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________________ ५० दौलत जैनपदसंग्रह। ७१ जीव तू अनादिहीत भूल्यौ शिवगैलवा । जीव० ॥ टेक। मोहमदवार पियौ, स्वपद विसार दियौ, पर अपनाय लियौ इन्द्रिसुखमें रचियौ, भवते न मियौ न तजियो मनमेलवा। जीव ॥१॥ मिथ्या ज्ञान आचरन, घरि कर कमरन, तीन लोककी धरन, तामें कियो है फिरन, पायो न धरन न लहायौ सुखशैलवा । जीव०॥ २॥ अव नरमव पायौ, सुथल सुकुल आयौ, जिन उपदेश भायौ, दौल घट छितकायौ, परपरनति दुखदायिनी चुरैलेवा । जीव० ॥३॥ आपा नहिं जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे ॥ टेक। देहाश्रित करि क्रिया आपको, मानत शिवमगचारी रे। आपा०॥१॥ निजनिकंदविन घोर परीसह विफल कही जिन सारी रे । आपा ॥२॥ शिव चाहे तो द्विविधकर्मत, कर निजपरनति न्यारी रे । आपा० ॥३॥ दौलत जिन निजभाव पिछान्यो तिन भवविपति विदारी रे । प्रा०॥४॥ १मोक्षका मार्ग । २ चुडैठ । ३ 'न पेिठाना' ऐसा भी पाठ है। ४ अपनी अत्माका स्वरूप नाने विना 1 ५ द्विविधधर्म कर ऐसा भी पाठ है।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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