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किरण ३]
महाकलंक का समय
इससे यह निष्कप निकाला गया कि प्रभाचन्द्र अकलंक के शिष्य थे। अपने उक्त लेख में श्रीकण्ठ शास्त्री के मन की आलोचना करते हुए स्व. डा० पाठक ने बड़े जोर के साथ लिखा है कि यदि अकलंक का समय ६४५ ई. माना जाय तो 'प्राप्याकलङ्क पदम्' के अनुसार प्रभाचन्द्र-जिनका स्मरण आदिपुराण (ई० ८३८ ) में किया गया है और जो अमोघवर्ष प्रथम के समय में हुए हैं-अकलंक के चरणों में नहीं पहुंच सकते। बाबू कामताप्रसाद जी ने भी डाकर पाठक के इस मत का अनुसरण किया है और प्रभाचन्द्र को अकलंक का समकालोन बतला कर प्रमाणरूप से फुटनोट में उक्त श्लोक उद्धृत कर दिया है। किन्तु पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार । डाकर पाठक के इस भ्रम का निराकरण बड़ी अच्छी तरह कर चुके है। यहाँ उसके दुहराने को आवश्यकता नहीं है। प्रभाचन्द्र तो क्या, अकलंक के प्रकरणों के ख्यातनामा व्याख्याकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्द भी, जिनका स्मरण प्रभाचन्द्र ने किया है, अकलंक के समकालीन नहीं जान पड़ते, क्योंकि अनन्तवीर्य अकलंक के प्रकरणों का अर्थ करने में अपने को असमर्थ बताते हैं तथा दोनों ने धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर गुण आदि बौद्ध विद्वानों का उल्लेख किया है जो आठवीं शताब्दी के विद्वान हैं और जिनका अकलंक के प्रकरणों पर कोई प्रभाव नहीं जान पड़ता। अतः प्रभाचन्द्र के उक्त श्लोक के आधार पर प्रभाचन्द्र को अकलंक का साक्षात् शिष्य बतलाना और इसीलिये अकलंक को सातवों शताब्दी के मध्य से खोंच कर आठवों शताब्दी के मध्य में ला रखना सरासर भूल है।
बाबू कामताप्रसाद जी के द्वारा अपने मत के समर्थन में दिये गये हेतुओं को हेवामास सिद्ध करने के बाद हम कुछ ऐसे और भी हेतु उपस्थित करेंगे जो उनके मत का निरसन और हमारे मत का समर्थन करते हैं। अनन्तवीर्य के समय के सम्बन्ध में डा० पाठक के मत की
आलोचना करते हुए एक फुटनोट में प्रो० ए० एन० उपाध्याय ने अकलंक के समय के संबंध में भी उनके मत की आलोचना की है और दन्तिदुर्ग को साहसतुंग कहना केवल अनुमान मात्र बतलाया है। तथा यह भी लिखा है कि धवला टीका में जो जगत्तंग के राज्य में (७८४ से ८०८) समान हुई थी। अनेक स्थलों पर वीरसेन ने अकलंक के राजवार्तिक से लम्बे लम्बे चुनिन्दा वाक्य उद्धृत किये हैं। पं० जुगलकिशोर जी ने|| धवला टीका का समाप्ति
* भाण्डारकर-प्रास्य विद्या मंदिर पूना की पत्रिका, जिल्द १२, पृष्ठ २५३.२१५ में विद्यानंद और शंकर-मत' शीर्षक से श्रीकण्ठ शास्त्री का एक लेख प्रकाशित हुआ है, उस में लेखक ने अकलंक का समय ६४५ ई० लिया है, उसी का खण्डन करने के लिये स्व० डा० पाठक ने 'अकलंक का समय' शीर्षक निबन्ध लिखा था।
+ अनेकांत, जिल्द 1, पृ १३० । * जैनदर्शन, वर्ष ४, अंक १, पृष्ठ ३८१ से। ॥ समन्तभद्र, पृष्ठ १७
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