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________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ७७ गुफामें, पदमासन पासीना। परभावनते भिन्न आपपद, ध्यावत मोहविहीना ॥ धनि मुनिः ॥ २ ॥ स्वपरमेद जिनकी बुघि निजमें पागी वाहि लगीना, दौल तास पद वारिजरंजसे किस अर्धे करे न छीना ॥ मुनि० ॥ ३ ॥ ११७ निपट अयाना, ते पापा न जाना, नाहक भरम भुलाना । निपट० ॥ टेक ॥ पीय अनादि मोहमद मोहयो, परपदमें निज मानावे । निपट. ॥१॥ चेतन चिह्न भिन्न जड़तासों, ज्ञानदरशरस-साना वेतनमें छिप्यो लिप्यो न तदपि ज्यों, जलमें कर्जेदल मानावे निपट० ॥ ॥२॥ सकलभाव निज निज परनतिमय, कोई न होय' विराना बे तू दुखिया परकृत्य मानि ज्यौं, नमताडनश्रम गना बे॥ निपट० ॥३॥ अज गनमें हरि मूल अपनपो, भयो दीन हैराना वे। दौल सुगुरुधुनि सुनि निजमें' निज, पाय लढ्यो सुखयाना वे निपट० ॥४॥ नितहितकारज करना भाई । निजहित कारज करना ॥ टेक ॥ जनममग्नदुख पावत जाते, सो विधिबंध कतरना. १ चरणरूपी कमलोंकी धूलिने । २ किसके । ३ पाप । ४ कमलपत्र।। ५ आकाशको पीटने जैसा । करोंमें | ७ सिंह ८ । कर्मबन्धः ..
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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