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________________ १६६ भास्कर [ भाग ४ वार्तिक के तीसरे परिच्छेद की १२४ वीं कारिका के ही शब्द हैं। न्यायविनिश्चय की एक कारिका का पूर्वाद्ध है-"भेदानां बहुभेदानां तत्रैकत्रापि संभवात् ।" यह प्रमाणवातिक के "भेदानां बहुभेदानां तत्रैकस्मिन्नयोगतः ॥ १-९१ ॥” का ही उत्तर है। इसी तरह प्राप्त मीमांसा-कारिका ५३ की अष्टशती में "न तस्य किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम्" आता है। यह प्रमाण-वार्तिक के प्रथम परिच्छेद की २७९ वी कारिका का उत्तरार्द्ध है, तथा अष्टसहस्री पृष्ठ ८१ ने अष्टशतीकार अकलङ्कदेव ने 'मतान्तरप्रतिक्षेपार्थ वा' आदि लिख कर जो बौद्धों के निग्रह-स्थानों की आलोचना की है वह धर्मकीर्ति के 'वादन्याय' का ही खण्डन किया है। अतः इसमें तो विवाद ही नहीं कि अकलङ्क ने धर्मकीति का खण्डन किया है। किन्तु इससे धर्मकीर्ति और अकलङ्क के बीच में एक शताब्दी का अन्तराल नहीं माना जा सकता, जैसा कि लेखक ने लिखा है। दो समकालीन ग्रन्थकार भी-यदि उनमें से एक वृद्ध हो और दूसरा युवा हो तो-एक दूसरे का खण्डन-मण्डन कर सकता है और इतिहास में इस तरह के अनेक दृष्टान्त मिलते भी हैं। अतः धर्मकोति का खण्डन करनेके कारण अकलङ्क को उनके १०० वर्ष बाद का विद्वान् नहीं माना जा सकता। ५ डाक्टर के० बी० पाठक ने अपने कई लेखों में इस बात को सिद्ध किया है कि कुमारिलमट्ट ने समन्तभद्र और अकलङ्क के कुछ मन्तव्यों पर आक्रमण किया है, अतः कुमारिल अकलंक के समकालीन होते हुए भी अकलंक के बोद तक जीवित रहे थे। भण्डारकर प्राच्यविद्या-मन्दिर की पत्रिका जिल्द ११, पृ०१४९ में समन्तभद्र के समय पर उन्होंने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने अकलंकदेव और उनके छिद्रान्वेयो कुमारिल के साहित्यिक व्यापारों को ईसा की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रखने की सलाह दी थी। बा० कामताप्रसादी ने भी अपने पक्ष के समर्थन में डा० पाठक की सलाह को अपनाया है और कुमारिल का सुनिश्चित समय-न मालूम किसके अधार पर-ई० स० ७०० से ७६० तक बतलाया है । प्रथम तो कुमारिल को यह सुनिश्चित समय ठीक नहीं है जैसा कि मैं बतलाऊंगा। और यदि इसे ठीक भी मान लिया जाये तो डाकर पाठक का यह मत कि कुमारिल अकलङ्क के बाद तक जीवित रहे है, लेखक के दिये गये अकलङ्क और कुमारिल के समय से ही वाधित हो जाता है। लेखक ने अकलंक का कार्यकाल ई० ७४४ से ७८२ तक लिखा है और कुमारिल का ई० ७०० से ७६० तक। इस से तो अकलंक का कुमारिल के २२ वर्ष बाद तक जीवित रहना सिद्ध होता है, जो लेखक के द्वारा स्वीकृत डाकर पाठक के मत से बिल्कुल विपरीत है। भण्डारकर-प्राच्य-विद्या-मन्दिर पूना को पत्रिका, जिल्द १३ पृष्ठ १५७ पर मुद्रित .. देखें, नैनजगम्, वर्ष 8, अंक १५, १६ में प्रकाशित 'समन्तभद्र का समय और डा. के. बी.. पाठक, शीर्पक पं: जुगलकिशोर जी मुख्तार का लेख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034880
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Professor and Others
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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