SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिन ] बंगाल में जैन धर्म १५५ जैनियों और आजीविकों में बहुत कम भेद था। उस समय अन्य अन्य धर्मावलम्बियों का मी जोर बढ़ रहा था और इस बात की अत्यन्त आवश्यकता र्थः कि आजीविकों तथा जैनियों में किसी प्रकार का भेदमाव न रहे। अन्य धर्मावलम्बियां के आक्रमण को रोकने और उनका सामना करने के लिए इन दोनों संप्रदायों का परस्पर सम्मिलित हो जाना बहुत संभव था। बौढयतिकों के कट्टर शत्रु देवदत्त ने जो एक पृथक संप्रदाय की स्थापना की थी वह मी सातवीं शताब्दी में बौद्धधर्म में प्रायः सम्मिलित ही हो गयी थी और एक अबौद्ध के दृष्टिकोण से देखने पर उन दोनों संप्रदायों में कुछ अन्तर न था। उसकी आँखों में तो केवल बौद्धधर्म ही बसा था। यद्यपि आज भी प्रमाणों की कमी है, फिर भी यह अनुमान किया जा सकता है कि कुछ ही समय के बाद जैनधर्म, बौद्ध तथा वदिक धम्मों में ही अन्तर्हित हो गया था। प्राचीनकाल में 'पहाड़पुर' का मठ जैनियां की ही संपदा थी; इनके द्वारा ही इसका निर्माण हुआ था परन्तु अन्त में यह बौद्धों के ही अन्तर्गत हो गया और उत्तर बंगाल में 'सोमपुर' के बौद्ध विहार के नाम से प्रसिद्ध हो गया । 'पएनचाँग' के अपनी यात्रा का वर्णन लिखने के बाद से जैन तीर्थङ्करों की कुछ प्रतिमाओं के अतिरिक्त जैनियों के अस्तित्व का यहाँ कुछ भी पता नहीं चलता। श्रीराखालदास बनर्जी के मतानुसार बंगाल में केवल चार ही जैन प्रतिमायें हैं। किंतु उनका यह मत वर्तमान लोकमत के विरुद्ध है। क्योंकि श्रीयुत के० डी० मित्रा ने । सुन्दरवन' के एक भाग के खाज (Exploration) द्वारा जो ऐतिहासिक अन्वेषण किये हैं उनसे 'सुन्दरवन' के केवल उसी भाग में ही दस जैन प्रतिमाओं का और मी पता चला है। 'सुन्दरवन' के केवल एक भू-भाग में एक साथ दस प्रतिमाओं के मिलने को यदि 'वैरेकपुर' में प्राप्त ताम्रपत्रों के प्रमाणों के साथ मिलाकर गूढ विचार किया जाय तो पता चलेगा कि 'ह्य एनचाँग' ने जिस समतट' नगरी में निर्धयों को अधिकाधिक संख्या में देखा था उसमें उत्तर-पश्चिमीय सुन्दरवन भी सम्मिलित था। बाँकुरा और बीरभूम जिलों में अभी भी प्रायः जैन-प्रतिमाओं के मिलने का समाचार पाया जाता है। श्रीराखालदास बनर्जी ने भी इस क्षेत्र को तत्कालीन जैनियों का एक प्रधान केन्द्र बताया है। बंगाल में प्राप्त इन बीस प्रतिमाओं में से केवल एक श्वेतांबरी प्रतिमा है। इससे यह पता चलता है कि वहाँ दिगंबरों की संख्या इवेतांबरों से बहुत अधिक थी। वहां श्रीकृषमनाथ जी या श्रीआदिनाथ जी, श्रीनेमिनाथ जी. श्रीशांतिनाथ जी सब जैनी वैष्णव या गैड हो गये थे। बंगाल के सरा। लोग आज तक प्राचीन जैनों के स्मारकरूप से है। -संपादक छ गुएन चांग ने स्पष्ट शब्दों में उन साधुओं को निर्मन्य लिखा है, इसलिये उन्हें आजीविक अनुमान मना पालत है। -संपादक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034880
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Professor and Others
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy