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________________ ७६ और निहोरेंन । धनि० ॥ २ ॥ भवसुख चाह सकल तजि बल सजि, करत द्विविध तप घोरने ॥ परमविरागभाव पेवितैं नित, चुरत करम कठोर ॥ धनि० ॥ ३ ॥ छीन शरीर न हीन चिदानन, मोहत मोहझकोरनै । जग तप-हर भैवि कुमुद निशाकर मोदन दौल चकोरने ॥ धनि० ॥ ४ ॥ दौलत - नैनपदसंग्रह | Ł ११५ धनि मुनि जिन यह भाव पिछाना । धनि० ॥ टेक ॥ सनव्यय वांछित प्रापति मानो, पुण्यउदय दुख जाना । धनि० ॥ १ ॥ एकविहारी सकल ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना । सब सुखको परिहार सार सुख, जानि रागरुप भाना ॥ धनि० ॥ २ ॥ चित्स्वभावको चित्य प्रान निज, विमलेज्ञान गाना | दौल कौन सुख जान लहयो विन, करो शांतिरसपाना ॥ धनि० ॥ ३ ॥ ११६ 1 धनि मुनि निज आतमहित कीना । भव प्रसार तन अशुचि विषय विष, जान महाव्रत लीना ॥ धनि मुनि जिन आतमहित० ॥ टेक ॥ एकविहारी परीगह छारी परिसह सहत रीना | पूरव तन तपसाधन पान न, लाज गनी परचीन ॥ धनि मुनिः ॥ १ ॥ शुन्य सदन गिर गहन १ प्रार्थना करनेको २ । वज्रसे । ३ भव्यरूपी कुमोदनीको चन्द्रमा । 1 ४ ऐश्वर्यं । ५ सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शनसहित ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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