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मिर ३]
भट्टाब्लंक का समय
जान पड़ता। किन्तु, जैसा कि लेखक महोदय ने लिखा है, यद्यपि डा. मण्डारकर ने अपनी रिपोर्ट में हरिवंशपुराण में अकलङ्कदेव के स्मरण किये जाने का उल्लेख किया है, तथापि हमें उस ग्रन्थ में ऐसा कोई स्थल न मिल सका। वा० कामताप्रसाद जी ने ऐसे दो स्थल खोज निकाले हैं, वे स्थल हैं हरिवंश-पराण के पहले सर्ग का ३१वां और ३९वाँ श्लोक । लेखक का कहना है कि इन से प्रकरान्तर-रूप में अकलंक का उल्लेख हुआ कहा जा सकता है। किन्तु यह लेखक का भ्रम है। असल में ३१वें श्लोक में ग्रन्यकार ने 'देव' शब्द से अकलंकदेव का स्मरण नहीं किया है, किन्तु जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता प्रसिद्ध शाब्दिक देवनन्दि काजिनका दूसरा नाम पूज्यपाद भी था -स्मरण किया है।
आदिपुराणकार तथा वादिराज ने भी जिन्होंने अकलङ्कदेव का भी स्मरण किया हैइन्हें इसी संक्षिप्त नाम से स्मरण किया है। अतः यह 'देव' शब्द अकलङ्क का संक्षिप्त नाम नहीं है किन्तु देवनन्दि' को संक्षिप्र नाम है। ३९ वें श्लोक में श्रीवीरसेनाचार्य की कीर्ति को 'अकलङ्क' कहा गया है। किन्तु केवल 'अकलङ्क विशेषण से अकलङ्कदेव जैसे प्रखर तार्किक और समर्थ विद्वान् का स्मरण किये जाने की कल्पना हृदय को स्पर्श नहीं करती । पर जब हरिवंश-पुराणकार ने ऐसे विद्वानों का स्मरण किया है जिन्होंने अपनी रचनाओं में अकलङ्क का न केवल स्मरण किया है किन्तु उनके राजवार्तिक सं उद्धरण तक दिये हैं, तब उनके द्वारा अकलङ्क का स्मरण न किया जाना अचरज की बात अवश्य है। अस्तु, यदि हो सका तो इस सम्बन्ध में फिर कभी प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।
३ तीसरे हेतु से भी केवल इतना ही सिद्ध होता है कि अकलङ्क हरिवंशपुराण की रचना से पहले हुए हैं। और इस में किसी को भी विवाद नहीं है,यह हम पहले ही लिख चके हैं।
४ चौथे हेतु में किसी को विवाद नहीं है क्योंकि अकलङ्क के ग्रन्थों से यह स्पष्ट है कि उन्होंने न केवल धर्मकीर्ति का खण्डन ही किया है किन्तु उसके ग्रन्थों से उद्धरण तफ दिये हैं। उदाहरण के लिये लघीयस्त्रय की 'स्वसंवेद्य विकल्पानाम्' आदि कारिका की स्वोपज्ञ-विवृत्ति में "सर्वतः संहृत्य चिन्तस्तिमितान्तरात्मना" आदि आता है। यह धर्मकीर्ति के प्रमाण
* इन्द्रचन्द्रावनेन्द्रव्यापि(डि)न्याकरणनिणः । देवस्य देवसंघस्य न बंद्यन्ते गिरः कथम् ॥३॥ + बोना तीर्थदेवः कितरांस्तस वर्षते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् ॥
॥२॥ प्रथम पर्व : अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽमिवंयो हितैषिणा । शब्दाच येन सिद्ध्यन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः ।
__पारवनाथचरित - देखें, जैन साहित्य-संशोधक भाग १, अंक २ में प्रकाशिन श्रीयुत प्रेमी जी का 'जैनेन्द्र पाकरण और आचार्य देवनंदि' शीर्षक लेख ।
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