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एक प्राचीन गुटका
ब्रह्म- अगनि परजालि कर इंधन-काम जराउ ।
कइ वनिता - संग धरि रहो, कई तप-भसम चढाउ || "
१० वीं रचना "समाधी रास" है,
जिसके आदि-द- अन्न के छन्द यों हैं:
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"जिए चौबीसो नमणु करेसउ' वीजद सारद - पथ परामेस्यो ! साधु समाधी -रासु भणेस दुक्ख-कलेस जलंजलि देस ॥
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गुरु मुणिचन्द-च -चरण चितु लावा, दास भगवती रासा गावा | अवर भविकु जो पढ़इ पढ़ावर, सो मणवंत्रिय संप्पर पावर ॥" ११ वीं रचना "आदितवार कथा" है, उसकी भी बानगी देख लीजिये:
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"सयल जिण हंयय पणविधि सरसय जमलु करे । रवित्र वरिय पयासमि निसु राहु भाउ धरै ॥ १ ॥ जंबूदी उप सिद्धउ, भरपितु जहां | वाणारसि नयरिपुपु निउ पइपालु तहां ॥२॥
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सकलचंदु भट्टारगु सम्यग णाण-धरो | तासु पट्टिवयमंडिय मुणि मुणिचन्दवरो |
तासु चरण नमि भविय हुहुमय उत्तिय । होउ कुसल वोसंघ भगह भगोतियऊ ॥ ४५ ॥
१२ वीं रचना “चुनड़ी मुकमिणी" की है, जिसके नमूने मी देखिये. - त्रिपे, मनवयकामति सुद्धि हो ।
"आदि जिनेस सारद-पय पणमंड सदा, उपजह निरमल बुद्धि हो ॥
मेरी मुकति-रमणि की चूनड़ी, तुम जिनवर देहु रंगाइ हो । त्रिम वह सिय- पिय- सुन्दरी, अरुन अनूपग लाल हो ॥ मेरी भवितारण खूनड़ो ॥ १ ॥
समकित वस्तु विसाहिले, ज्ञानसलिल संगि मेइ हो । मल पचीस उतारिये, दिढ़ मनुं साजि देइ हो ॥ मेरी कति रमणी की चूनड़ी तुम जिनवर देहु रंगाइ हो । मेरी भवजल-तारण चूबड़ी ॥ २ ॥
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