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________________ ११० भास्कर श्रेयान् [ भाग ४ प्रचलित नाम जैनग्रंथ प्रचलित नाम जैन ग्रंथ ३-अश्वयुज विजय ९-चैत्र वसन्त ४-कार्तिक प्रीतिवर्द्धन १०-वैसाख कुसुमसंभव ५-मार्गशोर्ष ११-ज्येष्ठ निदाघ ६-पौष्य शिव १२-आषाढ़ वनविरोधी संवत्सर चार प्रकार के हैं (१) नक्षत्र-संवत्सर, ३२७+3 दिन; (२) युग-संवत्सर पाँच वर्ष; (३) प्रमाण-संवत्सर, (४) शनि-संवत्सर। तिथियाँ दिन और रात की अलग हैं। ___ ऋतुयें पॉच हैं-(१) वर्षा (२) शिशिर (३) हेम (४) वसन्त और (५) गरमी। ऋतुओं का प्रारंभ आषाढ़ मास से होता है। युगसंवत्सर का प्रारंभ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से होता है। कौटिल्य के समय में वर्षे का प्रारंभ आषाढ़ के अंत से होता था। ३ "जैन क्रोनोलोजी' शीर्षक लेख में जैन संघ की पौराणिक समयानुवर्ती घटनायें अङ्कित हैं। ४ प्रो० शेषगिरि राव ने जैनों के धार्मिक आदर्श पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है । वह आदर्श अर्हत् पद को प्राप्त करना है; जिसे आप वैदिक आदर्श 'ब्रह्मसिद्धि' और बौद्धों के आदर्श "निर्वाण-सिद्धि" के अनुकूल समझते हैं। आप की मान्यता है कि जब इन सम्प्रदायों को वेद-वाह्य कहा जाता है तब उनके इस मौलिक सादृश्य को नज़र अन्दाज कर दिया जाता है। .. इस समय इन प्राचीन धर्मों का अध्ययन समन्वय दृष्टि से करना आवश्यक है। वेदों में होम शब्द पशुओ के होमने के लिये प्रयुक्त हुआ है- उसके माने आत्मक्षेत्र में कुछ और हो हो जाते हैं। जैनस्तोत्र 'अहमादिभक्तिः' में उसे अहंकार को नाश करनेवाला कहा है। इस स्तोत्र का अंतिम वाक्य 'ब्रह्म विदन्ति परम् ये' हमें औपनिषदिक उक्ति 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' की याद दिलाता है। जैनस्तोत्र 'आचार्यभक्ति' में मुक्ति-सौख्य का उल्लेख है। म० बुद्ध का धर्मान्वेषण इसी मुक्ति-सौख्य के लिये था और उन्होंने उसे 'निर्वाण' कहा। कई जैनस्तोत्रों के उद्धरणों से यह बात सिद्ध है। अन्त में प्रो० साहब लिखते हैं कि प्राचीन जैनधर्म वीरतापूर्ण योगमार्ग को मोक्षसुख पाने के लिये आवश्यक ठहराता है। क्या भरतखंड के वैदिक सनातनी देखेंगे कि जिस 'संयमयोग' का विधान जैनस्तोत्र 'वीरस्तुति' में है, ठीक वही शिक्षा 'भगवद्गीता' के प्रारंभिक छै अध्यायों में है ? ५ जर्मनी के प्रो० हेल्मुथ फान नासेनप्प ने तांत्रिक बौद्धमतानुयायियों के "आर्याम - श्री-मूलकल्प” नामक ग्रंथ के दूसरे परिव्रत में म० ऋषभदेव का उल्लेख हुआ बताया है। उम मण्डल में लिखा है कि :-.: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034880
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Professor and Others
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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