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________________ किया। सम्मेद शिखरजी की यात्रा का समाचार ९१७ चलता। रचना में कहीं पर भी लेखक ने अपना नाम सूचित नहीं किया है। फिर भी हमारा अनुमान है कि यह रचना बहुत कर के कविवर श्रीकमलनयन जी की है। क्योंकि पहले तो वह र साहु नन्दराम धनसिंह के समकालीन और उन से घनिष्टता रखनेवाले थे और - दुसरं उस समय मैंनपुरी में हिन्दी में पद्य रचनेवाले वही मिलते हैं। इस रचना का सादृश्य भी उनकी रचनाओं में है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि साहु धन सिंह कवि कमलनयन के सदृश धर्मात्मा सज्जन को संघ के साथ ज़रूर ले गये होंगे। इसलिये उन्होंने ही यात्रा का पूर्ण विवरण पद्यबद्ध किया होगा और साहु धन सिंह आदि ने उसे लिखवा कर मंदिरां और श्रावकों को भेंट किया होगा। मालूम ऐसा होता है कि कमलनयनजी की रचनाओं को लिखवा कर यह महानुभाव सर्वसाधारण में प्रचलित कर देते थे, क्योंकि उनके समय की लिखी हुई प्रतियां मिलती हैं। अच्छा तो, इन कवि कमज़नयन जी का परिचय पा लेना भी उपयुक्त है-यह परिचय केवल उन्हीं के ग्रन्थों से प्राप्त होता है और बहुत ही संक्षिम है। मैनपुरी के बुढ़ेले जैनियों से उनके बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं हुआ। उन के लिये यह एक नया समाचार था कि कोई कवि कमलनयन जी उनके मध्य हो गये हैं। जहां अपने निकटवर्ती मान्य पूर्वज का परिचय लोगों को प्राप्त न हो, वहां उन्हें अपनी जाति और कुल के महत्व और गौरव का भान भला क्या होगा ? खैर, स्वयं कवि महोदय के अनुग्रह से हम जानते हैं कि वह ( कवि कमलनयनजी) मैनपुरी के अधिवासी बुढ़ेले जातीय श्रावकोत्तम थे। उनके पितामह राय हरिचन्द थे और उनके पिता का नाम श्री ला० मनसुखरायजी था जो एक अच्छे वैद्य थे। इन मनसुखरायजी के दो पुत्र थे। जेठे पत्र का नाम छत्रपति और छोटे का नाम कमलनयन था। कमलनयन जी ने कहीं-कहीं पर कविता में अपना नाम 'हगज' भी लिखा है। उन्होंने जैनधर्म-विषयक कई ग्रन्थों की माषा रचना पद्य में की है। जिससे पता चलता है कि वह एक धर्मज्ञान लिये हुए विवेकी सज्जन थे। उनके समय का बहुभाग धर्म-विषयक चर्चा-वार्ता में बीतता था। एक समय * "प्रासंवत्सर वेद' रस रंध्रचंद्र' पहिचानि । राज विक्रमा दत्य नृप गत वर्षे भवि जान॥ कातिक सुदि सुभ पंचमी कयौ ग्रंथ आरंभ। चैत्र कृष्ण तेर्रास तिथी पूरन भयो निदंभ ॥ जाति बुद्धले जानिये बसें महा धनवंत । नन्दराम आदिक बहुत साधर्मी गुनवंत ॥ तिनही में इक जानबै नाम गय हरिचन्द । वैचककला-परवीन अति मनसुग्व गाय सुनन्द ॥ तिनके सुत जंठे ए नाम छत्रपतिसार । तिन लघु भ्राता जा नये कमलनयन निरधार ॥ एक समय निज बाद पुर गये प्रयाग मंझार । मन में इच्छा यह भई कीजै देश विहार ॥ तजीरथरा प्रयागवर तह श्रावग बहु लोय। अगरवाले जातिवर कसैं महाजन सोय ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034880
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Professor and Others
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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