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________________ भट्टाकलंक का समय [ले" श्रीयुन पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, सं० जैनदर्शन] जैन सिद्धान्त-भास्कर, भाग ३, किरण ४ में, उसके अन्यतम संपादक बाबू कामता प्रसाद जी का 'श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेव' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ है। यद्यपि इस लेख में लेखक महोदय ने अकलङ्कदेव के बारे में उपलब्ध सामग्री का अच्छा सङ्कलन किया है, किन्तु फिर भी उसमें कुछ ऐसे स्थल हैं जो ऐतिहासिक तथा साहित्यिक दृष्टि से स्खलित कहे जा सकते हैं : अतः उन पर प्रकाश डालना आवश्यक है। जैन-साहित्य में अकलङ्कदेव का वही स्थान है, जो बौद्ध-साहिय में धर्मकीर्ति का है। उन्होंने जैनन्याय का कितना और कैसा विकास किया तथा उसे कौन कौन सी अमूल्य निधियां भेट को ? यह बतलाने के लिये एक स्वतन्त्र लेख की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में यहां तो मैं केवल इतना ही कह देना चाहता हूं कि यदि जैनन्याय-रूपी आकाश में अकलङ्करूपी सूर्य का उदय न हुआ होता तो न मालूम जैनन्याय और उसके अनुसर्ताओं की क्या दुर्गनि हुई होती ? किन्तु ऐसे महान् वाग्मी और प्रवन ताकिक की जीवन-घटनाए तथा सुनिश्चित समय जानने की सामग्री हमारे पास नहीं है । पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी के निर्मित कथा-कोशों में उनकी कथा मिलती है। - कथाओं में अकलक को मान्यखेट के राजा शुभतुङ्ग के मन्त्री का पुत्र बतलाया है। और हिमशीतल राजा की सभा में उनका बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ करनेका भी उल्लेख किया है। अन्तिम बात का समर्थन श्रवणबेल्गोल की मलिषेण-प्रशस्ति से भी होता है और उसी प्रशस्ति में, राजा साहसतुङ्ग की सभा में अकलङ्क के जाने का भी उल्लेख मिलता है। डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण * ने राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्णगज प्रथम को साहसतुङ्ग या शुभतुङ्ग ठहराकर अकलङ्क को उनका समकालीन माना है और इसी मत को स्वीकार करते हुए श्रीयुत प्रेमीजी ने अकलङ्क का समय वि० सं० ८१० से ८३२ ( ई . ७५३ मे ७७५ ) तक बनलाया है। किन्तु डाकर पाठक ने राष्ट्रकूट राजा साहसतुङ्ग दन्तिदुर्ग के समय में अकलङ्क का होना स्वीकार किया है। बा० कामताप्रसादजी ने प्रेमीजी के उक्त मत का उल्लेख करके उसमें आपत्ति की है और दन्तिदुर्ग को साहसतुङ्ग ठहरा * हिस्टरी ऑफ दि मिडियावन स्कूल ऑफ इविडवन लॉजिक । * जैनहितैषी, भाग १, पृ. ४१८]. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034880
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Professor and Others
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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