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भास्कर
[ भाग ४
पंद्रहवे परिच्छेद में जिन सोलह देशों का वर्णन है उनमें भी अंग, बंग और लाधा (राढ़) का उल्लेख देख कर प्रत्यक्ष रूप से इस बात की अविचल धारणा होती है कि आदि काल में बंगाल के साथ जैनियों का संपर्क बौद्धों से कहीं अधिक था। 'कल्पसूत्र' में तामलित्या, कोटिवर्षीया, पौंड्रवर्धनीया और खावदोया को जैन भिक्षुकों के गोदासगण को चार शाखायें मानी गयी हैं। ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष और पुंड्रवर्धन क्रमानुसार मिदनापुर, दिनाजपुर और बोगरा जिलों में हैं और पश्चिमीय बंगाल में स्थित वर्तमान खवीर को प्राचीन खावाडोया माना गया है। जैन उपाङ्गों में तामलित्त और बंग आर्य लोगों की भूमि माने गये हैं। इस प्रकार साहित्यावलोकन से यह प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि महावीर के समय से जैनधर्म का प्रचार तोत्र बेग से होने लगा जैनधर्म-वीरों को संख्या बढ़ने लगी और बंगाल के प्रत्येक भाग में जैनियों की सत्ता समूल स्थापित होने लगी। यदि 'आचाराङ्ग-सुत्त' में वर्णित जैन मुनियों पर किए गए अत्याचारों पर विश्वास किया जाय तब यह मानना ही पड़ेगा कि पूर्व काल में जैनियों को कटंकाकीर्ण पथ का पथिक बनना पड़ा। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैन मुनियों को अनेकानेक कठिनाइयाँ सहन कर धर्म का प्रचार करना पड़ा था। परन्तु साथ ही, साथ देश के कोने कोने में जैनधर्म का विस्तार देखते हुए यह भी मानना पड़ता है कि अन्त में सत्य की ही विजय हुई और जैनधर्म को निर्मल एवं पवित्र-पताका विधर्मियों के खण्डहरोंपर फहराने लगी। । यद्यपि क्रिश्चियन युग के बाद (after Christian Era) चन्द्रगुप्त अथवा खारवेल जैसे जैन-संरक्षक नृपति दीख नहीं पड़ते, तथापि लोकमत को यह धारणा है कि जैनधर्म पूर्वीय भारत से लुप्तप्राय हो गया था यह सर्वथा असंगत है। मथुरा के पुरातन शिलालेख से पता चलता है कि सम्भवतः सन् १०४ में 'रारा' के एक जैन मुनि के आग्रह पर एक जैन प्रतिमा की स्थापना हुई थी। पहाड़पुर के एक ताम्रपत्र से पता चलता है कि एक ब्राह्मण-दंपति ने 'वाट-गोहाली' के विहार में चंदनादि से जैन तीर्थकरों की पूजा के लिए कुछ भमि प्रदान की थी। काशी की पञ्च-स्तूप-शाखा के निर्ग्रन्थ गुरु गुहनंदो के शिष्य के शिष्यों ने इस विहार के सभापति का आसन ग्रहण किया था। पहाड़पुर की ताम्रलिपि का अध्ययन यदि 'हयुएनचाँग' की यात्रा-संबंधी विवरण के साथ-साथ किया जाय तो पता चलेगा कि पंड्वर्धन, सातवीं शताब्दी तक, जैनियों का एक बृहत् , शक्तिशाली और प्रतिष्ठित केन्द्र था।
'युएनचाँग' ने तत्कालीन धर्मों तथा उनसे संबद्ध संस्थाओं के विषय में अपने जो मार्मिक, भावपूर्ण एवं विवेचनात्मक विचार प्रकट किए हैं वे सदा आदरणीय हैं और यदि
श्रीजिनसेनाचार्य ने भी अपने को पंचस्तुपान्धवी' लिखा था और वह नंदिसंघ के आचार्य थे। संभव है कि गुहनंदि भी उसी संघ और शाखा के हो । संपादक
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