SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। रनति होद एफसी कैस । पूरनगलन स्वमाव धरै तन, मैं अन अचल अमल नम जैसें । ज्ञानी० ॥२॥ पर परिनमन न इट अनिष्ट न च्या रागरुप द्वंद्व भयेसै । नसे ज्ञान निज फसे बंधमें, मुक्त होय समभाव लयेस ॥ ज्ञानी० ॥ ३ ॥ विपयवाहदवदाह नसे नहि, विन निज सुधासिंधुमें पैस। अब जिनवैन सुने श्रवननन, पिटे विभाव करूं विधि तैसे !! ज्ञानी ॥ ४ ॥ ऐसो अवसर कठिन पाय भर, निबहितहेत विलम्ब फरस। पछताओ यह होय सयाने, चेतन दौल छुटो भव मैसें । ज्ञानी० ॥५॥' अपनी सुधि भूल आप, भाप दुख उपायो, ज्यौं शुभ नभचाल विमरि नलिनी लटकायो ।। अपनी० ॥ टेक॥ चेतन अविरुद्ध शुद्ध दरवोधमय विशुद्ध, तजि जड-रम. फरस रूप, पुद्गल अपनायर्यो । अपनी० ॥ १ ॥ इन्द्रियमुखदुखमें निच, पाग रागरुखमें चित्त, दायमविपतिन्द, मन्धको बढायो । अपनी० ॥ २॥ चाहदा दाह, त्यागी न ताह चा, समतासुमन गाह मिन, निकट को बतायों ॥ अपनी ॥३॥ पानुपभव मुल पाय, जिनवरयासन लहाय, दौल निमस्तमान मन, अनादि जो न ध्यायों अपनी ॥४॥ १ रोने भार गरन होने समापन पर होता है।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy