, व्याघ्रादि तिर्यञ्च, स्त्री-पुरुषादि मनुष्य एवं भूतप्रेतादि व्यंतर आकृष्ट हो जाते हैं। जृम्भण-जिस प्रयोग के द्वारा शत्रु एवं भूत-प्रेतादि व्यंतर साधक की साधना से मयत्रस्त हो जायँ, दब जायँ, काँपने लग जायँ उसे जम्मण कहते हैं। विद्व षण-जिस प्रयोग से कुटुम्ब, जाति, देश आदि में परस्पर कलह और वैमनस्य की क्रांति मच जाय उसको विद्वेषण कहते हैं। मारण-आततायियों को मंत्रप्रयोग-द्वारा साधक प्राणदण्ड दे सके, उस प्रयोग को मारण कहते हैं। पर है यह बड़ा ही कर प्रयोग। शांतिक-जिस प्रयोग के द्वारा भयङ्कर से भयङ्कर व्याधि, ब्रह्मरासादि भयानक व्यंतरों की पीड़ा, करग्रह, जंगम एवं स्थावर विष-बाधा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्षादि ईतियाँ, और चौरभयादि प्रशांत हो जायँ उसे शांतिक कहते हैं। पौष्टिक-जिस प्रयोग के द्वारा सुख-सामग्रियों की प्राप्ति होती है उसे पौष्टिक प्रयोग कहते हैं। किसी किसी के मत से सांतानिक प्रयोग अर्थात् वंध्यात्व से मुक्त होना भी एक अलग प्रयोग माना गया है। परंतु बहुसंख्यक मांत्रिकों ने इसे उल्लिखित प्रयोग में ही गर्मित किया है। हाँ, यहां एक बात बतला देना परमावश्यक है कि इन नौ प्रयोगों में से सात्विक साधक मारण, मोहन आदि क्रूर कों को पसंद नहीं करते। वे केवल लोकोपकार की यि से शांतिक, पौष्टिकादि सौम्य प्रयोगों का ही उपयोग करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034880
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Professor and Others
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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