Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
Catalog link: https://jainqq.org/explore/010037/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website. Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility. If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः दौलत-जैनपदसंग्रह। मंगलाचरण स्तुति। दोहा। मल-ज्ञा-बायक तदपि, निजानंदरसलीन । सो जिनेन्द्र जयवंत निन, अगिजरहम विहीन ॥१॥ पद्धरिकन्द । जय वीतराग विज्ञानपुर । जय मोहतिमिरको हरन र ॥ जय वान अनंतानंत पार । हगमुख वीरन-मंडित अपार ॥२॥ जय परप शानिमुद्रा समेत । भविजनको निज-अनुअतिहेत ।। भवि मागन-वश जोगे वशाय । तुम धुनि सुनि विभ्रम नसाय ॥३।। तुम गुण चिंतत निजपर-विवेक । मगरे, १चार पातिया कमाने रहित । २ अनन्तदर्शन, मनम्तन, मनन्त चौर्य । ३ मन्जनों भाग्यसे । मनपचनकायके गोगो कारण । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ दौलत - जैनपदसंग्रह | विध पद अनेक || तुम जगभूषन दूपनवियुक्त | सब महिमायुक्त विकल्पयुक्त || ४ || अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप । परमात्म परमपावन अनूप ॥ शुभ अशुभ- विभाव अभाव कीन । स्वाभाविकपरनतिमय छीन ॥ ५ ॥ अष्टादशदोषविमुक्त धीर । सुचतुष्टयमय राजत गभीर || मुनि गणधरादि सेवत महंत । नवकेवललब्धि-वमा घरंत ! | ६ || तुप शासन सेय अमेय जीव । शिव गये जाहिं जै हैं सदीव || भवसागरमें दुख खार-धारि । तारनको और न आप टारि ॥ ७ ॥ यह लखि निजदुखगेदहरणकान । तुम ही निमित्तकारण इलाज | जाने, तातै मैं शरन आय । उचरों निजदुत नो चिर लहाय ॥ ८ ॥ मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि थाप । अपनाये विधिफलै पुण्य पाप || निजको परको करता पिछान । परमें अनिष्टता इष्ट ठान ॥ ६ ॥ आकुलित भयो श्रज्ञान धारि । ज्यों | मृग मृगतृष्णा जान चौरि ॥ तन परनतिमें आपौ चितार || कवहूं न अनुभयो स्वपद सार ॥ १० ॥ तुमको विन जाने जो कलेश | पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु-नारक- नर 'सुरगति प्रकार । व घर घर मायो अनंन वार ॥ ११ ॥ काल दयाल | तुम दर्शन पाय भयो खुशालं । मन शांत भयो मिटि सकल द्वंद । चाख्यो स्वातपरस दुखनिकंद ॥ १२ ॥ ता व ऐसी काहु नाथ । विलुरै न कभी तुम चरण साथ || तुम गुण गणको नर्हि छेवै देव । १' अपरिमाण । २ रोग | ३ कर्मफल । ४ पानी । ५ पार Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। जगतारनको तुम विरद एव ॥ १३॥ आतमक अहित विषय-कपाय। इनमें मेरी परणति न जाय ।। में रहों गरम आप लीन । सो करो होहुँ ज्यों निजाधीन ॥ १५ ॥ मेरे न चाह कछु और ईश । रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश ।। मुझ कारजके कारण सु आप। शिव करहु हरहु पम मोहताप ॥ १५ ॥ शशि शांतिकरन तपहरन हेत । स्वयमेव तथा तुम कुशल देव ॥ पीवत पियूष ज्यों रोग जाय । त्यों तुम अनुभवतै भवनसाय ॥ १६॥ त्रिभुवन निहुंकालमसार कोय। नहिं तुम विन निजसुखदाय होय ।। मो र यह निश्चय भयो आज । दुखजलधि उतारन तुम जिहाज १७॥ दोहा तुम गुण-गया-मणि गणपती, गनत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्पपति किमि कहै, नमूं त्रियोग सम्हार ॥१८॥ देखो जी यादीश्वर स्वामी, फैसा ध्यान लगाया है । यर ऊपरकर सुभग विराजे, यासन थिर ठहराया है। देखो जी० ! टेक ॥ जगतविभूति भूतिसम तजिकर, निजानन्द पद ध्याया है। सुरभिा श्वासा, प्राचावासा नासादृष्टि सुहाया १ गणघरदेव । २ मन पचन काय । ३ भस्म जसी १४ सुगधिन । • दिशासपी पक्ष-दिगदरता । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___४ ' दौलत-जैनपदसंग्रह । है ॥ देखो जी० ॥१॥ कंचन वरन चलै मन रंच न, सु रंगिर ज्यों थिर थाया है। नास पास अहि मोर मृगी हरि, जातिविरोध नसाया है। देखो जी० ॥२॥ शुषउपयोग हुताशनमें जिन, वसुविधि समिधं जलाया है । श्यामलि अ. लिकालि शिर सोहै, मानों धुंआ उठाया है ।। देखो जी. ॥३॥ जीवन मरन अलाम लाभ जिन तन मनिको सम भाया है।सुर नरनाग नहिं पद जाकै, दौल तास जस गाया है। देखो जी० ॥४॥ जिनवर-आनन-भान निहारत, भ्रमतमधान नसाया है। जिन० ॥ टेक ॥ वचन-किरन-प्रसरनत भविजन, मनमरोज सरसाया है। भवदुग्वकारन सुखविसतारन, कुपय सुपथ दरसाया है। जिन ॥१॥ विनप्लाई, कज जलसरसाई निशिचर समर दुराया है। तस्कर प्रवल कषाय पलाये, जिन धनबोध चुराया है ।। जिन०॥२॥ लखियत्त उँडु न कुभाव कई अब, मोह लूक लगाया है। हंस कोकेको शोक नइयो निज,- परनविचकवी पाया है। जिन ॥३॥ कर्मबंध सुमेरु पर्वत । २सिंह । ३ होम करनेकी लकडिया । ४ काई द्वितीय पक्ष-अज्ञानरूपी काई । ५ स्मर अर्थात्-फामदेव । ६ चोर तारे । ८ आत्मा । ९ चकवा । १० कर्मबंधरूपी कमलोंके कोष बंधे दुए के, उनसे। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपनसंग्रह। बजकोप बंधे चिर, भवि अलि मुंचन पाया है दौल जाम निजातम अनुभव, उर जग अन्तर छाया है। जिन ॥१॥ ४ पारस जिन चरन निरस, हरख यो लहायो, चितवत चन्ता चकोर ज्यों प्रमोद पायो । टेक।। ध्यों मन घनघोर शोर, मोरहर्पको न भोर, रंक निधिसपाज राज पाय मुहित यायो । पारस० ॥ ज्यों जन चिराधिन होय, भोजन लखि सुखित होय, भेज गदहरन पाय, सरुंज सुहरबायो । पा. रस० ॥२॥ वासर मयो धन्य आज, दुरित दूर परे मान, शांतदशा देख महा, मोहतम पलायो । पारस० ॥३॥ जाके गुन जानन जिम, भानन भवकानन इम, जान दोन शरन आय, शिवसुख ललचायो । पारम० ॥४॥ वंदों अदभुत चन्द्र वीरें जिन, भवि-कोरचिनहारी॥ बंदो० ॥ टेक | सिद्धारयनृपालनम-मंडन, खंडन भ्रमतप भारी । परमानंद-जलधिविस्ताग्न, पाप नाप छयकारी ॥ बंदो० ॥१॥ उदिन निरंतर त्रिभुवन १ छोर । २ बहुत दिनोंका भूम्या १३ वा ४ रोगी । ५ महापौर स्थानी। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *â दौलत - जैनपदसंग्रह | - अन्तर, कीरति किरन पसारी । दोष- मलके कलंक अटंकित, मोहराहु निरवारी ॥ बंदों० ॥ २ ॥ कर्मावरैन- पयोदअरोधित, बोधित शिवमगचारी | गणधरादि मुनि उडुगन सेवत, नित पुनपतिथि धारी ॥ चन्दों० ॥ ३ ॥ अखिल अलोकाकाश - उलंघन, जासु ज्ञान उजियारी । दौलत मनसा- कुमुदनि-मोदन, जयो चरम - जगतारी !! वन्दों० ॥ ४ ॥ निरखत जिनचन्द्र - चंदन, स्वपरसुरुचि भाई । निश्खत जि० ॥ टेक ॥ प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकी, कला उदोत होत काम, जामिनी पळाई । निरखत० ॥ १ ॥ सास्वत आनन्द स्वाद, पायो विनस्यो विषाद, आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई । निरखत० ॥ २ ॥ साधी निज साधकी, समाधि मोहव्याधिकी, पाधिको विराधिकैं, राधना सुहाई । निरखत० ॥ ३ ॥ धन दिन छिन आज सुगुनि, चितें जिनराज अबै, सुधरे सब काज दौल, अचल सिद्धि पाई। निरखत० ॥ ४ ॥ १ दोषा रात्रि । २ पापरूपी कलंक । ३ कमौके आवरणरूपी वादकोंसे जो ढकता नहीं है । ४ तारागण । ५ मनरूपी कुमोदनीको हर्षित करनेवाला । ६ अंतिम तीर्थकर । ७ रात्रि | Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टोलत-बैनपदसंग्रह। जिया तुम चालो अपने देश, शिवपुर यारो शुभ. थान । जिया० ॥ टेक ॥ लख चौरासीम बहु मटके, लयौ न सुखरो लेश ॥ जिय० ॥१॥मिध्यारूप घरे बहतेरे, भटके बहुत विदेश | जिया० ॥२॥ विषयाविक बहुत दुख पाये, भुगते बहुत कलेश ॥ जिया० ॥ ३॥ भयो तिरजच नारकी नर सुर, करि करि नाना मेप ।। जिया० ॥ ४ ॥ दौलत राम तोड जगनाता, सुनो सुगुरु उपदेश । जिया० ॥५॥ जय जय जग-भरम-तिमर, हरन जिन धुनी ॥ टेक ।। या विन समुझे अौं न, सौंज निज मुनी । यह लखि हम निजपर अवि-वेकता लुनी ।। जय जय० ॥ १ ॥ जाको गनराज अंग, पूर्वमय चुनी । सोई कही है कुन्द कुन्द, प्रमुख बहु मुनी !! जय जय० ॥२॥जे चर जड भये पीय, मोह वारुनी । तत्व पाय चेते जिन, यिर सुचित सुनी ॥ जय जय० ॥ ३ ॥ कमल पखारने. हि, विमल सुरधुनी । तज विलर भंव करो, दौल र पुनी।। जय जय० ॥४॥ अव मोहि जानि परी, भवोदधि तारनको है बैन । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ दौलत - जैनपदसंग्रह | L , ॥ टेक ॥ मोह तिमिर सदा कालके, छाय रहे मेरे नैन । ताके नाशन हेत लियो, मैं अंजन जैन सु ऐन || अव ॥ १ ॥ मिश्रपामती भेपको लेकर, भापत हैं जो चैन । सो वे बैन असार लखे मैं ज्यों पानीके फैन ॥ अव मोहि० ॥ २ ॥ मिथ्यामती वेल जग फैली, सो दुख फलकी देन ॥ सतगुरु भक्तिक्कुठार हाथ लै, छेद लियौ अति चैन ॥ ग्रव० ॥ ३ ॥ जा विन जीव सदैव काल विधि वश सुखन लहै न । अशरन शरन अभय दौलत 'अव, भजो रैन दिन जैन ॥ ग्रव० ॥ ४ ॥ १० 1 सुन जिन चैन, श्रवन सुख पायौ ॥ टेक ॥ नस्यौ तत्त्व दुर अभिनिवेश तम, स्याद उजास कहायौ । चिर विसरयौ लौ प्रातम रैन (१) ॥ श्रवन० ॥ १ ॥ दद्यौ अनादि असंजम दवतैं, लहि व्रत सुधा सिरायौ । धीर घरी मन जीतन मन (१) ॥ श्रवन सुख० ॥ २ ॥ भरो विभाव अभाव सकल अब, सफल रूप चित लायौ । दास लौ व अविचल जैन । श्रवन सुख० ॥ ३ ॥ ११ वामा घर वजत वधाई, चलि देखि री माई ॥ टेक ॥ सुगुनरास जग आस भरन तिन, जने पार्श्व जिनशई । श्री ही धृति कीरति बुद्धि लछमी, हर्ष अंग न माई ॥ चलि० ॥ १ ॥ वरन वरन पनि चूर सची सव, पूरत Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत - जैनपदसंग्रह | चौक सुहाई । हाहा हू नारद तुम्वर, गावन श्रुति सुग्वदाई || चलि० ॥ २ ॥ तांडव नृत्य न हरिन तिन, नव नम्र गुर्गे नचाई | किन्नर कर घर बीन बजावत हगमनहर छवि छाई ॥ चलि० || ३ || ढोल तासु प्रभु ॥ ॥ महिमा सुर, गुरु पै कहिय न जाई । जाके जन्म समय नरमनमें, नारकि साना पाई || चलि० || १ || १२ जय श्री सुषम जिनेन्द्रा | नाम तो करो मी मेरे दुखदंदा || पातु मरुदेवी प्यारे, पिता नाभिके दुलारे, वंश तो ख्वा वैसे नमवीच चंदा ॥ जय श्री० ॥ १ ॥ कनक चरन तन; मोहन भविक जन, रनि शशि कोटि लार्जे, लाजै मकरन्दा || जय श्री० ॥ २ ॥ दोप तौं घठारा नासे, गुन छियालीम भासे, अष्टकर्म काट स्वामी, भये निरकं ॥ जा श्री० ॥ ३ ॥ चार ज्ञानधारी गनी, पार नाहि पाव सुनी, दौलन नपत सुख चाहत अमंदा || जय श्री० ॥ ४ ॥ १३ मत कीडयो जी यारी, ये भोग भुजग सप जानके, मत कीज्यों० ॥ टेक ॥ भुजप डमत उरुवार नसत है, ये अनंत मृतुकारी | तिमना पा वढै इन मे, ज्यों पीये जन १ सर्प | २ मृत्युके करने वाले । * Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० दौलत-जैनपदसंग्रह । खारी || मत कीज्यौ जी० ॥ १॥ रोग वियोग शोक वनको धन, समता-लताकुठारी । केहरि करी अरी न देत ज्यौं, त्यौं ये 4 दुखभारी ॥ मत कीन्यौ० ॥ २॥ इनमें रचे देव तरु थाये, पाये शुभ्र मुरारी । जे विरचे ते सुरपति अरचे, परचे सुख अधिकारी ॥ मत कीज्यो० ॥ ३ ॥ पराधीन छिनमाहिं छीन है, पापबंधकरतारी ॥ इन्हें गिनें सुख आक्रमाहिं तिन, आमतनी बुधि धारी ॥ मत कीज्यौ० ॥ ४ ॥ मीन मैतंग पतंग भंग मृग, इन वश भये दुखारी | सेवत ज्यौं किपाक ललित, परिपाक समय दुखकारी ॥ यत कीज्यौ जी० ॥५॥ सुरपति नरपति खगपतिहूकी भोग न प्राप्त निवारी, दौल त्याग अव भज विराग सुख, यौँ पावै शिवनारी ॥ मत कीज्यौ जी यारी०॥६॥ सुधि लीज्यौ जी म्हारी, मोहि भवदुखदुखिया जानके, सुधि० ॥ टेक ॥ तीनलोकस्वामी नामी तुम त्रिभुवनके दुखहारी । गनयरादि तुम शरन लई लख लीनी सरन विहारी ॥ सुध ली० ॥१॥ जो विधि अरी करी हमरी १ मेघ । २ समतारूपी वेलके काटनेके लिये कुल्हाडी । ३ सिंह । ४ हाथी । ५ दुश्मन । ६ नरक । ७ नागय ग ! ८ वैरागी हुए। ९ हाथी। १० भ्रमर । ११ इन्द्रायणका फल । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह । गति, सो तुम जानत सारी । याद किये दुस होत हिये व्यों, लागत कोट कटारी ।। सुध लीयो० ॥२॥ लब्धि. अपर्यापतनिगोदमें एक उसासमंमारी। जनममरन नवदु. गुन वियाकी कथा न जात उचारी | सुघ लीयो० ॥ ॥३॥ भूजल विकन पवन प्रतेक तरु, विकलत्रयतनधारी । पंचेंद्री पशु नारक नर सुर, विपति भरी भयकारी ॥ सुध लीज्यो० ॥ ४ ॥ मोह महारिपु नेक न सुखमय, होन दई सुधि धारी । सो दुठ मंद भयो भागनते, पाये तुम जगतारी ॥ सुध लीज्यौ ॥५॥ यद्यपि विरागि तदपि तुम शिवमग, सहज प्रगटकरवारी । ज्यों रविकिरन सहजमगदर्शक यह निमिच अनिवारी ॥ मुब ली० ॥ ६॥ नाग छाग गज वाघ भील दुठ, तारे अधम उधारी । सीस नवाय पुकारत अबके, दौल अधमकी वारी । सुध ली० ॥ ७॥ १५ मत राचो घांधारी, भव रंमयंभसम जानके । मत राचो० ॥ टेक ॥ इन्द्रजालको रुपाल मोह ठग, विभ्रमपास प्रसारी। चहुंगति विपतिमयी जामें जन, भ्रमत मरत दुख १ अठारहवारकी ।२ पृथ्वीकाय ! : अनिकाय । ४ है बुद्धिमानों। ५ केके खमे गमान । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दौलत - जैनपदसंग्रह | > भारी || मत० ॥ १ ॥ रामा मा, मा धामी, सुत पितु, सुताश्वस, अवतारी । को अचंभ जहां श्राप थापके, पुत्र दशा विस्तारी || मत राचो० ॥ २ ॥ घोर नरक दुख ओर न छोर न लेश न सुख विस्तारी । सुरनर प्रचुर विपयजुर जारे, को सुखिया संसारी ॥ मताची० ॥ ३ ॥ मंडल है खंडल छिनमें, नृप कृमि सघन भिखारी । जा सुन विरह मरी है वाघिनि, ता सुत देह विदारी । मदराचो० ॥ ॥ ४ ॥ शिशु न हिताहितज्ञान तरुण उर, पढनर्दहन पर जारी । वृद्ध भये विकलांगी थाये, कौन दशा सुखकारी ॥ मत राचो० ॥ ५ ॥ यौं थसार लख छान भव्य झट, भये मोग्मचारी । यातें होउ उदास 'दौल' थत्र, भज जिन पति जगतारी ॥ मत० ॥ ६ ॥ १६ नित पीड्यौ घोधारी, जिनवानि सुत्रापमं जानके, निव पी० ॥ टेक ॥ चीरमुखारविंदतें प्रगटी, जन्मजरागंद टारी । गौतमादिगुरु-उरघर व्यापी परम सुरुचि करतारी ॥ नित• ॥ १ ॥ सलिले समान कलिलमलगंजन वुत्रमनरंजनहारी । भंजन विभ्रमधूलि प्रभंजन, मिध्याजलद निवारी १ स्त्री । २ बहिन । ३ कुत्ता | ४ देव । ५ लट | ६ कामाग्नि । ७ जैनशास्त्रोंको ! ८ अमृत समान । ९ महावोर म्वानीके मुखकमलले । १० रोग | ११ जलके समान । १२ पापरूपी मैलकों नष्ट करनेवाली । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। नित पी० ॥ २ ॥ कल्पानकतरु उपवनपरिनी, तरनी भवजलतारी । वधविदारन पैनी छैनी, मुक्तिनसनी सारी ॥ नित पी० ॥ ३॥ स्वपरस्वरूप प्रकाशनको यह, भानु फला अविकारी। मुनिमन कुमुदिनि मोदन-शशिमा, शमसुखसुमनसुवारी ॥ निजाको सेवत वेवंत निनपद, नशत अविद्या सारी। तीनलोकपति पूजत जाको, जान त्रिजगहितकारी ॥ नित० ॥५॥ कोटि जीमसौं महिमा बाकी, कहि न सके पविधारी। दौल अल्पपति केम कहै यह, अधम उधारनहारी ।। नित० ॥ ६ ॥ __ मत कीज्यौ जी यारी, पिनगेह देह जह जान के, मन की० ॥ टेक ॥ मात-तात रज वीरजसौं यह, उपनी मलफुलवारी । अस्थिमाल पलनसाजालकी, लाल लाल जलक्यारी ।। मत की० ॥ १॥ कर्मकरंगवलीपुतली यह, मूत्रपुरीषभंडारी । चर्ममंडी रिपुकर्मघडी धन, धर्म चुराधन १" मंगलतरुहि उपावन धरनी" ऐसा भी पाठ है। २ नौका ३ कर्मबंध । ४ तीसी छणी | ५ मुनियोंकी मनरूपी कुमोदिनीको प्रफुल्लित करनेकेलिये चन्द्रमाकी रोशनी । ६ समता-रूपी सुख ही हुमा पुष्प, उसके लिये अच्छी बाटिका १७ जानते वा अनुभपते हैं। ८ वीन भुवनके रामा इन्द्रादिक अपारी इन्द । १० पृणाका घर 1१५ हार मार नसोंके समूहकी। १२ कर्मरूपी हरिनोंको फंसानेवासी जगहपर पुतलीके पमान । १३ विधा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। हारी ॥ मत कीज्यौ० ॥२॥जे जे पावन वस्तु जगत में, ते इन सर्व बिगारी । स्वेदमेदेकफक्लेदमयी बहु, मर्दैगदव्यालपिटारी ॥ मत की० ॥ ३ ॥ जा संयोग रोगभव तौलौं, जा वियोग शिवकारी । वुध तासौं न पमत्व करें यह, मूढमतिनको प्यारी ॥ प्रत की० ॥४॥ जिन पोषी ते भये सदोषी, तिन पाये दुख भारी। जिन तपठान ध्यानकर शोषी, लिन परनी शिवनारी ॥ गत की० ॥ ५॥ सरधनु शंग्टजलद जलवुदबुद, त्यौं झट विनशनहारी । यात भिन्न जान निज चेतन, 'दौल' होहु शंमधारी । गत की० ॥ ६॥ जाऊ कही तन शरन तिहारे ॥ टेक ॥ चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुन धारे ॥१॥ डूबत हो भवसागरमें अब, तुम बिन को मुह वार निकारे ॥ २ ॥ तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातै हम यह हाथ पसारे ॥३॥ मोसम अधर अनेक उघारे, वरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे ॥४॥" दोलत " को भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे ॥५॥ . १. पसीना । २ चरवी । ३ दुःख । ४ मदरोगरूपी सापके लिये पिटारी । ५ ससाररूपीरोग । ६'क्षीण की । ७ इन्द्रधनुष । ८ शरदऋतुके बादल । ९ समता धारी। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह । १५ १२ जयनं आनंद जननि दृष्टि परी माई । तब. संशय .विमोड मरमता विलाई । जस्तैः ॥ टेक ॥ मैं हूं चिनचिह्न, मिन्न परतें, पर जडस्वरूप, दोरमकी एकना सु, जानी दुखदाई | जमन० ॥ १ ॥ गणादिक कंबहेन, वधन बहु विपनि देत, संदर किन जान तामु, हेतु ज्ञानताई । जवते ॥ २ ॥ सब मुबमर शिव है तमु, सारन विधिमारन इमि, तत्की विचारम लिन.-वानि सुधिकराई । जवक्० ॥ ३ ॥ विषयचाइबाली, द. इयो अनंतकालने सु, धांघुस्यापदांकगाह, प्रशांनि आई । जबते ॥४॥ या दिन जगजाल में न शरन तीनकालमें स,-म्हाल चिन भजो सढीव, दौत्र यट समाई। जवतैः ॥५॥ भज ऋषिपंति ऋगमेश नाहि नित, नमत अमर सुरा । मनमध मथ दरपादन शिवय, तृप-स्य चक्रधुरा ।। भज० ॥ टेक ॥ जा प्रभु गर्म छमामपूर्व मुर, करी सुवर्ण धरा । जन्मन सुरगिर घर सुरगन्युत, हरि पय न्दरन करा: मज० ॥ * ॥ नटन नती मिलय १ निर्जरा । २ स्याद्वादरूपी अमृतने अवगाहन करनेसे ।३ मुनिनाय । ४ धर्म ईग माटिनाय मगवान् । ५ कामदेवके मथनेवाले । ६ मोतपय ७ इन्द्र । ८ अपारा। - - - - - - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ दौलत-जैनपदसंग्रह । देख प्रभु, लहि विराग तु थिरा । तबहिं देवऋषि आय नाय शिर, जिनपर पुष्प धरा ॥ मज ॥२॥ केवल समय जास वैव रविने, जगभ्रम-तिमिर हरा । सुग-योध-चारित्र, पोतलहि, भवि भवसिंधु तरा ॥ भन० ॥३॥ योगसंहार निवार शेषविधि- निवसे वसुम धेरा । दौलत जे याको जस गाय, ते हैं धज अमरा ॥ भन० ॥४॥ जगदानंदन जिन अभिनंदन, पद घरविंद नमूं मैं तेरे । जग० ॥ टेक ॥ अरुणवरन अपनाए हरन पर, वितरन कुशल-सु शरन बडेरे । पद्मासदन मदन मद. भजन, रंजन मुनिजनमन अलिकेरे ॥ जग० ॥ १ ॥ ये गुन सुन मैं शरनै आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे । ता मदभानन स्वपर पिछानन, तुम विन श्रान न कारन हेरे । जग० ॥२॥ तुम पदशरण गही जिन ते, जामनजरा-मरन-निरवेरे । तुमते विमुख भये शठ तिनको, चहं मति विपतपहाविधि पेरे ॥ जग० ॥ ३ ॥ तुमरे अमित सुगुन ज्ञानादिक, सतत मुदित गनराज उगेरे । लहत न मित मैं • पतितं कहों किम, किन शर्शकन गिरिराज उखेरे ॥ जग० ॥ ४ ॥ तुम विन राग र लोकातिकदेव । २वचनरूपी सूर्यने । ३ जहाज । ४ शेषके चारभपातिकम । ५ आठवीं पृथ्वी अर्थात् मोक्ष । ६ लक्ष्मीके घर । ७मदका नाय करनेके लिये । ८ गाये। ९ पापी । १० खर्गेशोंने । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-मैनपदसंग्रह | १७ दोष दर्पनज्यों, निज निज भाव फलै तिनकेरे । तुम हो सहज जगत उपकारी, शिवपय- सारथवाह भबेरं ॥ जग० ॥ ५ ॥ तुम दयाल वेहाल बहुत हम, काळ- करालव्यात चिर-मेरे। माल नाय गुणमाल जप तुप, हे दयाल, दुखटाल संवेरे || जग० || ६ || तुम बहु पतित सुपावन कीने, क्यों न इरो भव संकट मेरे । भ्रप उपाधि हर शैमसमाधिकर, दौळ भये तुमरे अब चेरे ॥ जग० ॥ ७ ॥ २२ पद्मपद मुक्तिस दरशावन है । कलिमल· गंजन मन अलि रंजन, मुनिजन शरन सुपावन || पद्मा० ॥ टेक ॥ जाकी जन्मपुरी कुशंबिका, सुर नर-नाग- रमावन है । जाल जन्मदिनपुरन पटनव, मास रतन वरसावन है || पद्मा० ॥ १ ॥ जा वपयान पंपोसा गिरि सो, आत्म-ज्ञान थिर-थापन है । केवलजोत उदोव भई सो, मिध्यातिमिर नशावन है || पद्मा० ॥ २ ॥ जाको शासन पंचाननसो, कुपति मेवंग नशावन है । राग विना सेवक जन तारक, पै तंसु रुपेतुंप भाव न है ॥ १ शीघ्र । २ शान्तिसमाधि । ३ समवसरण लक्ष्मी । ४ पद्मप्रम बरग । ५ पद्मामुकि = मोटरमा ६ पोधा नामका पर्वत है । ७ उप देश | ८ सिंह ९ हामी । १० रोप, तोच शेष, राप । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। पमा० ॥३ ॥ जाकी महिमाके वरननसों, सुरगुरु बुद्धि थकावन है ।दौल अल्पमतिको कहवो जिमि, शशकगिन्दि धकावन है।पमा० ॥४॥ । चन्द्रानन: जिन चन्द्रनाथके, चरन चतुर-चित ध्यावतु हैं। कर्म-चक्र-चकचूर चिदातम, चिनमूरत पद पावतु हैं । चन्द्रा० ॥ टेक ॥ ___ हाहा-हूहू-नारद-तुंबर, जासु अमल जस गावतु हैं। पमा सची शिवा श्यामादिक, करधर बीन बजावतु हैं। चन्द्रा० ॥१॥ विन इच्छा उपदेश माहिं हित, अहित जगत दरसावतु हैं । जा पदतट सुर नर मुनि घट चिर, विकट विमोह नशावतु हैं । चन्द्रा० ॥ २ ॥ जाको चन्द्र बरन तनदुतिसों, कोटिक सूरै छिपावतु है । आत 'मजोत उदोतमाहिं सब, ज्ञेय अनंत दिपावतु है ।। चन्द्रा० ॥३॥ नित्य-उदय अकलंक अछीन सु, मुनि'उर्दू-चित्त रमावतु हैं । जाकी ज्ञानचन्द्रिका लोका,'लोक माहिं न समावतु हैं ।। चन्द्रा० ॥ ४ ॥ साम्यसिंधु बर्द्धन जर्गनंदन, को शिरं हरिगन नाचत हैं। संशप विभ्रम १ इन्द्रकी बुद्धि । २ जैसे खर्गोश सुमेरुको धकेलना चाहे । ३ हाहा, 'नारद और सुबर ये गंधर्व देवोंके भेद हैं । ४ देव मनुष्यों के यका। ५ सूर्य । '६ पदाये । . तारा । ८ समताकमी समद्रको बहानेवाला। भगको भानंदित करनेवाला। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोक्य जैनपदसंग्रह । १९ मोड दौलके, हर. जो जगभरमावतु हैं ॥ चन्द्रानन जिन ॥५॥ जय जिन वासुपूज्य शिव-रमनी-रमन मैदन दनुदारन हैं। वालकाल संयम सम्हाल रिपु, मोईज्यान पलमारन हैं ॥ जय जिन० ॥१॥ जाके पंचकल्यान भये चंपापुरमें सुखकारन हैं । वासवछंद अमंद मोद घर किये भवोदधि तारन हैं ॥ जय जिन० ॥२॥ जाके बैन सुधा त्रिभुवन जन, को भ्रमरोग विदारन है। जा गुनर्चितत अमल अनल मृत, जनम-जरा-वन-जारन हैं ॥ जय० ॥ ३॥ जाकी अरुन शातछवि-रविमा, दिवस प्रवोव प्रसारन हैं । जाके चरन शरन सुरत वांछित शिवफल विस्तारन हैं ।। जयजिन ॥ ४॥ जाको शासन सेवत मुनि जे, चारज्ञानके धारन हैं। इन्द्रफर्णीद्र-मुकुटपणि-दुतिजल, जापद कलिल पखारन हैं जय० ॥ ५ ॥ जाकी सेर अछेवरपाकर, चहुंगतिविपति उधारन है । जा अनुभवपनसार सुमाकुल-तापकलाप निवारन हैं ॥ जय० ॥ ६ ॥ द्वादशों निनचन्द्र जास १ कामदेवपी राक्षसको मारनेवाले। २ मोहरूपी सांपइन्दो. के समुह | Nis ५ पाप। अक्षयसनी ( मोक्ष) की करने. बाली । ७ अनुमनरूपी मलयागर चन्दन ! ८ माइत्तताके तापका मन्द । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० दौलत - जैनपदसंग्रह | वर, जस उजासको पार न हैं । भक्तिमारतें नमें दौलके, चिर- विभाव-दुख टारन हैं ॥ जय० ॥ ७ ॥ २५ कुंथुनके प्रतिपाल कुंथ जग, तार सारगुनधारक है। बर्जितेग्रन्थ कुपंथविसर्जित, अर्जितपंथ अमारक हैं ॥ कुन्युनके० ॥ टेक ॥ जाकी समवसरनवहिरंग, - रमा गनधार अपार कहैं । सम्यग्दर्शन- दोष-चरण- अध्यात्म-रमाभरमारक है || कु० ||१|| दशया-धर्म- पोर्तेकर भव्यन, को भवसागर तारक हैं। वरसपाधि-वन धन विभावरज, पुंजनिकुजनिवारक हैं | कुंथु० || २ || जासु ज्ञाननभर्मे अलोकजुत- लोक यथा इक तारक हैं। जासु ध्यानहस्तावलम्ब दुख-कूपविरूप- उधारक हैं || कुं० ॥ ३ ॥ तज ईखंडकपला मस अमला, तपकमला आगारक हैं । द्वादशसभा - सरोजसूर भ्रम -तरुअंकुर उपारक हैं ॥ कुंथुनके० ॥ ४ ॥ गुणअनंत कहि लहत अंत को १ सुरगुरुसे बुध हार कहैं । नमें दौल हे कृपाकंद, भवद्वंद डार बहुवार कहें ॥ कुंथुन० ॥ ५ ॥ २६ पास अनादि अविद्या मेरी, हरन पीस परमेशा है । १ छोटे २ जीवोंके भी । २ परिमहरहित । ३ अहिंसक पथके अर्जन करनेवाले ! ४ गणधरदेव । ५ दशलक्षण धर्मरूपी जहाज करके । ६ व खंडकी लक्ष्मी । अनादि अवेवारूपी फांसी । ८ पार्श्वनाथ भगवान - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत जैनपदसंग्रह। । चिद्विळास , सुखरामकाशवितरन त्रिमोने-दिनेशा है ॥ टेक ॥ दुर्निवार कदैपसर्पको दर्पविदरन खगेगा है। कुंठ-अठ-कमठ-उपद्रवमयसमीर-सुवर्णनगेशा है । । पास० ॥१॥मान अनन्त अनन्त दर्श बल, सुख अनन्त पदमेशा है । स्वानुभूति-रमनी-वर भवि-भव-गिर पवि शिव-सदमेशा है ॥ पास० ॥२॥ऋषि मुनि यति अनगार सदा तिप्त, सेवत पादशेसा है । बदनचन्द्र मरें गिरामृत, नाशन जन्म-कलेशा है ॥ पास० ॥३॥ नाममंत्र जे जपें भव्य विन, अघहि नशन अशेषा है । सुर अहमिन्द्र खगेन्द्र चन्द्र है, अनुक्रम होहिं मिनेशा है ॥ पास० ॥ ४ ॥ लोक-लोक-य-नायक पं, स्त निजमावचिदेशा है । रागविना सेवकजन-नारक, मारके मोह न देपा है॥ पास० ॥५॥ भद्रसमुद्रविवर्दन अद्भुत पूरनचन्द्र सुवेशा है ।दौल नने पद तासु, जासु, शिवथल समेदअचलेशा है ।। पान० ॥ ६ ॥ १वीन लोकके सूर्य । २ कामदेवरूपी सपको। ३ गस्लपक्षी। ५ दुध, शठ, ऐसे कमठके उपद्रवरूपी प्रलयकालकी आधीको सहन करने. पा मेरुपर्वत हो। ५ लक्ष्मीके ईश। ६ स्वानुमवरूपी स्त्रीके गुलद । ७ भन्योंके संसाररूपी पर्वतके नए करनेको पत्रके समान ! ८ मोक्ष माल मालिक । चरणकमल । १० वचनरूपी भमृत । ११ सर । १२ मोह मारनेवाले। १३ पम्मेदमियर। . , Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत - नैनपदसंग्रह | २७ जय शिव - कामिनि कन्त वीरे भगवन्त मनन्तसुखाकर हैं । विधि-गिरि-गंजन घुषमनरंजन, भ्रमतमभजन भाकर हैं । ॥ जय० ॥ टेक ॥ जिनउपदेश्यो दुविधधर्म जो सो सुरसिद्धिरमाकर हैं । भवि उर- कुमुदनि. मोदन wear हरन अनूप निशांकर हैं ॥ जय० ॥ १ ॥ परम विरागि रहैं जगतें पै, जगतजंतुरक्षाकर हैं । इन्द्र फणीन्द्र खगेन्द्र चन्द्र जग, -ठाकर ताके चाकर हैं ॥ जय० ॥ २ ॥ जासु अनन्त सुगुनमणिगन नित गनत गनीगन थाक रहें । जा पद नवकेष लिलब्धि सु, कमलाको कपलाकर हैं ॥ जय० ॥ ३ ॥ जाकै ध्यान- कृपान रागरुष, पासहरन समताकर हैं । दौलनमै कर नोर हरन भव बाधा शिवराधाकर हैं ॥ जय० ॥ ४ ॥ २२ "" २९ : जय श्रीवीर जिनेन्द्रचन्द्र, शतइन्द्रबंध जगतारं । 'जय० ॥ टेक ॥ सिद्धारयकुळ-कमल-भ्रमळ - रवि, भवभूधरपविभारं । गुनमनिकोष अदोष मोषपति, विपिन कषायतुषारं ॥ जय० ॥ १ ॥ मदनकदन शिवसदन ↓ १ वद्धमान भगवान । २ कर्मरूपी पर्वतके नष्ट करनेवाले । ३ सूर्य । ४ दो अकारका धर्म गृहस्थ और मुनिका । ५ स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मीका करनेवाल 1 हैं । ६- चन्द्रमा । ७ ध्यानरूपी तरवारसे रागद्वेषकी फासीको काटनेवाला । ८ ससाररूपी पर्वतको बडे भारी बज्रके समान १९ कषायरूपी धनको तुष Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत - चैनपदसंग्रह | ૨૨ पद-नमित, नित अनमित यतिसारं । रमीअनंतकंत अंतर्ककृत, अंत जंतु हिवकारं ॥ जय० ॥ २ ॥ फेदे चंदनाकंदन दादुरदुरित तुरित निर्धारं । रुद्ररेचित व्यतिरुद्र उपद्रव, - पवन अद्रिपदि सारं ॥ जय० ॥ ३ ॥ अतीत भचित्य सुगुन तुम, कहत लडत को पारं । हे जगमौल दौ तेरे क्रम, नमें शीस कर धारं ॥ जय० ॥ ४ ॥ २९ उरग - सुरग- नरईश शोस rिs, आतपत्र त्रिधरे | कुंदकुसुमसम चपर अमरगन, ढारत मोदभरे ॥ उरग● ॥ टेक ॥ तरु अशोक जाको अवलोकत, शोकथोक उजरे । पारजातसंतानकादिके, बरसत सुमन ररे ॥ उरग० ॥ १ ॥ सुमणिविचित्र पीठअंबुजपर, राजत जिन सुथिरे । वर्णविगत बाकी धुनिको सुनि, मवि भवसिंधुतरे ॥ उरग० ॥ २ || साढ़े बारह कोड़ जातिके, वाजत तूर्व खरे । भामंदलकी दुविखंडने रविश्वशि मंद करे । उरग० ॥ ३ ॥ ज्ञान अनंत अनंत दर्श बल, शर्म अनंत भरे । करुणामृतपूरित पद जाके, दौलत हृदय घरे || उरग० ॥ ४ ॥ १ अनन्त मोक्षलक्ष्मी के पति । २ यमराजका भी किया है अन्य जिन्होंने ऐसे | ३ चंदनासती के फंद काटनेवाले । ४ समवशरण में पुष्प लेकर जानेवाले मेटकके पाप । ५ नामक दैत्यके किये हुए। ६ सनत | जगन्मुकुट | ८ चरण ९ छत्र १० तीन परे । ११ कुन्द फूल | १२ जनवरी । १३ वादे । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __२४ चौलत-जैनपदसंग्रह। भविन-सरोरुहसूर* भूरिगुनपूरित अरहंता । दुरित दोष मोष पथघोषक, करन कर्मअन्ता ॥ भविन० ॥ टेक ॥ दर्शवोपत युगपतलखि जाने जु भावऽनन्ता । विगताकुल जुतसुख अनन्त विन,-अन्त शक्तिवन्ता ।। भविन० ॥जातनजोतउदोतयकी रवि, शशिदुति लांजता। तेजयोक अवलोक लगत है, फोक सैचीकन्ता | भविन० ॥२॥ जास अनूप रूपको निरखत, हरखत हैं सन्ता। जाकी धुनि सुनि मुनि निजगुनमुन, पर-गर उगलंता भविन० ॥३॥ दौळ तौल नि जस तस वरनत, सुरुगुरु अकुलता। नामाक्षर सुन कान स्वानसे, रांक नाकगता -भविन ॥४॥ हमारी चीर हरो भवपीर । हमारी० ॥टेक०॥ मैं दुखतपित दयामृतसर तुम, लखि भायो तुम तीर । तुम परमेश मोखमगदर्शक, मोडदवानलनीर । इपारी० ॥१॥ तुम विनहेत जगतउपकारी शुद चिदानंद धीर । गनपतिज्ञानसमुद्र-न लधै, तुम गुनसिंधु गहीर ।। हमारी० ॥२॥ याद १भव्यरूपीकमलोंको सूर्य । २ दोषरहित । ३ दर्शन और ज्ञानसे । ४भालतारहित । ५इन्द्र । ६ अपने गुणोंका मनन करके । ७ विभाव पी विष । ८ अपरिमित । इन्द्र । १० रंक नाचीज1११ स्वर्ग गया। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-बैनपदसंग्रह ! - २५ नहीं मैं विपति सही जो, घर पर अमित शरीर । तुम गुनचिंतत नत्रत तया भय, ज्यों धन चळन समीर ॥ हमारी०॥ ३ ॥ कोटवारकी अरज यही है, मैं दुख सहूं अधीर । हरहु वेदनाफन्द दौलको, कनर फर्म जंजीर ।। हमारी० ॥४॥ सब मिल देखो हेली म्हारी है, निसलामाल वदन रसाल । सब० ॥टेक ॥ भाये जुनसमवसरन कपाल, विचरत अभय व्याल पराल, फलित भई सकल तरुमात । सब० ॥१॥ नैन न हाल भृकुटी न चाल, वैन विदारे विभ्रमजाल, छवि लखि होत संन निहाल । सब० ॥ २॥ वंदन काम सान सपाज, संग लिये स्वजन पुरजन ब्राज, श्रेगिक चलत है नरपाल । सब० ॥ ६॥चों कहि मोदजुच पुरवाल, सखन चाली चरम जिनपाल, दौलत नमत घर घर माल ॥ सय० ॥ ४ ॥ अरिजरस हनन प्रभु अरहन, जैवतो जगमें । देव प्रदेव सेव कर जाकी, धरहि बोलि पगमें ॥ अरिरज० ॥टेक ॥ भो तन अष्टोचरसहस्र लक्खन लखि कलिल शमें । जो चदी. पशिखा मुनि विचरें शिवमारगमें ॥ भरिग्नः ॥ १ ॥ मास पासते शोडारन गुन, प्रगट भयो नगमें । व्यालपराल - मोह । २ शानदर्शनावरणी । ३ अन्तराय ! ४ भगोकनृप में । - - - - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ दौलत-जैन पद संग्रह | कुरंगसिंघको, जातिविरोध गर्मे ॥ अरिश्ज० ॥ २ ॥ जाजस-गगन उलंघन कोऊ, क्षमं न मुनीखगमें। दौक नाम तसु सुरतरु है या, भवमरुलपगमें || अरि० ॥ ६ ॥ ३४ हे जिन तेरे मैं शरौ आया । तुम हो परप्रदपाल जगतगुरु, मैं भव भव दुख पाया ॥ हे जिन० ॥ टेक ॥ मोह महादुठें घेर रहयो मोहि भवान भटकाया । नित निज ज्ञानचरननिधि विसरयो, तन धनकर अपनाया ॥ हे जिन० ॥ १ ॥ निजानंद अनुभवपियूष तज, विषय हलाहल खाया | मेरी भूळ मूळ दुखदाई, निमित्त मोहविधि याया || हे जिन० || २ || सो दुठ होत शिथिल तुमरे ढिग, और न हेतु लखाया | शिवस्वरूप शिवमगदर्शक तुम, सुयश सुनीगन गाया | हे जिन● ||३|| तुम हो सहज निमित जगहितके, मो उर निश्चय भाया ॥ भिन्न होहुं विधित सो कीजे दौल तुम्हें सिर नाथा ॥ है जिन० ॥ ४ ॥ ३५ हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीनै रागद्वेपदावानलतें वचि, समतारसमें ॥ १ ॥ परकों त्याग भपनपो । हे जिन० ॥ टेक ॥ भोजे । हे जिन० ॥ निजमें, काग न कबहूं १ समर्थ । २ संसाररूपी मारवाड देशके मार्ग में । ३ दुष्ट । ४ संसार रूपी वन । ५ अमृत ! ६- कर्मोंसे 1 ७ भात्मा, अपनापना । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जनपदसंग्रह। २७ छीने ॥ हे जिन० ॥ १ कर्म कर्मफलमाहि न राचे, मानसुधारस पीनें ॥ हे जिन० ॥३॥ मुझ कारके तुम कारन घर, भरज दौलकी लीजै । हे जिन० ॥४॥ शामरियाके नाम जपेत, छूट जाय भवमामरिया । शाम० ॥ टेक ॥ दुरित दुरत पुन पुरत फुरन गुन, भातमकी निधि भागरियो । विघटत है परदाह चाह झट, गटकन समरस गागरियो । शाम०॥१॥ कटत कलंक कर्म कलसायन, प्रगटत शिवपुरदागरियां । फटत घटाधन मोह छोह हट, प्रगटत भेदज्ञान परियां || शाम० ॥२॥ कृपाकटाक्ष तुमारीहीत, जुगलनागविपदा टरिया पार भये सो मुक्तिरम तुद पागरियां ।। शाम०॥३॥ ३५ शिवमगदरसावन संवरो दरस । शिवमग० ॥ टेक ।। पर-पद चाह-दाह-गद नाशन, तुम ववभेषज-पान सरस । शिवमग ॥१॥ गुणचितवत निज अनुभव प्रगटे, विघटै १ भवनमण । २ पाप । ३ विपते है।४ स्फुरित होता है ।५ गटफठे हैं अर्थात् पाते हैं । ६कातिरा | ७ मोक्षको रगर अधात गाना । ८ रागद्वेष । ' म्हारा नाम पारण करके । १. आपका ९५ पुगतर. मन्त्री बाहक दाहम्पी रोग नाश करने हिरे वा! Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दौलत-जैनपदसंग्रह । "विधिठग दुविध तरस । शिवमग० ॥२॥दौल अबाची* संपति •सांची, पाय रहै थिर राच सरस । शिवमग० ॥३॥ मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम । मोहि कीजै शिवपथगाम पाटेका मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अब, तुम दुख मेटत कृपाधाम! मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुंमति विदित ठाम । मेरी० ॥१॥ विषयन मन ललचाय हरी मुम, शुद्धज्ञान-संपतिललाम । अयवा यह जड़को न दोप मम, दुखसुखता, पान तिसुकाम ॥ मेरी० ॥२॥ भाग जगे अब चरन जपे तुम, चच सुनके गहे सुगुनग्राम । परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुगुनदाम । मेरी॥३॥ निर्विकार संपति कृति तेरी, विपर कारों कोटिकाम । भन्यनिके भव हारन कारन, सहज यथा तमहरन घाम ।। मेरी० ॥४॥ तुम गुनमहिमा कथनकरनको, गिनत गॅनी निजबुद्धि खाम । दोलतनी श्र. शान परनती, हे जगत्राता कर विराम | मेरी०॥५॥ मोहि तारो जी क्यों ना ? तुम तारक त्रिजग त्रिकालमें, मोहि० ॥ टेक ॥ मैं भवनदधि परयौ दुल भोग्यो, सो दुख * * अवाच्य, जिसका वर्णन न होसके । २ गुणों के समूह ।३ गुणोंकी माला । ४ सूर्यका प्रकाश । ५ गणधर । ६ कोताही कमी । दैलतकी। . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जनपदसंग्रह। मात कहो ना । जामन मरन अनंततनो तुम जानन माहि चिप्पो ना मोहि० ॥१॥विषय विरसरस विषम भख्यो में, चख्यौ न ज्ञान सलोना। मेरी भूल मोहि दुस देवे, कर्मनिमित मलौ ना ॥ मोहि० ॥२॥ तुम पदकंज घरे हिरदै जिन, सो भवताप तप्यौ ना । सुरगुरुहके वचनकरनेकर तुम जसगगन नेप्यों ना ॥ मोहि० ॥ ३॥ गुरुदेव कुश्रुत सेये मैं, तुम मत हृदय परयो ना। परम विराग शानमय तुम जाने विन काज सरयौ ना ।। मोहि० ॥ ४॥ मोसम पतित न और दयानिधि, पतिततार तुम सौ ना। दौलतनी अरदास यही है फिर भनवास बसौं ना ॥ भोहि ॥५॥ मैं आयौ, जिन शरन तिहारी । मैं चिरदुखी विमावमावत, स्वाभाविक निधि पाप विसारी ।। मैं० ॥१॥ रूप निहार घार तुम गुन सुन, वैन होत भवि शिवमगचारी । यौँ मम कारजके कारन तुम, तुमरी सेव एक उर धारी ॥ मैं० ॥२॥ मिल्यो भनन्त जन्म अवसर, अब विनऊ हे मव. सरतारी। परम इष्ट अनिष्ट करपना, दौल को मट मेट हमारी | मैं० ॥३॥ १बनापी किरणों मपया हामोरे ।२मापा नहीं गया। ३ पापी ४ पापिनोगतारनेपाडा ५ मनी । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० . दौलत-जैनपदसंग्रह। मैं हरल्यौ निरख्यौ मुख तेरो । नासान्यस्त नयन , इलय न, वयन निवारन मोह अंधेरो ॥ मैं० ॥ १॥ परमें कर मैं निजवृधि अब लों, मवसरमें दुख सहयौ पनेरो । सो दुस भानन स्वपर, पिछानन, तुमविन आनन कारन हेरो ॥ मैं० ॥२॥ चाह भई शिवराहलाहकी गयौ उछाह असंजमकेरो। दौलत हितविराग चित मान्यौ, 'जान्यो रूप ज्ञानदृग भेरो ॥ मैं० ॥३॥ प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी ॥ टेक ॥ परम निराकुलपद दरसावत, वर विरागताकारी। पट भूपन विन पै सुन्दरता, सुरनरमुनिमनहारी, प्यारी॥१॥ जाहि वि. लोकत भवि निज निधि लहि, चिरविभावताटारी । निरनिमेपते देख सचीपती, सुरता सफल विचारी ।। प्यारी० ॥२॥ महिमा अकथ होत लख ताकी, पशु सम समकितधारी । दौलत रहो ताहि निरखनकी, भव भय टेव हमारी ॥ प्यारी० ॥३॥ निरखत सुख पायौ, जिन मुखचन्द । नि० ॥ टेक ॥ मोह महातम नाश भयौ है, उर अम्बुज प्रफुलायौ। नासिकापर लगाई है दृष्टि जिसने । २'भौहें नहीं हिलती है। ३ लाम-प्राप्तिकी । ४ टिमकाररहित ।५ ।। देवपणा। - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जनपदसंग्रह । ३१ __ ताप नस्यौ वटि उदधि अनन्द । निरल० ॥ चकवी अमति विठुर प्रति विलखै, आतमसुया सहायौ। शिथिल भए सब विधिगनफन्द । निरख० ॥२॥ विकट भवोदधिको तट निकटयो, अवतरुमूल नसायो । दौल लहयौ अव मुपद स्वछन्द ॥ निरख० ॥३॥ ४४ निरख सखि ऋषिनको ईश यह ऋषभ जिन, परखिके स्वपर परसोंज छारी | नैन नासाग्र परि मैन विनसायकर, मौनजुत स्वास दिशि-सुरभिकारी || निरख० ॥ १॥ घरासम शांतियुत नरामरखचरनुत, वियुतरागादिमद दुरितहारी । नाम जमपास भ्रमनाश पंचास्य मृग, बासकरि प्रीतिकी रीति धारी || निरख० ॥२॥ ध्यानंदवमाहि विधिदारु प्रजराहि सिर, केशशुभनिमि धुमां दिशि विधारी फंसे जगपंक जनरंक सिन काढने, किषों जगनाह यह वांह सारी ॥ निरख० ॥३॥ त हाटकवरन वसन विन मा. भरन, खरे यिर ज्यों शिखर मेरकारी । दौलको दैन शिवघौल जगमोल जे, तिन्हें कर बोर बन्दन हमारी ॥ निरस० १ परपरणति । २ काम । ३ दिशाओंको मुगन्धित करनेवाली। ४ मनुष्य देव विद्याप ले रन्दनीय १५ रहित । ६ पाए । परण। सिंह । १ पानरूपी अग्नि ।१० कर्मरूपी ईपन । ११ विस्तारी। १२ पसारी |१३ सपाये हुये मोनेका सा रंग । १५ मेरका । १५ मुखि. रूपी महल। - - - - - - - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ दौलत-जनपदसंग्रह। ___ ध्यानपान पानि गहि नासी, वेसठ प्रकृति भी। शेष पंचासी लाग रही है, ज्यौं जेवरी जरी ॥ ध्यानाटेका। दुठ अनंगमातंगभगार, है प्रवलंगहरी । जा पदभक्ति भक. जनदुख-दावानल-मेयझरी ।। ध्यान० ॥ १ ॥ नवल धवल पले सोहै कलमें, दुधपत्याधि टरी । हलत न पलक अलक नख बढत न गति नभमाहि करी ॥ ध्यान ॥२॥ जा विन शरन मरन जर घरघर, महा असात भरी। दौल तास पद दास होत है, पास मुक्तिनगरी ॥ ध्यान० ॥३॥ दीठा भागनः जिनपाला, मोहनाशनेवाला । दीग ॥ टेक ।। सुभग निशक रागविन यात, वसन न आयुध बाला॥ मोह० ॥१॥ नास ज्ञान युगपत भासत, सकल पदारथमाला ॥ मोह० ॥२॥ निजमें लीन हीन इच्छा पर, हितमितवचन रसाला । मोह० ॥३॥ कखि जाकी छवि आतमनिधि निज, पावत होत निहाला । मोह० ॥४॥ दौल जासगुन चिंतत रत है, निकट विकट भवनाला॥ मोह०॥५॥ १ म्यानरूपी तलवार ।२वातिया कमौकी प्रकृतियें। ३ कामदेवरूपी उस्ती को मारनेवाले। ४ बलवान सिंह । ५मान रुधिर । शरीरमें। ८ सम्पग्धसे लगाकर बारह गुणस्थानकके 'जीवोंको मिनया है. उनका रसास्त्री । - - - - - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गैरत-जैनषदसमह । होली ४७ ज्ञानी ऐसी होली मचाई० ॥ टेक ॥ राग कियो विपरीत विपन घर, कुमति कुसौतिसुहाई । धार दिगम्बर कीन सु संवर, निज परमेद लखाई ।घात विषयनिकी बचाई ॥ हानी ऐसी० ॥ १ ॥ कुमति मसा मजि ध्यान मेद सम, तनमें तान उड़ाई । कुंभक ताल मृदंगसौं पूरक, रेचक चीन बजाई । कगन अनुभवसौं लगाई ।। शानी ऐसी० ॥२॥ कर्मवलीता रूप नाम अरि, वेद सुइन्द् िगनाई । दे तप अग्नि भस्म करि तिनको, घुल प्रघाति उड़ाई । करी शिव नियकी मिलाई ।। बानी ऐसी० ॥३॥ मानको फाग मागवण आवे, लाख करो चतुराई । सो गुरु दीनदयाल कृपाकरि, दौलत तोहि बताई । नहीं चितसे विसराई ।। मानी ऐसी होली मचाई ॥४॥ होली १८ मेरो मन ऐसी खेलत होरो ॥ टेक ॥ मन मिरदंग सानकरि त्यारी, तनको तमृग बनोरी । सुमति सुरंग मरंगी बनाई, माल दोड कर जोरी । गम पांचों पद कोरी ॥ मेगे मन ॥ १॥ समकृति रूप नीर भर भारी, कम्ना केशर घोरी। बानमई लेकर पिचकारी, दोउ करमादि सम्होरी। इन्द्रि पांचौ मरिल बोरी । मेरो मन० ॥ ९॥ चतुर दानको Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ दोल्व-बनपदसंग्रह । है गुलर सो, भरि भरि मृठि चलोरी । तर नेशकी भरि निज मोरी, यशको अबीर उडोरी ।रंग निनाम मचोरी । मेरो मन० ॥३॥ ढोल बाल तेते अस होरी, भवभव दुःख टलोरी । झरना ले इक श्रीजनको री, नगमें लान हो नोरी मिल फगुआनिगोरी मेरो मन० ॥ ४॥ निरखत जिनचंद से माई ।। टेक ।। प्रदुति देख मंद मयो निमिपनि, मान सु पग लिपाई । प्रभु मुचंद बद्द मन्द होत है, जिन ललि त हिराई । सीव अभुत सो रवाई ।। निरखत दिन ॥ १ ॥ अंबर शुभ्र निस्तर दीस, उत्तमित्र सरसाई । फैलि रही जा धर्म जुन्हाई, चारन चार खाई। गिरा वसूत जो गनाई || निरखत निः ॥२॥ भये प्रति भन्न मुदमन, मिथ्यावर सो नसाई । दर म भवताप सबनिक, पुर अंबुथ सो बट्टाई । मदन चक्रवकी जुदाई । निरखद जिन० ॥ ३॥ श्रीजिनचंद चन्द अब दौलत, चितकर चन्द लगाई । मन्त्र निन्छ होत हैं, नागसुदनि लसाई । होत निर्विष सरपाई । निरखद जिन ॥ ४॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। चलि मखि देखन नाभिरायश, नाचन हरि नया चल० ॥ टेक ॥ भदभुत ताल पान गुमलययुत, चत राग पटवा। चलि सखि० ॥१॥ मनिमय नूपुरादिभूपनदुति, युत सुरंग पटवा । हरिकर नखन नखन सुरतिय, पगफेरत कटा। चलि० ॥२॥ फिभर करघर धान बजावत, गवत लय मंटवा। टौलव ताहि लखें चख तपते, समत शिववेटवा । पलि० ॥३॥ आज गिरिसाज निहारा, पनमाग हमारा । श्रीमम्मेद नाम हैजाको, भूसतीग्य भारा ।। भाज गिरि० ॥ टेक ।। जहां पीस जिन मुक्ति पधारे, अवर मुनीश अपारा। आरजभुमिशिग्वामनि सोह, सुरनरमुनि-मनप्पारा || भाज गिरि० ॥१॥ तह घिर योग धार योगीसुर, निज-परतव विचारा। निज स्वभावमें लीन होयफर, मकल विभाव निवारा ।। भाज गिरि० ॥ २ जाहि जजन भवि भावनत नव, भवमवातक टारा । जिनगुन धार धर्मधन संचो, मवदारिदहरतारा ॥ भान गिरि० ॥३॥ इक नम नवक वर्ष (१९०१) माधवदि, चोदश वासर मारा । माय नाय जुन माय दोकने, जप जय शन्द चारा। भान गिरि०ा इन्दरूरी मट । २ गाने है । | ४ पटे। ५एर हायों नसों पर। कमर । शीघ्र हो। नेत्र । मोसमा । - e -m on - an Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत - जैन पद संग्रह | ५२ आज मैं परम पदारथ पायौ, प्रभुचरनन चित लायौ । भाज० ॥ टेक ॥ अशुभ गये शुभ प्रगट भये सहजकल्पतरु छायौं । आज० ॥ १ ॥ ज्ञानशक्ति तप ऐसी जाकी, चेतन पद दरसायो । आज० ॥ २ ॥ अष्टकर्म रिपु जोधा जीते, शिव अंकूर जमायौ । आज० ॥ ३ ॥ ३६ ५३ नेमिप्रभूकी श्यामवरन छवि, नैनन छाय रही ॥ टेक ॥ गणिमय तीनपीठपर अंबुज, तापर अधर ठही । नेमि० ॥ १ ॥ मार* मार तप घार जार विधि, केवलऋद्धि लही । चारतीस प्रतिशय दुतिमंडित नर्वेदुगदोष नही । नेमि० ॥ २ ॥ जाहि सुरासुर नमत सतत, मस्तकतें परस मेंही सुरगुरुवर अम्बुजमफुलावन अद्भुत भान सही । नेमि० ॥ ३ ॥ घर अनुराग विलोकत जाको, दुरित नसे सब ही । दौलत महिमा अतुल जासकी, कापै जात कही । नेमि० ॥ ४ ॥ । ५४ अहो नमि जिनप नित नमत शेत सुरप, कंदर्पगर्ज दर्पनाशन प्रबल पॅनलपन | अहो ० ॥ टेक ॥ नाप * कामदेवको मारके । २ अष्टादश । ३ निरन्तर । ४ पृथिवी ५ सौ इन्द्र | ६ कामदेव 1७ गर्व । ८ पनपी है, रूपन जिसके ऐसा पंचानन अर्थात् सिंह | } Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौरत-जैनपटसंग्रह। तुम बानि परपान जे करत भवि, नस निनझी जरामरनजामनवपन | अहो नमि० ॥१॥ महो शिवमौन तुम चानचितौन जे, करत तिन जरन भावी दुखद भवपिन ।। हे भुवनपाल तुम विशदगुनमाल उर, वरं ते टुक कालमें अयपन | अहो नमि० ॥ २ ॥ अहो गुनतू तुमरुप चख सरस करि, लखत सन्तोए मापति मयो नाकप न ।। अन, अकल, तन साल दुखद परिगह कुरोट, दुसहपरिसह सही धार व्रत सार एन । अहो नमि० ॥३॥ पाय केवल सफल लोक फरवत लख्यौ, अंख्यौ हप द्विधा सुनि नसत भ्रमसमझेपन नीच कीचक कियों मीचेत रहित जिम, दौसको पास ले नास मवद्याप पर्न । अहो नमि० ॥४॥ Mon-- प्रभु मोरी ऐसी बुघि फीजिये । रागदोपदावानलमे पच, मपतारसमें भीजिये। प्रभु० ॥ टेक ॥ परमें त्याग अपनपो निमें, लाग न फबई छीजिये। कर्म कर्मफलमाहिं न राचत, ज्ञान मुपारम पीनिये । मयिष्यन्में दुल देनेवाले २ साली वन १३ पच्छ । ४ तमया ५ गुकि ममूह । ६ इन्द्र । नदीदे मागेको भन्म for UPाप ९ गोटे पद । १. उपदेश दिया ! १बन । १२ मयुगे । १३ को ऐसा भी पाठ है।१४पर परापन समार । १५ पदर त. रमीक होने में है। १६ नगन न हो। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ दौलत-जैनपदसंग्रह। प्रभु मोरी० ॥ १॥ सम्यग्दर्शन शान चरननिधि, ताकी प्राप्ति करीजिये । मुझ कारजके तुम बड कारन, परज दौलकी लीजिये। प्रभु मौरी० ॥२ ॥ । वारी हो वधाई या शुभ साजै । विश्वसेन * ऐरादेवीगृह, जिनभवमंगल छाजै । वारी० ॥ टेक ॥ सब अमरेव, अशेष विभवजुत, नगर नागेपुर पाये। नाम-दत्त सुरइन्द्रवचनतै, ऐरावत सज धाये। लखजोजन शतवदन वदनवसु, रद प्रतिसर ठहराये । सर-सर सौ-पन वीस नलिनमति, पदम पचीस विराने । बारी हो० ॥ १॥ पदमपदमप्रति अष्टोत्तरशत, ठने सुदल मनहारी। ते सव कोटि सताइसपै मुद, जुत नाचत सुरनारी। नवरसगान ठान काननको उपनावत सुख मारी। बैंक ले लावत लंक लचावत, दुति लखि दामनि खाने । पारी हो० ॥२ ॥ गोप गोपतिय जाय मायढिग, करी तास थुति सारी। सुखनिद्रा जननीको कर नमि अंक लियो जगतारी । लै वसु मंगलद्रव्य दिशसुरांचली अन शुभकारी। हरखि हेरी , चख सहस करी तन, जिन पर निरम्बनकाजै । चारी हो० ॥३॥ ता गजेन्द्रपै 11१ शान्तिनाथ भगवानकी माता ।२ भगवानके जन्मका उत्सव । ३ सम्पूर्ण । ४ हस्तिनापुर ।५ कुवेर । ६ दात । ७ गुप्त रूपसे । ८ इन्द्राणी । ९ गोदमें। १० भगवानको। ११ दिकन्यका देविया । १२ इन्द्र । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। प्रथम इन्द्रन, श्रीनिनेन्द्र पषाये। द्वितीय पत्र दिय वृतिय, तुरिय-हरि, मुद परि घमर डराये। शेषेचक नयशन्द करत नम, संप सुरास छाये । पांडुशिला भिन यार नची सचि दुन्दभिकोटिक पाये । वारी० ॥ ४ ॥ पनि सुरेशने श्रीजिनेवको, जन्मनवन शुम ठानो । हेमाम्म सुरहायहि हायन, तीरोदधिजल आनो । बर्दनउदरअवगाह एक चौ, बसु यो जन परमानो । सहसभाटकर करि हरि मिनसिर , दारत जयधुनि गाज । बारी०॥५॥ फिर हरिनारि सिंगार स्वामितन, जजे सुरा जस गाये । पूवली विधिकर पयान मुद, ठान पिता पर लाये । मनिमय आंगनमें कनकासन, पै श्रीमिन पपराये । तांडव नृत्य कियो सुरनायक, शोमा सकल समान । वारी० ॥६॥ फिर हरि जगगुरुपितर तोप गान्तेअघो" जिन नामा । पुत्र जन्म उत्सार नगरमें, कियौ भूर अभिरामा । साध सकळ निजनिजनियोग सुर, असुर गये निनामा । त्रिपैदघारि जिनचारुचरनकी, दौलत करत सदा, जै । बारी० ॥ ७॥ •एशान इन। सानकमार और माहेन्द । ३ वाकोके पर इन्द्रा ४ अमेर। ५ इन्द्राणी । ६ सोनेके बलमोंके मुस एक योजन, उदर चार योजन भारजाहराई माठ योजन यो। ७ इन्द्राणी। पूनकी । जिन भगवान पिताको स्तुति करके। १० शान्तिनायनाम । १ घोषणा करके १२ सीकरल. चक्रातिर भए कामठेवत्व इन तीन पदोंके भारी। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंबह । हे जिन तेरो सुजस उजागर, गावत हैं मुनिजन ज्ञानी । है जिन० ॥ टेक ॥ दुर्जय मोह महाभट जाने, निजवश कीने जगमानी , सो तुम ध्यानपान पानिगहि, वतछिन ताकी यिति भानी । हे जिन० ॥१॥ सुप्त अनादि अविद्या निद्रा, जिन जन निजसुधि विसरानी । है सचेत तिन निजनिधि पाई, श्रवन सुनी जब तुम वानी । हे जिन० ॥२॥ मंगलभय तू जगमें उत्तम,तुही शरन शिवमगदानी । तुवपद-सेवा परम औषधि, जन्मजरामृतगदहानी* । हे जिन० ॥३॥ तुमरे पंच कल्यानकमाही, त्रिभुवन मोददशा ठगनी, विष्णु विदम्बर, निष्णु, दिगम्बर, बुध, शिव कह ध्यावत ध्यानी । है जिन० ॥४॥सर्व दर्वगुनपरजयपरनति, तुम सुवोधमें नहिं छानी । तातै दौल दास उर पाशा, प्रगट करो निजरससानी, हे जिन० ॥५॥ हे मन तेरी को कुटेव यह, करनेविषयमें धा है, हे मन० ॥ टेक ।। इनहीके वश तु अनादित निजस्वरूप न लम्बावै है। पराधीन छिन छीन सपाइल, दुर्गति * जन्ममरणराकपी रोग।२ इनद्रयोंके विषयमें। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-मैनपदसंग्रह । ११ विपति चसा है। हे मन० ॥ १ ॥ फरस विषयके कारन पारन, गैरव परत दुख पात्र है। रसनाइन्द्रीवश मर्प जलमें कंटक कंठ छिदा है। हे मन ॥२॥ गन्धलोल पंकज मुद्रितमें, भलि निज पान सपा है। नयनविषयका दीप. शिखामें, अंग पतंग जराव है । हे मन० ॥३॥ रनरिषयवश हिरन भरनमें, खरकर प्रान लुनावै है । दोलन तज इनको जिनको भन, यह गुरु सीख सुना है । हे० ॥४॥ हो तुम शठ अविवारी जियरा, जिनप पाय घ्या खोवत हो। हो तुम ॥ टेक || पी मनादि मदमोहस्वगु. ननिधि, भूल अवेन नींद सोवन हो। हो तुम० ॥१॥ स्वहित सीखवच सुगुरु पुकारन, क्यों न खोल उर-ग जोवत हो । ज्ञान विमार विषयविप चाखत, सुरतरु जारि कन वोवत हो। हो तुम० ॥२॥ स्वारय सगे सकल ज. नकारन, क्यों निज पापभार दोक्त हो । नरमव सुकुल जै. नष नौका, लहि निज क्यों भवजल ढोबत हो ।॥३॥ पुगयपापफल पातव्याधिश, छिनमें मत छिनक रोक्न रामी ।२ मा । ३ भाली। समन । से। ६ नमें | जिन वर्म ! - hast Trm ! • IN १. पतूग। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दौलत-जैनपदसंग्रह । हो । संयमसलिल लेय निज उरके, कलिमल क्यों न दौल घोवत हो । हो तुम० ॥४॥ __ हो तुम त्रिभुवनतारी हो जिन जी, मो भवजलधि क्यों न तारत हो। टेक। अंजन कियौ निरंजन ताते, अधमर. पार विरद धारत हो । हरि वराह मर्कट झट तारे, मेरी वेर टोल पारत हो। हो तुम० ॥१॥यौं बहु अधम उघारे तुम तौ, मैं कहा अधम न मुहि टारत हो। तुमको करनो परत न कछु शिव,-पथ लगाय भब्यनि तारत हो। हो तुम० ॥२॥ तुम छवि निरखत सहज रें. अघ, गुण चिंतत विधि-रज भारत हो । दौल न और चहै मो दीजै, जैसी श्राप भावनारत हो । हो तुम० ॥ ३ ॥ मान ले या सिख मोरी, झुकै मत भोगन ओरी। मान ले-टका भोग भुजंगभोगसम जानो, जिन इनसे रति जोरी। ते अनन्त भवं भीमें भरे दुख, परे अधोगति पोरी, बॅधे दृढ पातकडोरी | मान॥१॥ इनको त्याग पिरा. गी जे जन, भये शानषधोरी । तिन सुख लइयो अचल अ.. विनाशी, भवफांसी दई तोरी; स्मै 'तिनसंग शिवगोरी । १ सर्पके फणको समान ! ५ भयानक । ३ पार । ४ पापकी डोरमें । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। मान० ॥२॥ भोगनकी भमिलाप हरनको, त्रिजगमंपदा योरी। यात झानानंद दौल अब, पियो पियप कटोरी; मिटै भवव्याधि कठोरी ॥३॥ छांटि दे या वृघि मोरी, वृथा तनसे गति जोगे। छाडि ॥ टेक। यह पर है न रहै यिर पोपत, सफल कुपही मोरी । यासौं ममता कर अनादित, बंघो ककी होग, सई दुख जलधि हिलोरी ॥ छोडि दे या बुधि मोरी । च्या . ॥१॥ यह जद है तू चेतन यों ही, अपनावत बरनोरी। सम्यकदर्शन जान चरण निधि, ये हैं संपत तोरी, मदा दिलसो शिवगोरी ।। छादिदे या युधि मारी ॥ध्या०॥RIT मुखिया मये सदीर जीव जिन, यासौं ममता तोरी | दोस सील पह लीजे पीने, मानपियूष कटोरी, मिट पर कठोरी ॥ छांडि दे या बुधि मोरी ॥ या० ॥३॥ माम् हिन तेरा, सुनि ही मन मेरा, पाएं ॥ टेक नरनरकादिक नारौं गनिमें, भटक्यो तू अधिकानी! पापायति में प्रीति करी निल परनजि नाहिं पिछानी. महे दश क्यों न धनेगा। माम् ॥१॥ गुरु देव पय पंमि , Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ दौलत-जैनपदसंग्रह। ते बहु खेद लहायो । विवसुख दैन जैन जगदीपक, सो त कवहुं न पायो, मिटयो न अज्ञान अंधेरा ।। भाखू०॥२॥ दर्शनज्ञानचरण तेरी निधि, सो विधिठगन ठगी है । पांचों इंदिनके विषयनमें, तेरी बुद्धि लगी है, भया इनका तू, चेरा ॥ भाखू० ॥ ३॥ तू जगजाल विष बहु उरभयौ, अब कर ले सुरझेरा । दौलत नेमिचरनपंकजका हो तू भ्रमर सेबेरा, नशै ज्यों दुख भवकेरा ।। मारव० ॥४॥ ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै, जाको जिनवानी न सुहावै । ऐमा० ॥ टेक ॥ वीतरागसे देव छोडकर, भैरख यक्ष मनावै । कल्पलता दयालुता नजि हिंसा इन्द्रायनि बावै ॥ ऐसा ॥१॥ रुचै न गुरु निग्रन्थभेष बहु,-परि. प्रही गुरु भावै ।,परधन परवियको अभिला, अशनं अशो. पित खावै ॥ ऐसा०॥२॥ परकी विभव देख है सोमी, परदुख हरख लहावै । धर्म हेतु इक दाम न ग्वरच, उपवन लक्ष वहावै ॥ ऐसा० ॥३॥ क्यों गृहमें संचै बहु अष त्यों, बनहूमें उपजावै। अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, वाघम्वर तन छावै ॥ ऐसा ॥४॥ आरम तन शठ यंत्र मंत्र - १ कर्मरूपी ठगोंने १२ शीघ्र ही । ३ भोवे । ४ भोमन । ५ विना शोधा हुमा । ६ दुखी। ७ बाग बनाने में लाखों रुपये। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। करि, जनपै पूज्य मनाचे । धाम वाम तज दासी राखै बाहिर पदी बनावै ॥ ऐसा० ॥५॥ नाप घराय जी तपसी मन, पियनिमें ललचावै। दौलत सो अनन्त भव भटक, आरनको भटकावे ॥ ऐसा० ॥ ६ ॥ ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें पावै ॥ ऐसा० ॥ टेक ।। संशय विभ्रम मोह-विवर्जिन, स्वपरस्वरूप लखा । लरू परमातप चेतनको पुनि, कर्मफलंक मिटावे ॥ ऐसा योगी० ॥१॥ भवत्तनमोगविरक्त होय तन, नग्न सुमेप बनावै । मोडविकार निवार निजातम,अनुभवमें चित ला ॥ ऐसा योगी० ॥ २॥ स-पार. बघ त्याग सदा परमाददवा छिटकावे । रागादिकवश झूट न भाख, हणन अंदत गहावै ।। ऐमा रोगी० ॥ ३ ॥ गाहिर नारि स्पागि अतर निदब्रह्म मुलीन सराव । परपाकिंचन धर्मसार सो, विविध प्रसग वहावें । ऐसा योगी० ॥ पंच समिति प्रय गुप्ति पाल व्यवहार-नग्नग वा । निउचय सकळकपायरहिन , शुद्धातम यिर बारे ॥ ऐया योगी ॥शाप पंकदास रिपु मधि, व्याल बाल सम मारे । भारत रौद्र यान पिटारे, धर्मशुकलको संचार और और मोगों मिनिग दिवाकारका परिणत - - - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ध्या । ऐसा योगी० ॥१॥ जाके सुखसमाज की महिमा, कहत इन्द्र भकुलावै दौल तासपद होय दास सो, अकिचलऋद्धि लहावै । ऐसा योगी० ॥ ७ ॥ 86 लखो जी या जिय भोरेकी बात, नित करत अहित हित पाते । लखो जी० ।। टेक।। जिन गनघर मुनि देशरती समकिती सुखी नित जाते । सो पय भान न पान करत न, अपान विषयविष खाते । कखो० ॥१॥ दुखस्वरूप दुखफलंद जलदसम, टिकत न छिनक दिलाते । तजत न जगत भजत पतित नित, रचत न फिरत तहा॥ लखो० ॥ देह-गेह-धन-नेह ठगन अति, अघ संचत दिनराते। कुगति विपतिकलको न भीत, निश्चित प्रमाददशातें लखो० ॥३॥ कबहुं न होय आपनो पर, द्रव्यादि पृथक चतुपाते। पै अपनाय लहत दुख शठ नमै, इतन चलावत लाते ।। लखो० ॥४॥ शिवगृहद्वार सार नरभव यह, लहि दश दुर्लभतात। -खोक्त ज्यों मनि काग उड़ावत, रोक्त रंकपनातलखो०॥ ॥५॥ चिदानन्द निद स्वपद तज अपद विपद-पंद राते । कहत-सुशिखगुरु गहत नहीं उर, चहत न सुख समसातै । लखो० ॥ ६ ॥ जैनचैन सुन भवि बहु भव हर, .१ तृप्त होता है।'२ दुखरूप फल देनेवाला। ३ बादल! ४ द्रव्यक्षेत्रादि . चतुष्टयसे ।५ माकामा मात करनेको "६ निपत्तिस्थानमें सवीन । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दारत-चैनपदमं । छूटे दश । तिनकी मुक्या सुनत न मुनर्तन, आतपबोधकशते । लखो० ॥ ७ ॥ जे वन समिझान पारित, पावन पयवर्षत । वापविमोह ररयो तिनको जस, दौल त्रिमोन विरुवा || लखो० ॥ ८ ॥ ६७ सुनो जिया ये सतगुरुकी बातें, हित कहत दयाल दवात्रै । सुनो ॥ टेक ॥ यह वन आन अचेतन है तु, चेतन मिलत नयाँ । तदपि पिछान एक आतमको, वजत न हट शुटवातें ॥ मुनो० ॥ १ ॥ चहुंगति फिरत भरत ममताको, विषय महाविष खादें । तदपि न नजत नरमेव अभागे, हगवंतबुद्धिमुघातं ॥ सुनो० ॥ २ ॥ मात नाव सुत भ्रात स्वजन तुम, साथी स्वार नावें । तु इन काज सान गृहको सत्र, माना• दिक मत घाते || सुनो० ॥ ३ ॥ तन घन भोग संजोग सुपनसम, बार न लगत बिलातें । ममव न कर भ्रम नज तू भ्राता, अनुभव ज्ञान कला ॥ सुनो० ॥ ४ ॥ दुर्लभ नरभव सुपल मुकुल है, जिनं उपदेश लहा तैं । दोल नजो मन-सौ ममता ज्यों, निवडोद दशानें ॥ सुनो० ॥ ५ ॥ १ मनन नहीं करता । ९मान ३ दर्शन मारिणी मनसे । V* Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ दौलत - जैनपदसंग्रह | मोही जीव भरमतमतें नहि, वस्तुस्वरूप लखे है जैसें । मोही ० ॥ टेक ॥ जे जे जड़ चेतनकी परनति, ते अनिवार परन वै वैसें । वृथा दुखी शठ कर विकलपै यौं, नहि परिनवैं परिनवें ऐसे || मोहि० ॥ १ ॥ अशुचि सरोग समल ज. डमूरत, लखत बिलात गगनधन जैसे । सो वन ताहि निहार अपनो, चहत भवाघ रहें थिर कैसें || मोहि० ॥ २ ॥ सुत-विय बंधु - वियोगयोग यौं, क्यों सराय जन निकले पैसें ॥ चिलखत हरखत शठ अपने लखि, रोबत हॅसत मत्तनन जैसे || मोहि० ॥ ३ ॥ जिन-रवि-चैन फिरन लहि जिन निज रूप सुभिन्न कियौ पर मैसें ॥ यो जगमौल दौलको चिर थित मोहविलास निकास हृदैसैं || मोदी० ॥ ४ ॥ ६९ ज्ञानी जीव निवार भरमतम, वस्तुस्वरूप विचारत ऐसें । ज्ञानी० ॥ टेक ॥ सुत तिथ बंधु धनादि प्रगट पर, ये मुझर्ते हैं भिन्नपदेशै । इनकी परनति है इन भाश्रित, जोइन मात्र परनवें वैसें ॥ ज्ञानी० ॥ १ ॥ देह अचेतन चेतन में इन प. १ जिसका निवारन नहीं होसकता । २ जैसा परिणमन होना चाहिये "वैखा । ३ इसप्रकार नहीं परिणमै किन्तु इसप्रकार अपनी इच्छानुसार परिण । ४ निकलें । ५ प्रवेश करें । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। रनति होद एफसी कैस । पूरनगलन स्वमाव धरै तन, मैं अन अचल अमल नम जैसें । ज्ञानी० ॥२॥ पर परिनमन न इट अनिष्ट न च्या रागरुप द्वंद्व भयेसै । नसे ज्ञान निज फसे बंधमें, मुक्त होय समभाव लयेस ॥ ज्ञानी० ॥ ३ ॥ विपयवाहदवदाह नसे नहि, विन निज सुधासिंधुमें पैस। अब जिनवैन सुने श्रवननन, पिटे विभाव करूं विधि तैसे !! ज्ञानी ॥ ४ ॥ ऐसो अवसर कठिन पाय भर, निबहितहेत विलम्ब फरस। पछताओ यह होय सयाने, चेतन दौल छुटो भव मैसें । ज्ञानी० ॥५॥' अपनी सुधि भूल आप, भाप दुख उपायो, ज्यौं शुभ नभचाल विमरि नलिनी लटकायो ।। अपनी० ॥ टेक॥ चेतन अविरुद्ध शुद्ध दरवोधमय विशुद्ध, तजि जड-रम. फरस रूप, पुद्गल अपनायर्यो । अपनी० ॥ १ ॥ इन्द्रियमुखदुखमें निच, पाग रागरुखमें चित्त, दायमविपतिन्द, मन्धको बढायो । अपनी० ॥ २॥ चाहदा दाह, त्यागी न ताह चा, समतासुमन गाह मिन, निकट को बतायों ॥ अपनी ॥३॥ पानुपभव मुल पाय, जिनवरयासन लहाय, दौल निमस्तमान मन, अनादि जो न ध्यायों अपनी ॥४॥ १ रोने भार गरन होने समापन पर होता है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दौलत जैनपदसंग्रह। ७१ जीव तू अनादिहीत भूल्यौ शिवगैलवा । जीव० ॥ टेक। मोहमदवार पियौ, स्वपद विसार दियौ, पर अपनाय लियौ इन्द्रिसुखमें रचियौ, भवते न मियौ न तजियो मनमेलवा। जीव ॥१॥ मिथ्या ज्ञान आचरन, घरि कर कमरन, तीन लोककी धरन, तामें कियो है फिरन, पायो न धरन न लहायौ सुखशैलवा । जीव०॥ २॥ अव नरमव पायौ, सुथल सुकुल आयौ, जिन उपदेश भायौ, दौल घट छितकायौ, परपरनति दुखदायिनी चुरैलेवा । जीव० ॥३॥ आपा नहिं जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे ॥ टेक। देहाश्रित करि क्रिया आपको, मानत शिवमगचारी रे। आपा०॥१॥ निजनिकंदविन घोर परीसह विफल कही जिन सारी रे । आपा ॥२॥ शिव चाहे तो द्विविधकर्मत, कर निजपरनति न्यारी रे । आपा० ॥३॥ दौलत जिन निजभाव पिछान्यो तिन भवविपति विदारी रे । प्रा०॥४॥ १मोक्षका मार्ग । २ चुडैठ । ३ 'न पेिठाना' ऐसा भी पाठ है। ४ अपनी अत्माका स्वरूप नाने विना 1 ५ द्विविधधर्म कर ऐसा भी पाठ है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोन-बैनपदसंग्रह। शिवपुरको डंगर सपरसमों भरी, मो विषयविरमरचि चिरविसरी। शिब० ॥ टेक ।। मम्यकदर पोपप्रतपय भव, दुसदावानल मेवमरी। शिवपुर० ॥ १ ॥ तादिन पाय तपाय देह बहु, जनमपरन करि रिपति भरी । काल पाय जिनधुनि सनि में जन, ताहि लई मोई धन्य घरी ॥शिव० ॥२॥ ते जन धनि या मांहि चन्न निन, निन कीरति सुरपति उचरी । विपयचाह भवराह त्याग पर, दौल हरो रनरसिमरी ॥ शिवपुर ॥ ३ ॥ ७४ तोहि समझायो सौ सौ पार, जिया तोहि सममायो. ॥टेक ॥ देख सुगुरुकी परहितमे रति, हिन उपदेश मुनायो। मौ सौ वार० ॥ १॥ विषयभुजंग सेय सुन्नु पायो पुनि तिनौं लपटायो । सरदविसार रयो परपदमें, पदरत ज्यो मोरायो । सौ सौ बार० ॥२॥ तन मन स्वनन नहीं है. वैरे, नाइक नेह बगायो । क्यों न व अम वाग्द.. - २मार्ग। ३ भारताविया ! ४ी -भार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ दौलत-जैनपदसंग्रह । समामृत, जो नित संतसुहायो । सौ सौ वार० ॥३॥ अनहू समझ कठिन यह नरभव जिन वृष विना गमायो । ते विलखें मनि डार उदधिम, दौलतको पछतायो । सौ सौ० ॥४॥ ७५ न मानत यह जिय निपट अनारी । सिख देत सुगुरु हितकारी ॥ मानत. ॥ ॥ टेक ॥ कुमतिकूनारि संग रति मानत, सुमतिसुनारि विसारी ॥ न मानत० ॥१॥नरपरजाय सुरेश चहैं सो, चनि विषविषय विगारी । त्याग अनाकुल ज्ञान चाह पैर-धाकुलता विसतारी ॥ न मानत. ॥२॥ अपना भूल आप समतानिधि, भवदुख भरत भिखारी । परद्रव्यनकी परनतिको शठ, वृथा बनत करतारी ॥ न मानत.॥३॥ जिस कषाय-दव जरततहां अभि,लाप छवा घृत बारी । दुखसौं डरै करै दुखकारन,-ते नित प्रीति करारी॥न मानत०॥४॥ अतिदुर्लभ जिनवैन श्रवनकरि, संशयमोह निवारी । दौल स्वपर-हित-अहित बानके, होवहु शिवमगचारी ।। न मानत० ॥५॥ हे नर, भ्रमनींद क्यों न, छांडत दुखदाई । सेवत चिर . १-समतारूपी अमृत । २ जिन्होंने । ३ धर्म । ४ पुदगल सम्बंधी ५पती । ६ गारी। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत जैनपद । ५३ काल मोज, आपनी ठगाई । हे नर० ॥ टेक ॥ सूरखे अथ कर्म कहा, मैद नहि धर्म मे नहि पर्म लहा, लादुक, देरके तताई || हे नर० ॥ १ ॥ जमके रव वाजते, सुमेव अति गाजते, अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न पाई ॥ नर || २ || परको अपनाय भाप, रूपको भुलाय हाय श्नविषय दारु जार, चाहदों बढ़ाई !! हे नरः ॥ ३ ॥ अर सुन जिनान, राग द्वेपको जवान, मोक्षरूप निज पान दौल, भज विरागताई ॥ हे नर० ॥ ४ ॥ ७७ म पारी आज महिपा जानी | म भारी० || टेक | भवतों मोह महामढ पिप में, तुमरी सुधि विमरानी । माग जगे तुम शांति छवी लखि, जडना नींद बिलानी ॥ मु० ॥ १ ॥ जगविजयी दुखदाय रागरूप, तुम दिनकी यिवि मानी । शांतिसुवासागर गुन यागर, पम्म विराग विज्ञानी । प्रभु० || २|| समवसरण अतिशय कपलाजुन वै निग्रन्थ नि. दानी । क्रोधविना दुट मोहविदारक, त्रिभुवनपूज्य मानी । प्रभु० ॥ ३ ॥ एकस्वरूर कळपाऊन, नग- उदास जग मानी । शत्रुमित्र सबमें तुम मम हो, जो दुख फल यानी | प्रभु || १ || परम ब्रह्मचारी है प्यारी, तुम हेरी शिवरानी । हैं कृतकृत्य तदपि तुम शिवण, उपदेशक है। http १ 'मुद्गर अप कर धान मे नहि मरमदान ऐशा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. दौलत-जैनपदसंग्रह। भगवानी ॥५॥ भई कृपा तुमरी तुमर्मते, भक्ति सु मुक्ति निशानी । है दयाल अब देहु दौल को, जो तुमने कृति गनी ।। ___ तुम सुनियो श्रीजिननाय, अरज इक मेरी जी। तुम ॥ टेक ।। तुम विन हेत जगत उपकारी, वसुकर्मन मोहि कियो.दुखारी, धानादिक निधि हरी हमारी, घावो सो मम परी जी ॥ तुम सुनि० ॥१॥ मैं निज भूल तिनहि संग लाग्यो, तिन कृत करन विषय रस पाग्यौ, तातै जन्म-जरा दव-दाग्यौ, कर समता सम नेरी जी ।। तुम सु०॥२॥ वे अनेक प्रभु मैं जु अकेला, चहुंगति विपतिमाहि मोहि पेला, भाग जगे तुपसौं भयो भेला, तुम होन्यायनिवेरी जी। तुम सु० ॥३॥ तुम दयाल बेहाल हमारो, जगतपाल निज विरद समारो, ढील न कीजे वेग निवारो, दौलतनी अबफेरी जी ।। तुम सु०॥४॥ अरे जिया, ना बोखेकी अटी। अरे० ॥ टेक ॥ मूग रक्षम लोक करत हैं, जिसमें निशदिन घाटी ॥ अरे॥१॥ मान बूझके अन्ध बने हैं, आंखन बांधी पाटी। परे० ॥२॥ निकल जांएगे पाए छिनकमें, पड़ी रहेगी माटी । अरे ॥ ६ ॥ दौलतराम समझ मन अपने, दिलकी खोल कपा-- वी॥ ४॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tea-जैनपदसंग्रह | ५५ ८० हम तो कनहूँ न हित उपजाये। मुकुल-सुदेव-गुरु-सुसंग दित, कारन पाय गमाये ! हम तो० ॥ टेक ॥ ष्यों शिशु नाचत, आप न माचत, लखनहार बौराये । त्यों श्रुत वांचव चाप न राचत, औरनको समाये || हम तो० ॥ १ ॥ सुजस-लाहकी चाह न तज निज, मता लखि दरखाये । विषय तजे न रेंजे निज पदमें, परपद अपद लुमाये ॥ हम तो० ॥ २ ॥ पापत्याग बिन जप न कीन्हों, सुनचाप-तप ताये । चेतन तनको कहते मिन पर, देह सनेही पाये । उप सो० ॥ ३ ॥ यह चिर भूळ भई हमरी अब कहा होन पछताये । दौल मजों भवभोग रचौ मन, योँ गुरु वचन सुनाये ॥ हम तो० ॥ ४ ॥ ८१ हम तो कबहुं न निजगुन माये । तन निज मान जान तनदुखव में विलखे हरवाये | हम तो० ॥ टेक ॥ तनको मरन मरन कखि उनको, धरन मान हम जीये। या भ्रम मौर परे मबनल चिर, चहुंगति विपत बहाये | हप तो० || १ || दरशनोवा न चाय, विविध विषय-विष खाये । मुगुरु दयाळ सीख दड़ पुनि पुनि, सुनि मुनि घर रमग्न हुए १ मग्न होते । - शाम पढते । ३ सुनके साम की। -५ जिनदेनका जपन । ६ मनवा अर्थात् कामदेवकी तपनमें राम " ७ भावना की उत्पन्न हुए । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ दौलत-जैनपदसंग्रह। नहिं लाये ||हम तो० ॥२॥ वहिरातपता तजी न अन्तरदृष्टि न है निज. ध्याये । घाम-काम धन-समाकी नित, श्राश हुताश जलाये ॥ हम तो० ॥ ३ ॥ अचल धनूप शुद्ध चिद्रूपी, सब सुखमय मुनि गाये । दौल चिदानंद स्वगुन मगन जे, ते जिय सुखिया थाये । हम वो० ॥ ४ ॥ हम तो कबहुं न निज घर आये। परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक घराये । हम तो० ॥ टेक ।। परपद निजपद पानि मगन हवै, परपरनति लपटाये । शुद्ध युद्ध सुख कन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये । हम तो० ॥१॥ नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । अमल अखण्ड अतुल अविनाशी, भातमगुन नहिं गाये । हम तो० ॥२॥ यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये । दौल तजौ अजहूं विषयनको, सतगुरु वचन सुनाये ॥ हम तो० ॥ ३ ॥ ___ मानत क्यों नहिं रे, हे नर सीख सयानी। भयौ अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि विसरानी ॥ टेक ॥ दुखी अना'दि कुंवोध अवृत्ततें, फिर तिनसौं रवि ठानी । ज्ञानसुषा नि १शारूपी अग्निमें । ९ मिथ्यात्वसे । ३ मिथ्या चारित्रसे। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-मैनपदसंग्रह | aभाव न चाख्यौ, परपम्ननि मति सानो || मानत० ॥ १॥ भव असारता लखे न क्यों जह नृप है क्रेमि विदधानी । सघन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुसिंगा हरिसे पानी || मानत० || २ || देह एह गेंद-गेह ने इस है यह विपति निशानी । जड मलीन छिनतीन करमकृत, -बन्धन शिवसुखहानी | मानत० ॥ ३ ॥ चाहल्वलन ईंधन-विधि-वन घन, आकुलना कुलग्यानी | ज्ञान-सुवा सर शोपन रवि ये, विषय अमित मृतुदानी | मानत० ॥ ४ ॥ य लखि भव-तन मोग विरचि करि, निजहित सुन विनानी । तज्ञ रुराग दोळ अत्र अवसर, यह जिनचन्द्र वखानी | मानत० ॥ ५ ॥ ? जानत क्यों नहि रे, हे न‍ आतपन्नानी । जानत० ॥ टेक ॥ राजदीप पुद्गलकी संपति, निश्च शुद्धनिशाना | जानत० ॥ १ ॥ जाय नरकपशुना मुरगतिमें, यह परजाय विरानी | सिद्धमरूप मा अविनाशी, मान्न विरले मानी ॥ जानत० ॥ २ ॥ कियो न काहू हौं न कोई, गुरु-शिस फौन कहानी | जनममरनमलरहित विमल है, कोचविना जिपि १ कीट । विष्टाके स्थानमें । ३ कृष्णनारायण खरी । ४ रोगका छ ५ मृत्यु । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ दौलत-जैनपदसंग्रह। पानी ॥ जानत०॥३॥ सार पदारथ है तिहुं जगहें, नहिं क्रोधी नहिं मानी । दौलत सो घटमाहिं विराजे, लखि हुने शिवथानी ॥ जानत०॥४॥ हे हितबांछक प्रानी रे, कर यह रीति सयानी । हे हित ॥ टेक ॥ श्रीजिनचरम चितार धार गुन, परम विराग, विज्ञानी । हे हित० ॥१॥ हरन भयामय स्वपरदयाषय, सैरधौ वृष सुखदानी । दुविध उपाधि वाघ शिवसाधक, सुगुरु भजौ गुणयानी । हे॥२॥ मोह-तिमिर-हर मिहरभजो श्रुत स्यात्पद जास निशानी। सप्ततत्त्व नव अर्थ, विचारह, जो वरनै जिनवानी । हे हित० ॥३॥ निज पर भिन्न पिछान मान पुनि होह, आप सरवानी । बो इनको विशेष जानन सो, ज्ञायकता मुनि मानी। हे हित०॥४॥ फिर व्रत समिति गुपति सजि, अरु तजि प्रति शुभासवदानी । शुद्ध स्वरूपाचरन लीन है, दौल वरौ शिवरानी। हे हित आतम रूप अनूपम अद्भुत, याहि सो भव सिंधु तरो । १डर और रोग।२ प्रदान करो। ३ धर्म । ४ सूर्य । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौरत-जैनपदसंग्रह । ५९ बा० ॥ टेक । अन्त्यकालमें भरत चक्रघर, निश भानमको ध्याय सरो। केवलशन पाय भवि पोधे, सनधिन पायो लोकशिरो ॥ प्रा० ॥१॥ या दिन ममुझे द्रव्य. लिंगिमुनि, उग्र तपनकर मार भरो । नवग्रीवकपर्यन्न जाप चिर, फेर मर्णवमार्टि एरो॥भात ॥२॥ सम्पादन धान चरन तप, येहि जगनमें मार नरो । पूव शिवको गये नाहिं अर, फिर बैं वह नियत करो ।। आ० ॥ ३ ॥ कोटि ग्रन्थको सार यही है, ये ही जिनवानी उचगे। टोल ध्याय अपने भानमको, मुक्तिरमा तव वेग वरी। मा०४॥ ८७ भाप भ्रमविनाश पाप नाप जान पायो, कर्णकृत मुवर्ण जिमि चितार चैन पायौ । माप० ॥ टेक | मेगे तन तनपप तन. मेरो में तनको त्रिकालयों दोष नशमबोधमान बायो । प्राप० ॥१॥ यह मुजैनदैन ऐन, चिनन पनि पुनि सुनन, प्रगटो भय भेद नि, निवेदगुन बढायों । ॥ भाप० ॥२॥ यों ही चित अचिन मिश्र, अपना अहेय डेय, धन धनंज जैसे, स्नोमियोग गायों | आर० ॥३॥ मंगर पोते छुटन मैटति, वांछिन तट निकटत जिमि, मोह नेतिर = शिला।२ पोर! ३ अपने ५ म मुन्योरी | NIREE! ८ भन्नि ! गोप । १. महान ५ोन। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। रागरुख हर जिय, शिवतट निकायौ। आप० ॥ ४ ॥ विमल सौख्यमय सदीव, मैं हूं मैं नहिं अजीव, जोत होत रजुमय,, भुजंग भय भगायौ । प्राप० ॥ ५ ॥ यौँ ही जिनचंद सुगुन, चिंतत परमारय चुन, वौल भाग जागो जद, अल्पपूर्व पायौ । आप० ॥६॥ विषयोंदा मद भान, ऐसा है कोई वे ॥ टेक ॥ विषय दुःख अर दुखफल तिनको, यौं नित चित्त न ठाने । विषयोंदा० ॥१॥ अनुपयोग उपयोग स्वरूपी, तनचेतनको मान । विषयोंदा०॥२॥ वरनादिक रागादि भावत, भिन्न रूप तिन' जानें । विषयोंदा० ॥३॥ स्वपर जान रुपराग हान, निजमें निज परनति सानै । विषयोंदा० ॥ ४ ॥ अन्तर वाहरको परिग्रह तजि, दौल वसै शिवथान । विषयोंदा० ॥५॥ और सबै जगद्वन्द मिटावो, लो लावो जिन भागमओरी । और० ।। टेक ॥ है असार जगद्वन्द्व वन्धकर, यह कछु गरज न सारत तोरी । कमला चपला, यौवन सुरधनु,स्वजन पथिकजन क्यों रति जोरी ॥ और० ॥१॥विषय २ विषयोंका (पंजाबी) ३ लक्ष्मी। ४ विजली । ५ इन्द्रधनुष । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत - जैनपदसंग्रह | ६१ कषाय दुखद दोनों ये, इनतैं तोर नेहकी डोरी । परद्रव्यनको तु अपनावंत, क्यों न तजै ऐसी बुधि भोरी || और० ॥ ॥ २ ॥ बीत जाय सागरथिनि सुरकी, नरपरजायतनी अवि योरी । अवसर पाय दौल अब चूको, फिर न मिले मणि, सागरवोरी || और० ॥ ३ ॥ ९० I और अवै न कुदेव सुहावें, जिन थाके चरनन रतिजोरी | और० ॥ टेक ॥ कामकोहवश गर्दै अशन असि कं निशक धरै तियः गोरी । औरनके किम भाव सुधारें, आप कुभाव - भारघर - धोरी । और० ॥ १ ॥ तुम विनमोह अकोहछोह विन, छके शांत रस पीय कटोरी। तुम तज सेय प्रमेयें भरी जो, जानत हो विपदा सब मोरी । और० ॥ ॥ २ ॥ तुम तज तिनै भर्जे शठ जो सो दाख न चाखत खात निमोरी । हे जगतार उधार दौलको, निकट विकट भवजलधि हिलोरी || और० ॥ ३ ॥ 1 ९१ कबध मिल मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं भवोदघि पारा हो । कवध० ॥ टेक ॥ भोगउदास जोग जिन लीनों, १ गोदमें । २ क्रोध क्षोभ रहित । ३ सेवा । ४ अपरिमाण । ५ भवसमुद्र की लहरें । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ दौलत-जैनपदसंग्रह । छाडि परिग्रहभारा हो । इन्द्रिय दमन वमन मद कीनो, विषय कषाप निवारा हो ॥ कवधों ॥१॥ कंचन काच बरावर जिनके, निंदक बंदक सारा हो । दुर्धर तप तपि सम्यक निज घर, मनवचतनकर धारा हो । करधों ॥ ॥२॥ ग्रीषम गिरि हिम सरितातीरै, पावस तस्तर ठारा हो । करुणाभीने चीन सयावर, ईपिय समारा हो । फवधों० ॥३॥ मार मार व्रत धार शील दृढ, मोह महापल टारा हो । मास छमास उपास वास वन, प्रासुक करत महारा हो ॥ कवधों ॥ ४॥ भारतरौलेश नहि जिनके, धर्म शुकल चित धारा हो । ध्यानारूढ़ गूढ़ निन आतम, शुधउपयोग विचारा हो ॥ कवधों० ॥ ५ ॥ आप तर्हि औरनको तारहि, भवजलसिंधुअपारा हो। दौलत ऐसे जैनजतिनको, नितप्रति धोक हमारा हो ॥ कवों० ॥६॥ कुमति कुनारि नहीं है मली रे, सुमति नारि सुंदर गुन-पाली, कुमति० ॥ टेक ॥ वासौं विरचि रचौ नित यासौं, जो पायो शिवधाम गली रे। वह कुवजा दुखदा यह राधा, १ एकसे । २ 'लीन' ऐसा भी पाठ है । ३ कामदेवको मारकर । ४"धर तप तपि धमकित गहि निज चित, करि मनवचन सारा हो, मासमास उपवास पासवन" ऐसा भी पाठ है। ५ मार्तध्यान । रौद्रध्यान । धर्मध्मान ! शुक्लध्यान । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोस्त- जैनपदसंह | # बाधा टारन करन रली रे || पति० ॥ १ ॥ वह कारी परसौ रवि ठानत, मानत नाहि न मीस भली रे । वह गोरी निईगुण सहवारिनि, रमत सदा स्वमाधि-लो रे ॥ कृपति० ॥ ॥ २ ॥ बा संग कुयल कुयोनियों निन, तहां महादुसबेल फली रे । या संग रसिक भक्निकी निजमें, पग्निवि दौल भई न चेली रे ॥ कुमति० ॥ ३ ॥ ९३ गुरु वहत सीख इमि पर वार, a farयनको टार टार || गुरु० ॥ टेक ॥। इन सेवत अनादि दुख पायो, जनम मरन वहु धार धार | गुरु० ॥ १ ॥ कर्माधित वाघाजुत फांसी, बन्त्र चढावन द्वंदकार | गुरु० ॥ २ ॥ ये न इन्द्रिके तृप्तिहेतु जिमि, तिसै न बुभावत सारेंवार | गुरु० ॥ ॥ ३ ॥ इनमें सुख कलपना अवुधके, चुवजन मानत दुख प्रचार | गुरु० ॥ ४ ॥ इन तमि ज्ञानपियूष चख्यौ दिन, बौल लदी भगवार पार गुरु० ॥ ५ ॥ ९४ घडि घटि पल पल छिन छिन निश्श दिन, प्रभुबीका सुमरन करले रे । घटि० ॥ टेक ॥ मधु सुमिरे पाप क हैं, जनममरनदुख हरले रे || घटि घडि ० ॥ १ ॥ मनवच १ ज्ञान गुण सहचारिणी । २ फिर चलायमान न हुई । ३षा | ४ बारा पानी | Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ दौलत - जैनपद संग्रह | काय लगाय चरन चित, ज्ञान दिये विच घर ले रे । घडि वडि० ॥ २ ॥ दौलतराम, धर्मनौका चढि, भवसागर विर ले रे ॥ घडि घडि० ॥ ३ ॥ १५ चिन्मूरत हग्घारीकी मोहि, रीति लगत है अटापटी | चिन्मू० ॥ टेक ॥ वाहिर नारकिकृत दुख भोगे, अंतर सुखरस गटागटी | रमत अनेक सुरनि संग पै विस, परनवि नित हटाईटी || चिन्मू० ॥ १ ॥ ज्ञानविरागशक्ति विधिफैल, भोगत पै विधि चॅटाघटी । सदननिवासी तदपि उदासी ard आस्रव छटाछटी || चिन्मू० || २ || जे भवहेतु अनुचक्रे ते तस करत बन्धकी भटाभट । नारक पशु लिय पंढे विकलत्रय, प्रकृतिनकी है कटकटी || चिन्सू० ॥ ३ ॥ संयम वर न सके पै संयम, धारनकी उर चटानटी । तासु सुयश गुनकी दौलत लगी, रहै नित रटारटी || चिन्मू० ॥ ४ ॥ ९६ " चेतन यह बुधि कौन सयानी; कही सुगुरु हित सीख मानी ॥ टेक ॥ कठिन काकताली ज्यौं पायौ, नरभव सुकुल श्रमण निनवानो । चेतन० ॥ १ ॥ भूमि न होत 1 १ अटपटी । २ दूरपना । ३ कर्मफल । ४ न्यूनपना । ५ नपुंसक । ६ काकतालीय न्याय से अर्थात् जैसे ताडवृक्षसे ताड़फलका टूटना और कागका उसके नीचे दबकर मरलाना कठिन है वैसे Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ६५ चादनीको ज्यौ, त्यौं नहिं धनी ज्ञेयको झानी । वस्तुरूप यौं तू यौं ही शठ, हटकर परत सोंज विरानी ॥ चेतन० ॥२॥ ज्ञानी होय अज्ञान राग रुप-कर निज सहज स्वच्छता हानी। इन्द्रिय जड तिन विषय अचेतन, तहां अनिष्ट इष्टता ठानी ॥चेतन० ॥३।। चाहै सुख, दुख ही अवगाहै, अव सुनि विधि जो है सुखदानी ।दौल अापकरि आप आपमें, ध्याय लाय लय समरससानी ॥ चेतन० ॥ ४ ॥ चेतन कौन अनीति गही रे, न मानें सुगुरु कही रे । चेतन० ॥ जिन विषयनवश बहु दुख पायो, तिनसौं प्रीति ठही रे। चेतन० ॥१॥ चिन्मय है देहादि जड़नसौं वो मति पागि रही रे । सम्यग्दर्शनज्ञान भाव निज तिनकौं गहत नहीं रे । चेतन० ॥२॥जिनप पाय विहाय रागरुष, निजहित हेत यही रे। दौलत जिन यह सीख धरी उर, तिन शिव सहज लही रे ॥ चेतन० ॥३॥ चेतन तें यों ही भ्रम ठान्यो, ज्यों मृग मृगतृष्णा जल जान्यो । चेतन० ॥ टेक ॥ न्यौं निशितम, निरख जेवरी, * 'निजसुधासुरुचि गहि' ऐसा भी पाठ है। - - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ दौलत-जैनपदसंग्रह । भुजग मान नर भय र मान्यो । चेतन०।१ज्यौं अध्यान वश महिष मान निज, फैसि नर उरमाही अकुलान्यौ । त्यौं चिर मोह अविद्या पेरयो, तेरो से ही रूप भुलान्यो । चेतनः ॥२॥ तोय तेल ज्यौं मेल न तनको, उपज खपेजमें सुखदुख मान्यो। पुनि परभावनको करता है, ते तिनको निज कर्म पिछान्यो । चेतन० ॥ ३ ॥ नरभव सुथल सुकुल जिनवानी. काललब्धि वल योग मिलान्यो । दौल सहज भन उदासीनता तोष-रोष दुखकोष जु भान्यो । चेतन०॥४॥ चेतन अब धरि सहजसमाधि, जाते यह विनशै भवव्याधि । चेतन० ॥ टेक ॥ मोह ठगौरी खायके रे, परको आपा जान । भूल निजातम ऋद्धिको ते, पाये दुःख महान ॥ चेतन० ॥१॥ सादि अनादि निगोद दोयमें, परयो कर्मवश जाय । श्वासउसासमझार वहां भव, मरन अठारह थाय । चेतनः ॥२॥ कालअनन्त तहां यौं वीत्यो, जब मइ मन्द कषाय । भूजल अनिल अनल पुन तरु है, काल असंख्य गमाय । चेतन० ॥३॥ क्रममा निकसि कठिन ते पाई, शंखादिक परजाय 1 जल यल खचर होय अघ गने, तस वश श्वभ्र लहाय ।। चेतन०॥४॥तित सागरलों बहु १विनाशमें।२ रागद्वेष ३ नष्ट किया । ४ वायुकाय । ५ अग्निकाय । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौरत-चैनपदसंग्रह। दुस पाये, निकम कबहु नर याप । गर्म जन्मशिशु नरपरद दुस, सहे कई नहि जाय । चेतन० ॥ ५॥ फरहूं किंचित पुण्यपात चरविधि देव पहाय । विषयमाय मन पास लही तई, पान ममय विललाय ! चेतन ॥ ६॥ यों अपार भयारवारमें, भ्रम्यो अनन्त काल दोलत अब निनमावनाव नदि, ले मनाविकी पाल ।। चेतन०॥७॥ जिन गगटोपत्यागा वह सतगुरू मारा | जिन राग. ।। टेक ।। वन राजरिद तृणवत निज काज समारा। जिन रागः ॥२॥राता है वह वनखंडमें, धरि ध्यान गरा। जिन मोर महा तरुको, जामृल उखारा | जिन राग।२। सांग तम परिमद विगवर भरा | अनंतनानगुनसमुद्र चारित्र मैंटारा।। जिन राग०॥ ६॥ शुल्लामिको प्रनाळके वसु फानन जारा । ऐसे गुरुको दोक है, नमोऽस्तु हमारा। जिन राग० ॥४॥ चिदरायगुन सुनो सुनो प्रशस्त गुरुगिरा । समस्त तन विमान, हो सकीपमें घिरा विद० ॥ टेक ॥ निमारके २ नर पर रामधनी मामा , सपाट भी मा. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૮ दौलत - जैनपदसंग्रह | लखाब विन, भवानिमें परा । जानन मरन जरा त्रिदोष, अग्निमें जरा || चिद० ॥ १ ॥ फिर सादि श्र अनादि दो, निगोदमें परा । तह अंकके असंख्यभाग, ज्ञान डबरा ॥ चिद० ॥ २ ॥ तहां भव अन्तर मुहूर्तके, कहे गनेश्वरा छयासठ सहस त्रिशत छतीस, जन्म घर मरा ॥ चिद० ॥ ३ || यौं वशि अनंतकाल फिर, तहाँ नीसरा । भूजल अनिल अनल प्रतेक तरुमें तन धरा ॥ चिद० ॥ ४ ॥ अनुंधरी कुंथु कागपच्छ अवतरा | जल थळ खचर कुनर नरक, असुर उपज मरा || चिद० || ५ || अबके सुथल सुकुल सुसंग, बोध लहि खरा । दौलत त्रिरत्न साध लाघ, • पद अनुत्तरा ॥ चिद० ॥ ६ ॥ १०२ चित चित चिदेशे कव, शेषे परं वर्मे । दुखदा अपार विधि दुचार. - की चमूँ दम् ॥ चित चि० ॥ टेक ॥ तजि पुण्यपाप थाप आप, आपमें रेमू । कब राग-भाग शर्म- बाग, दागिनी शंम् ॥ चित चितकें ॥ १ ॥ हंगेज्ञानमानतें मिथ्या, अज्ञानतम दमू । कब सर्व जीव प्राणि १ आत्मा । २ सम्पूर्ण । ३ परपदार्थ । ४ वमन करदूं — छोडदूं । ५ कर्म । ६ दो चार अर्थात् आठ ७ फौज । ८ आत्मामें । ९ रमण करूं । १. कल्याणरूप बागकी जलानेवाली ११ शमन करूं, सांत करू । १२ सम्मन् दर्शन और ज्ञानरूपी सूर्यसे । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत - जैनपदसंग्रह 1 ६९ भूर्त, सत्त्वसौं छम् ॥ चित चित० ॥ २ ॥ जले पललिप्त-कलै सुकैल-, सुबल्ल परिनम् । दलके त्रिशलमले कच, अलपद पमू || चित चित० ॥ ३ ॥ कत्र ध्याय अज अपरको फिर न भवविपिन भम् । जिन पूर कौल दौलको यह हेतु हौं नम्र || चित चित० ॥ ४ ॥ २०३ जिन छवि लखत यह बुधि भयो । जिन० ॥ टेक ॥ मैं न देह चिंदमय तन, जड फरसरसमयी । जिन छविο ॥ १ ॥ अशुभशुभफल कर्म दुखसुख, पृथकता सब गयी । रागदोषविभावचालित, ज्ञानता थिर थयी || जिन छवि० ॥ ॥ २ ॥ परिगहन आकुलता दहन, विनशि शमता लयी । दौल पूर्वप्रलभ आनंद, लड्यो भवयिति जयी | जिन० ॥ ॥ ३ ॥ १०४ जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी । जिनवैन ● ॥ टेक ॥। स्वभाव मात्र चेतनको, भिन्न पिछानन सुमति जगी । जिन० ॥ १ ॥ जिन अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर रुप तुप मैल-पगी । स्यादवाद-धुनि-निर्मल-जलते, विमल १ दशप्राणमयी । २ जड । ३ शरीर । ४ शुक्लध्यानके बलसे । ५ माया, मिथ्यात्व, निदानरूपी तीन शक्यरूपी पहलवानों को । ६ मोक्षपद । ७ प्रतिज्ञा । ८ पूर्वमें जिसका लाभ नहीं हुआ ऐसा । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। भई समभाव लगी | जिन. ॥ २ ॥ संघयमोहमरमता विघटी, प्रगटी आदमसोज सगी । दौक अपूरव मंगळ पायो, शिवसुख लेन होस उमगी । जिन० ॥३॥ जिनवानी जान सुजान रे। जिनवानी० ॥ टेक ॥ लाग रही चिरते विभावता, ताको कर अवसान रे । जिनबानी० ॥ १ ॥ द्रव्य क्षेत्र अरु काल भावकी, क्यनीको पहिचान रे । जाहि पिछाने स्वपरमेद सब, जाने परत निदान रे। जिनवानी० ॥२॥ पूरव जिन जानी तिनहीने, मानी संमृतिवान रे । अब जानै अरु जानेंगे जे, ते पावे शिवधान रे ॥ निनवानी० ॥ ३ ॥ कह 'तुषमा मुनी शिवभूती, पायो केवलज्ञान रे । यौं लखि दौलत सतत करो भवि, चिद्वचनामृतपान रे ।। जिनवानी० ॥ ४ ॥ जम आन अचानक दावेगा। जम आन० ॥ टेक ॥ छिनछिन कटत घटत थि ज्यौं जल, अंजुलिको कर जावेगा । जम पान० ॥१॥ जन्म तालतरुते पर जिय १ निजपरणति । २ नाथकी । ३ भ्रमणकी आदत । ४ मायु । ५ जन्मरूपी ताडवृक्षसे पह करके जीवापी फल में कबतक रहेगा वह तो नीचे पढेगा ही, अर्थात् मरेगा है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत - जैनपदसंग्रह | ७१ फल, कोलग बीच रहावेगा । क्यों न विचार करै नर खिर, मरन महीमें आवेगा || जम मान० ॥ २ ॥ सोक्त मृत नागत जीवत ही, श्वासा जो थिर थावैगा । जैसे कोऊ छिपे सदासों, कबहूं अवशि पलावैगा ॥ जम आन० || ३ || कहूं कबहूं कैसे हू कोऊ, अंतकेसे न बचावैगा । सम्यकवानपियूष पिये सौं, दौल अमरपद पावैगा ॥ जम आन० ॥ ४ ॥ २०७ aisa क्यों नहि रे, हे नर ! रीति भयानी । वारवार सिख देव सुगुरु यह, तू दे आनाकानी || छांड़त ॥ टेक ॥ विषय न तजतन भजत बोध व्रत, दुखसुखजाति न जानो । शर्म च न लहै शठ ज्यों घृतहेत विलोक्त पानी ॥ छांडत ० ॥ १ ॥ वन घन सदन स्वजनजन तुझ्सों, ये परजाय विरानी | इन परिनमन विनशउपजन सों, तैं दुद सुखकर मानी || छांडत० || २ || इस अज्ञानतै चिरदुख पाये तिनकी अकथ कहानी | ताको तज हग-ज्ञान चरन भज, निजपरनवि शिवदानी || छांडत० || ३ || यह दुर्लभ नरभव सुसंग कहि, तच्च लखावन वानी । दौल न कर अव पर में ममता, पर समता सुखदानी ॥ छांटस • ॥ ४ ॥ १ भागेगा । २ जमराजसे । ३ सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। राचि रहयो परमाहिं तु अपनो रूप न जानै रे । राचि रहयो ।टेक । अविचल चिनमूरत विनमूरत, सुखी होत तस ठान रे । राचि रहयो० ॥१॥ तन धन भ्रात तात सुत जननी, तु इनको निज जानै रे। ये पर इनहिं वियोगयोगमें यौं ही सुख दुख मान रे॥राचि०॥ २॥ चाह न पाये पाये तृष्णा, सेवत ज्ञान जपान रे । विपतिखेत विधिवंघहेत पै, जान विषय रस वान रे । राचि० ॥ ३॥ नर भव जिनश्रुतश्रवण पाय अव, कर निज सुहित सयाने रे। दौलत आतम ज्ञान-सुधारस, पीवो सुगुरु बखान रे ॥ राचि रहयो० ॥४॥ तू काहेको करत रवि तनमें, यह अहितमूल जिम कारासदन । तु काहेको० ॥ टेक ॥ चरमपिहित पॅलरुघिरलिप्त मल,-द्वार सवै छिनछिनमें । तू काहेको०॥१॥ आयु-निगड फंसि विपति भरै सो, क्यों न चितारत मनमें। तू काहेको० ॥२॥ सुचरन लाग त्याग अब याको, जो न भ्रमै भववनमें । तू काहेको० ॥ ३॥ दौल देहसौं नेह देहको,-हेतु कहथौ ग्रन्यनमें । तू काहेको० ॥४॥ १ कारागार जहलखाना । २ चमडेसे ढकी हुई। ३ मास! ४ भायु कपी बेटियों में ।' - - Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ७३ यारा तौ वैनामें सरधान घणो छै, म्हारे छवि निर. खत हिय सरसावै । तुमेधुनिधन परचहन-दहनहर, वर ममता-रस-झरवरसावै । थारा०॥शा रूपनिहारत ही बुधि है सो निजपरचित जुदे दरसावै । मैं चिंद अकलंक अमक विर, इन्द्रियसुखदुख जडफरसावै । थारा० ॥२॥ ज्ञान विरागसुगुनतुम विनकी, प्रापतिहित सुरपति तरसावै । मुनि पडभाग लीन तिनमें नित, दौल धवल उपयोग रसाचे ॥ थारा० ॥३॥ त्रिभुवनग्रानन्दकारी जिन छवि, यारी नैननिहारी । त्रिभु० ॥टेक ॥ ज्ञान अपूरव उदय भयो अब, या दिनकी बलिहारी। मो उर मोद वदो जु नाथ सो, कथा न जात उचारी। त्रिभु० ॥१॥ सुन धनघोर मोरमुद ओर न, ज्यों निधि पाय मिखारी । जाहि लखत झट करत मोह रज होय सो भवि अविकारी। त्रिभु० ॥२॥जाकी सुंदरता सु पुरन्दर-शोम लजावनहारी | निज अनुभूति सुधाछवि १ वचनोंमें । २ आपका वाणीरूप मेघ । ३ पर पदार्थोकी चाहरूपी अग्निको वुझानेवाला है। ४ चैतन्यस्वरूप । ५ इंद्रियजन्य सुखदुख जट का स्पर्श करते हैं मेरा नही, मुझे सुखदुख नहीं होते। ६ इन्द्र । ७ वि. पद निर्मल । ८ इंद्रकी शोभा। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत - जैनपदसंग्रह | पुलकित, पदन मदन अरिहारी । त्रिभु० || ३ || शूल दुर्कुल न बाला माला, मुनि मन मोद प्रसारी । अरुन न नैन न सैन भ्रम न न, बैंक न लॅक सम्हारी । त्रिभु० ॥ ४ ॥ तातै विधि विभाष क्रोधादि न, लखियत हे जगतारी । पूजत पातकपुंज पत्तावत, ध्यावत शिषविस्तारी । त्रिभु० || ५ || कामधेनु सुरतरु चितामनि, इकभव सुखकरतारी । तुम छवि लखत मोदतें जो सुर, सो तुमपद दातारी | त्रिभु० ॥ ६ ॥ महिमा कहत न लहत पारसुर, गुरुहूकी बुषि हारो । और कहै किम दौळ चहै इम, देहु दशा तुपधारी || त्रिभु० ॥ ७ ॥ ७४ ११२ जिन छवि तेरी यह, घन जगतारन | जिन छवि० ।। टेक ॥ मूळ न फूलै दुकूल त्रिशूल न, शमदमकारन भ्रमतम- ' वारन | जिन० ॥ १ ॥ जाकी प्रभुता की महिमातें सुरंनधी शिता लागत सार न । अवलोकत भविथोक मोख मग, चरत वरत निजनिधि उरधारन | जिन० ॥ २ ॥ जजत भजत अघ तौ को अचरज ? समकित पावन भावनकारन । तासु सेव फल एव चहत निव, दौलत जाके सुगुन उचारन ॥ जिन छवि० ॥ ३ ॥ १ त्रिशूल १२ वा । ३ कमर । ४. जटा ना बल्कल । ५ फूलों की माला । ६ वल । ७, इन्द्रपणा । ८ आपके नेसे यदि पाप भागते हैं, तो इसमें क्या आचर्य है ? 1 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत जैनपदसंग्रह। ७५ ११३ धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी, बरसत भ्रमतापहग्न बानपनकरी ॥ टेक । जाके विन पाये भवविपति प्रति भरी। निज परहित अहितकीकडून सुधि परी॥धन० ॥१॥ जाके परमाव चित सुविग्ता करी। संशय भ्रम मोहकी मु वासना टरी । धन० ॥२॥ मिध्यागुरुदेवसेव टेब परिहरी । वीतरागदेव सुगुरुसेव उरघरी ॥ धन० ॥३॥ चारों अनुयोग सुहितदेश दिठपरी। शिवमाके लाहकी सु. चार विश्वरी ।। धन० ॥ ४॥ सम्यक् तरु घरनि येह करन-करिहरी । भवजलको तरनि समेर भुजग विपजरी ॥ धन० ॥५॥ पूरवमव या मसादरमनि शिव परी । सेवो अव दौल चाहि वात यह खरी ॥ धन० ॥ ६ ॥ ११४ धनि मुनि जिनकी लगी लो शिवभोरन । धनि० ॥ टेक ॥ सम्पगदर्शनशानचरननिधि, धरत हरत भ्रमचोरने । पनि० ॥१॥ ययानानमुद्राजुन सुन्दर, सदन विजन गिरिकोरनै । तुन कंचन अरि स्वजा गिनत सम, निंदन १ हितोपदेश २ लामकी । ३ इन्द्रियरूपी हाथियोंको सिंहके समान । ४ जहाज १५ कामदेवरूपी सर्पके लिवे विनाशक जड़ी । ६ लगन । विमकि सब जगह 'को के भर्यमें है। ८ नग्न, दिगम्बर । ९. निर्जन । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ और निहोरेंन । धनि० ॥ २ ॥ भवसुख चाह सकल तजि बल सजि, करत द्विविध तप घोरने ॥ परमविरागभाव पेवितैं नित, चुरत करम कठोर ॥ धनि० ॥ ३ ॥ छीन शरीर न हीन चिदानन, मोहत मोहझकोरनै । जग तप-हर भैवि कुमुद निशाकर मोदन दौल चकोरने ॥ धनि० ॥ ४ ॥ दौलत - नैनपदसंग्रह | Ł ११५ धनि मुनि जिन यह भाव पिछाना । धनि० ॥ टेक ॥ सनव्यय वांछित प्रापति मानो, पुण्यउदय दुख जाना । धनि० ॥ १ ॥ एकविहारी सकल ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना । सब सुखको परिहार सार सुख, जानि रागरुप भाना ॥ धनि० ॥ २ ॥ चित्स्वभावको चित्य प्रान निज, विमलेज्ञान गाना | दौल कौन सुख जान लहयो विन, करो शांतिरसपाना ॥ धनि० ॥ ३ ॥ ११६ 1 धनि मुनि निज आतमहित कीना । भव प्रसार तन अशुचि विषय विष, जान महाव्रत लीना ॥ धनि मुनि जिन आतमहित० ॥ टेक ॥ एकविहारी परीगह छारी परिसह सहत रीना | पूरव तन तपसाधन पान न, लाज गनी परचीन ॥ धनि मुनिः ॥ १ ॥ शुन्य सदन गिर गहन १ प्रार्थना करनेको २ । वज्रसे । ३ भव्यरूपी कुमोदनीको चन्द्रमा । 1 ४ ऐश्वर्यं । ५ सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शनसहित । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ७७ गुफामें, पदमासन पासीना। परभावनते भिन्न आपपद, ध्यावत मोहविहीना ॥ धनि मुनिः ॥ २ ॥ स्वपरमेद जिनकी बुघि निजमें पागी वाहि लगीना, दौल तास पद वारिजरंजसे किस अर्धे करे न छीना ॥ मुनि० ॥ ३ ॥ ११७ निपट अयाना, ते पापा न जाना, नाहक भरम भुलाना । निपट० ॥ टेक ॥ पीय अनादि मोहमद मोहयो, परपदमें निज मानावे । निपट. ॥१॥ चेतन चिह्न भिन्न जड़तासों, ज्ञानदरशरस-साना वेतनमें छिप्यो लिप्यो न तदपि ज्यों, जलमें कर्जेदल मानावे निपट० ॥ ॥२॥ सकलभाव निज निज परनतिमय, कोई न होय' विराना बे तू दुखिया परकृत्य मानि ज्यौं, नमताडनश्रम गना बे॥ निपट० ॥३॥ अज गनमें हरि मूल अपनपो, भयो दीन हैराना वे। दौल सुगुरुधुनि सुनि निजमें' निज, पाय लढ्यो सुखयाना वे निपट० ॥४॥ नितहितकारज करना भाई । निजहित कारज करना ॥ टेक ॥ जनममग्नदुख पावत जाते, सो विधिबंध कतरना. १ चरणरूपी कमलोंकी धूलिने । २ किसके । ३ पाप । ४ कमलपत्र।। ५ आकाशको पीटने जैसा । करोंमें | ७ सिंह ८ । कर्मबन्धः .. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। निज०॥१॥ज्ञानदरस भर राग फरस रस, निजपरचिह भ्रमरना । संधिभेद धिनीत कर, निज गहि पर परिहरना । निजहित० ॥२॥ परिग्रही अपराधी शेक, त्यागी अभय विचरना । त्यौं परचाह बंध दुखदायक, त्यागत सबसख भरना ॥निजहित० ॥३॥जो भवभ्रमन न चाहे तो अव, सुगुरुसीख उर धरना । दौलत स्वरस सुधारस चाखो, ज्यौं विनसै भवमरना ॥ निजहित० ॥ ॥४॥ मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन, दा भला पाया । अवसर मिल नहिं ऐसा, यौं सतगुरु गाया ॥ मनवच० ॥' ॥ टेक ॥ वस्यो अनादिनिगोद निकसि फिर, यावर देह घरी । काल असंख्य अकाज गमायो, नेक न समुझि परी ॥ मनवच०॥१॥चिंतामनि दुर्लभ लहिये ज्यौं, जसपरजाय लही । लट पिपील अलि आदि जन्ममें, लहयो न भान कहीं ॥ मनवच० ॥२॥ पंचेंद्रिय पशु भयो कष्टते, तहां न वोध लह्यो । स्वपरविवेकरहित विन संयम, निशदिन भार बह्यो। मनवच० ॥३॥ चौपथ चलत रतन कहिये ब्यौं, मनुषदेह पाई । सुकुल जैनष सतसंगति यह, अतिदु २बुद्धिरूपी छैनीसे निज और परका संघिभेद करना । ३ परिप्रहका धारी तथा परकी वस्तु प्रहण करनेवाला चोर । ४ नौका। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-बैन पर संग्रह | ७९ र्लभ भाई ॥ मनवच० ॥ ४ ॥ यौं दुर्लभ नरदेह कुधी जे, विषयनसंग खोवें । ते नर मूढ अजान सुधारस, पाय पांव धावें ॥ मनवच० ॥ ५ ॥ दुर्लभ नरभव पाय सुधी जे, जैन धर्म | दौलत ते अनंत अविनाशी । सुख शिवका धेवें || मनवचतन करि० ॥ ६ ॥ १२० मोहिड़ा रे जिय ! हितकारी न सीख सम्हारै । भवन भ्रमत दुखी लखि याको, सुगुरुदयालु उचारै ॥ मोहि० ॥ ॥ टेक ॥ विषय भुजंगम संग न छोडत, जो प्रनन्तभव मारै । ज्ञान विराग पिग्रुप न पीवत, जो भवव्याधि विहारै ॥ मोहि० ॥ १ ॥ जाके संग दुरें अपने गुन, शिवपद अन्तर पारें । ता तनको अपनाय आप चिन, मृरतको न निहारै || मोहि० ॥ २ ॥ सुत दारा धन काज साज अघ, आपन कान विगारे । करत आपको प्रति आपकर, ले कृपान नल दारे || मोहि० || ३ || सही निगोद नरककी वेदन, ये दिन नाहि चितारै । दौल गई सो गई वह नर, घर हग चरन सम्हारै ॥ मोहिडा० ॥ ४ ॥ 1 १२१ मेरे है वा दिनकी सुधरी । मेरे० ॥ टेक ॥ तनविन वसन असनविन वनमें, निवसों नासादृष्टिधरी । मेरे ० ॥ १ मुखे । २ जाने अनुभव करें । ३ तलवार लेकर जलको काटता है, । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ॥१॥ पुण्यपापपरसौं कब विरचों, परचों निजनिधि चिरविसरी । तज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम हिममेघसरी || मेरे० ॥ २॥ कव थिलोग घरों ऐसो मोहि. उपले जान मृग खाज हरी । ध्यान-कमान तान अनुभव-शर छेदों किहि दिन मोह श्ररी ।। मेरे० ॥ ३ ॥ कर उनकचन एक गनों अरु, मनिजडितालय शैलदरी । दौलत सत गुरुचरन सैव जो, पुरवो आश यह हमरी ॥ मेरे० ॥ ४ ॥ १२२ लाल कैसे जानोगे, असरनसरन कृपाल लाल० ॥ ॥ टेक ॥ इद दिन सरस वसंतसमयमें, केशवकी सब नारी प्रभुपदच्छनारूप खडी है, कहत नेमिपर वारी । लाल०॥ ॥१॥ कुंकुम लै सुख मलत रुकमनी रंग छिरस्त गांधारी। सतभामा प्रभुओर जोर कर छोरत है पिचकारी ॥ लाल. ॥२॥ व्याह कबूल करो तो छूटौ, इतनी अरज हमारी । मोकार कहकर प्रभु मुलके, छांट दिये जगतारी ।। लाल. ॥ ३ ॥ पुलकितवदन मदनपितु-भामिनि, निज निज सदन सिधारी । दौलत जादववंशव्योम शशि, जयौ जगत हितकारी | लाल० ॥ ४॥ १ धूप-शीत-वर्षी । २ पत्यर । ३ अनुभवरूपी पाग [४ रत्नजडित महल ।५ पर्वतकी कंदरा । ६ स्वीकार । " मगनप्रति-ऐसा भी पाठ है। मदनपितुभामिनि-मदन भयात् प्रद्युम्न कामदेवके पिता श्रीकृष्णकी स्त्री Page #83 -------------------------------------------------------------------------- _