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________________ १७२ भास्कर [ भाग ४ काल शक सं० ७३८ (ई० ८१६) लिखा है। यद्यपि अकलंक को दंतिदुर्ग का समकालीन मान लेने पर भी वीरसेन के द्वारा धवला टीका में उनके राजवार्तिक से उद्धरण दिये जाने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती, क्योंकि अकलंक के अंत और धवला की समाप्ति में ३४ वष का अन्तर है, फिर भी धवल सरीखे सिद्धांतग्रन्थ में वीरसेन जैसे सिद्धांत-पारगामी के द्वारा आगम-प्रमाण के रूप में राजवार्तिक से वाक्य उद्धृत करना प्रमाणित करता है कि वीरसेन के समय में राजवातिक ने काफी ख्याति और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी और उसमें काफी समय लगा होगा, अतः अकलंक को दन्तिदुर्ग का समकालीन नहीं माना जा सकता। सिद्धसेन गणी ने अपनी तत्वार्थ-भाष्य की टीका' में अकलंक के सिद्धि-विनिश्चय का उल्लेख किया है। इनका समय अभीतक निर्णीत नहीं हो सका है। 'जैन साहित्यनो इतिहास'' में परम्परा के आधार पर इन्हें देवद्धिगणि (५वीं शताब्दी के लगभग) का सम कालीन बतलाया गया है, किन्तु इतने प्राचीन तो यह कभी हो ही नहीं सकते। इन्होंने अपनी तत्वार्थ-भाष्यवृत्ति' में धर्मकीति का नाम निर्देश किया है और दूसरी तरफ नवमी शताब्दी के विद्वान् शीलाङ्क ने गन्धहस्ती नाम से इनका उल्लेख किया है, अतः वे सातवीं और नवमी शताब्दो के मध्य में हुए हैं इतना सुनिश्चित है। पं० सुखलालजी' का कहना है कि हरिभद्र और सिद्धसेन गणि ने परस्पर में एक दूसरे का उल्लेख नहीं किया अतः ऐसी संभावना जान पड़ती है कि ये दोनों या तो समकालीन हैं या इनके बीच में बहुत ही थोड़ा अन्तर होना चाहिये। हरिभद्र का सुनिश्चित समय हम ऊपर लिख आये हैं अतः सिद्धसेन गणि को आठवीं शताब्दी का विद्वान् मानने में कोई बाधा नहीं है। अब यदि अकलङ्क का समय भी आठवीं शताब्दी माना जाता है तो उनकी सुप्रसिद्ध कृति का सिद्धसेन गणि-द्वारा उल्लेख किया जाना संभव प्रतीत नहीं होता अतः अकलङ्क को आठवों शताब्दी का विद्वाम् न मान कर सातवीं शताब्दो का विद्वान् मानना चाहिये। जिनदास' गणि महत्तर ने निशीथसूत्र पर एक चूर्णि रची है। इनकी एक चूर्णि नन्दिसूत्र पर भी है। इस चर्णि की प्राचीन विश्वसनीय प्रति में इसका रचना-काल शक सं. ५९८ ( ई० ६७६ ) लिखा है। निशीथ-चूणि में जिनदास ने सिद्धसेन के 'सन्मति' , एवं कार्यकारणसम्बन्धः समवायपरिणामनिमित्तनिवर्तकादिरूपः सिद्धिविनिश्चयसृष्टिपरीक्षातो योजनीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेण। पृ० ३७ । २ ले मोहनलाल देसाई, पृ० १४३ । ३ पृ० ३६७। आचाराङ्ग-टीका, पृष्ठ १ तया ८२ । ५ 'तत्वार्थसूत्र के व्याख्याकार और व्याख्वाएं" शीर्षक लेख, अनेकांत वर्ष १, पृ०५८० । ६ 'सन्मति-प्रकरण' (गुजराती) को प्रस्तावना, पृष्ठ ३५-३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034880
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Professor and Others
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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